May 31, 2014

~~ कल का सपना / ध्वंस उल्लास - 4 ~~

~~ कल का सपना / ध्वंस उल्लास - 4 ~~
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© Vinay Kumar Vaidya, Ujjain.

पिछले कितने दिन कैसे बीते यह सोचता हूँ तो आश्चर्य होता है। कहने को तो मनुष्य अपने को एक नाम और एक काया समझता है लेकिन उस नाम और काया से जुड़ा एक (या अनेक?) साकार (या निराकार?) 'मन' नामक तत्व कितने समयों में कितने धरातलों पर गतिशील रहता है, यह शायद ही उसे पता होता है।  यहाँ तक कि इस सरल और नितान्त प्रकट वास्तविकता पर फिर भी उसका ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि कोई उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट ही न कर दे। और बावज़ूद इसके वह अपने को एक नाम-विशेष, एक काया-विशेष ही मान बैठता है।  'वह' कौन ? मन या मनुष्य ? प्रश्न यह भी है कि वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हैं, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप ?
मन कभी ठहरा होता है, तो कभी तरंगित।  कभी उदास तो कभी प्रसन्न। कभी चिंतित तो कभी  निश्चिन्त। कभी व्यग्र तो कभी शांत।  कभी भावना के ज्वार पर तो कभी अवसाद के उतार पर।  मन या मनुष्य ? प्रश्न यह भी है कि वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हैं, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप ?  स्पष्ट है मन या मनुष्य जो भी होता है, एक या (या अनेक?) साकार (या निराकार?), उसका 'जीवन', उसकी 'सत्ता' अवश्य ही दो तलों पर होती है।  मन और मनुष्य वे दोनों सचमुच एक ही चीज़ के दो रूप / दो नाम हों, या दो अलग अलग चीज़ों के दो नाम / दो रूप होते हों, अवश्य ही 'जीवन' के दो परस्पर अंतःस्यूत घनिष्ठतः गुथे हुए पक्ष होते हैं जिनमें भेद कर पाना कठिन होता है। लेकिन उनमें व्याप्त 'जीवन' भी तो उनकी ही तरह  साकार / निराकार, एक / अनेक के मध्य दोनों जैसी ही एक विलक्षण सत्यता है ! क्या वह सत्यता उनसे भिन्न कोई तीसरा तत्व है?
इसलिए मन / मनुष्य / जीवन तीनों ही बस अनिर्वचनीय यथार्थ हैं। वह यथार्थ एक समग्र तथ्य है, वह न सिर्फ आप है, न मैं, न हम, तुम वे, यह या वह !
पिछले कई दिनों से इसी बारे में कौतूहल, जिज्ञासा और जानने-समझने की उत्कण्ठा थी।
यदि कहूँ 'मुझे' थी तो वह गलतबयानी होगा।  क्योंकि मन / मनुष्य / जीवन तीनों ही बस अनिर्वचनीय यथार्थ हैं। वह यथार्थ एक समग्र तथ्य है, वह न सिर्फ आप है, न मैं, न हम, तुम वे, यह या वह !
इसलिए पिछले कितने दिन कैसे बीते यह सोचता हूँ तो बस आश्चर्य होता है।
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आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित् एनम्
आश्चर्यवत्  वदति तथा-एव च अन्यः।
आश्चर्यवत् च एनम् अन्यः शृणोति
श्रुत्वा अपि एनम्  वेद न च एव कश्चित्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता  2 / 29 )
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May 30, 2014

आज की कविता / 30 मई 2014

आज की कविता / 30 मई 2014
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'फ़र्क'
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अपने लिए निराश हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं !
तुम्हारे लिए दुःखी हूँ,
लेकिन निराश नहीं !!
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©

May 27, 2014

~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास - 3 ~~

~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास - 3 ~~
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सोचता हूँ ' भारतीय' और 'हिन्दू' के अर्थ और प्रयोग और प्रयोग के परिणाम में क्या अंतर है ।
वर्ष 1967 - 1968 में, जब मैं कक्षा 9 का छात्र था पहली बार इस और मेरा ध्यान गया, हालाँकि तब मैं इसे राजनीतिक बुद्धिजीवी जैसा सोचते हैं, कुछ उस ढंग से ही सोचा करता था।  अपरिपक्व तरीके से, जिन्हें किसी तथ्य की सत्यता को गहराई से देखने-समझने के लिए न तो वक्त होता है, न रुचि।  और वे अपने आसपास के वातावरण के अनुसार किसी 'आदर्श' / 'सिद्धांत' या 'लक्ष्य' की प्राप्ति को जीवन की परम उपलब्धि मानकर कभी उत्साह से तो कभी कर्तव्य से या बस अपने लिए किसी क्षेत्र-विशेष में कोई विशेष स्थान भविष्य में  बनाने के लिए श्रम-संलग्न  हो जाते हैं।  इस दृष्टि से दूसरे लोग जो ज्यादा परिपक्व बुद्धि के होते हैं, वे या तो जीवन में अपनी क्षमताओं और संभावनाओं को पहले ही टटोल लेते हैं और अपनी सीमाओं के अंतर्गत अपने लिए कोई जीवन-शैली अपनाकर खुश रहते हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश को उन्हीं दिनों पढ़ा था।  गीता को बाद के वर्षों में।  फिर यह लगा कि किसी भी ग्रन्थ को ख़ासकर आध्यात्मिक, पौराणिक / ऐतिहासिक ग्रन्थ को भी  उसके मूल रूप में ही पढ़ना चाहिए।
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जब इस प्रकार से मुझे लगा कि वास्तव में 'हिन्दू' शब्द  न तो किसी 'धर्म' के लिए प्रयुक्त किया जाता है, और न संस्कृति या समाज के लिए, बल्कि यह भारतीयता की जीवन-शैली ही अधिक है, तो मुझे यह भी लगा की फिर तो 'हिन्दू'-आधारित राजनीति हमें विभाजित और सिर्फ विभाजित ही करेगी।  लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि तथाकथित धर्म-निरपेक्षता, जो पहले तो मनुष्यता / भारतीयता को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन और बौद्ध में बाँटने और फिर उन्हें 'समान' 'समझने' के सिद्धांत का आग्रह करती है, हमें विभाजित नहीं करती। मुझे यह भी लगा कि  इस प्रकार से हम एक ऐसे प्रश्न और समस्या को हल करने के प्रयास में हैं, जो मूलतः अस्तित्व ही नहीं रखती।
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जब  मैंने श्री  बलराज मधोक  के विचार पढ़े तो मेरा यह दृढ विचार हो गया की राष्ट्र / भारत की अखण्डता के लिए हमें 'हिंदुत्व' पर नहीं बल्कि भारतीयता पर जोर देना होगा।
चूँकि मेरा राजनीति के क्षेत्र से न तो कोई सरोकार था, न मेरे लिए यह संभव था कि मैं राजनीति में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ूँ, इसलिए अपने विचार मैंने अपने तक ही रहने दिए।
लेकिन 'भारतवर्ष' या 'भारत' से जुड़ी अपनी अस्मिता मेरे लिए जीवन का सर्वाधिक अमूल्य तत्व हो गई।
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कल जब श्री नरेंद्र मोदी जी के शपथ-ग्रहण समारोह की कमेंट्री रेडिओ पर सुनी तो एक गहन आनंद की अनुभूति हुई। आज जब नईदुनिया अख़बार में श्रवण गर्ग की रिपोर्ट पढ़ी, तो मैं सोचने लगा कि  श्री नरेंद्र मोदी  संकल्प और ऊर्जा से अपना अभियान चलाया वह किसी ईश्वरीय सत्ता के आशीर्वाद  के बिना शायद ही फलीभूत होता।  और जब मैंने पढ़ा कि किस प्रकार 'विजेता' होने पर भी उन्हें अपने राजनितिक प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करने का जरा भी गर्व नहीं है, तो बरबस मेरा सर उनके प्रति सम्मान से झुक गया।
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 ~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास - 3 ~~ © , उज्जैन 27 /05 /2014 . 
    

~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास -2 ~~

~~ कल का सपना  / ध्वंस का उल्लास -2 ~~
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पिछले तीन माह से चल रहा विप्लव कल चरम को छूकर बिखर गया।
16-2-2014 को एक पोस्ट लिखी थी :
'ध्वंस का उल्लास',
उस उल्लास के महायज्ञ की पूर्णाहुति हो गई ।
मन विभोर था।
शाम को ठीक 5 :30 पर आकाशवाणी इंदौर लगाया, और बेसब्री से श्री नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमन्त्री पद के शपथ-ग्रहण समारोह के 'आँखों देखा हाल' की प्रतीक्षा करने लगा।
वैसे मेरे पास बतलाने के लिए अपना ऐसा कोई औपचारिक कोई 'परिचय' या 'परिचय-पत्र' नहीं है जिसके आधार पर मैं  भारतीय नागरिक होने का दावा कर सकूँ।  'ड्राइविंग-लाइसेंस' कुछ साल पहले लैप्स हो चुका है, राशन-कार्ड का इस्तेमाल भी पंद्रह साल से नहीं किया।  वोटर्स'-आई डी कार्ड भी कहीं ऐसी जगह रखा है जो मेरी पहुँच से बाहर है।  और राजनीति में भागीदारी से मुझे बचपन ही से सख्त परहेज था ।  इसलिए मुझे देश में चल रहे विप्लव के बारे में रुचि तो नहीं, कौतूहल अवश्य था।
रोज का अख़बार, चूँकि आता है और अखबारवाले भैया मेरे मना कर देने पर भी जबरदस्ती डाल जाते हैं और मैं सिर्फ सौजन्यतावश ही बिल का पेमेंट कर देता हूँ, इसलिए एक नज़र डाल देता हूँ।
वैसे तो पृष्ठ १ से अंतिम पृष्ठ तक यही लगता है 'हम कहाँ जा रहे हैं?' लेकिन मैं बस देखने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता, इसलिए चिंता करने का भी कोई मतलब नहीं। मैं नहीं जानता कि  'प्रगति' क्या है, 'विकास' और 'समृद्धि' का  पैमाना क्या है / क्या होना चाहिए।
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एक शब्द है 'हिंदुत्व'। जिसके बारे में बचपन से सुनता आ रहा हूँ।  मेरे अपने परिवार में कई लोग हैं जो 'हिन्दू' होने में 'गर्व' अनुभव करते हैं।  अभी 16 मई से जरा पहले यू आर अनंतमूर्ति के संबंध में गिरीश कर्नाड का एक वक्तव्य पढ़ा था,  जिसका सार यह कि 'हिन्दू' कुछ नहीं होता।  उनके कहने का आशय मैं समझता हूँ। मेरा पिछले पचास से भी अधिक वर्षों से यही मत रहा है कि 'हिन्दू' कुछ नहीं होता। न 'धर्म', न 'राष्ट्रीयता'। और इसलिए अगर हम हिन्दू-मुस्लिम या ऐसे भेदों को बहस का विषय बनाते हैं तो हम उसे किसी ऐसी परिणिति तक नहीं ले जा सकते, जिससे बहस समाप्त हो जाए, कोई सर्वमान्य निष्कर्ष निकला जा सके ।
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मैंने किसी भी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ में 'हिन्दू' शब्द नहीं देखा।  हाँ कबीरदासजी या उनके समकालीन तथा बाद के लोगों के ग्रंथों में इसके होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
मेरा अपना विश्लेषण यह है कि विष्णुपुराण तथा मनुस्मृति के सन्दर्भ में देखें तो 'आर्य' तथा आर्यावर्त दोनोँ  शब्द पृथ्वी के इस भौगोलिक क्षेत्र को जिसे वे तथा हम भी 'भारत' कहते हैं 'सुपरिभाषित' करते हैं।  और दोनों ही के अनुसार हिमालय से दक्षिण में समुद्र तक तथा पश्चिम में सिंधु नदी तक की भूमि 'आर्यावर्त' है।

"उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।"
(विष्णुपुराण)
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और इसलिए  हिन्दू कहने की बजाय मैं अपने-आपको, 'भारतीय' कहना कहलाया जाना अधिक उचित समझता हूँ।
लेकिन पिछले 500 वर्षों में भारतीयों पर एक शब्द 'हिन्दू' लादा गया जिसे हमने अपनी अस्मिता मान लिया। मुझे हालाँकि इस पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन फिर इस 'शब्द' को मुस्लिम, सिख तथा ईसाई के साथ रखकर हमारे भारतीय मन को विखंडित कर दिया गया।
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India और  Indonesia दोनों की व्युत्पत्ति 'इंदु' अर्थात् 'चन्द्रमा' से हुई है, न कि 'सिंधु' से, जैसा कि हमें बतलाया जाता रहा है। इसलिए यह संयोगमात्र नहीं है कि 'भारत' की उपरोक्त परिभाषा में भारतवर्ष की पूर्वी सीमा का उल्लेख नहीं है।  पूर्व में सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक, तथा मध्य में सिंगापुर, कम्बोडिया, मलेशिया और दूसरे क्षेत्रों में भी 'भारतीयता' को देखा जा सकता है। पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण तो सुपरिभाषित हैं ही।  
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तात्पर्य यह कि गीता में अध्याय 2 श्लोक 63 में जैसा कहा गया है,

".... स्मृति भ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशा द्प्रणश्यति।"

इस प्रकार समस्त 'भारतीयता' की स्मृति को ही विनष्ट-भ्रष्ट कर देने के बाद 'हिन्दू' अस्मिता  / identity अस्तित्व में आई।
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"मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी, ईश्वर की शपथ ...."
".... विधि, .... "
oath-ceremony  का लाइव प्रसारण सुनना एक अद्भुत् अनुभव था।
मेरे लिए तो वह 'अव - अथ -चरमणीय ' / 'अव - अथ -च रमणीय '  ही था।
(basically / fundamentally, अत्यंत प्रारंभ से ही, मूलतः ) 
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महामहिम के आगमन के बाद बजाये जानेवाले राष्ट्रीय गान का एक एक शब्द वेद की ऋचाओं से कम न था !
अचानक ही पूरा राष्ट्रगीत स्मृति में शब्दशः गूंजने लगा।
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मैंने कितनी ही बार इस बारे में 'विद्वानों' के भिन्न भिन्न मत पढ़े हैं कि यह गीत भारत राष्ट्र की नहीं, बल्कि भारत के आंग्ल साम्राज्य के अधिनायक की प्रशस्ति में लिखा गया था। किन्तु कल जब इस गीत पर फिर से चिंतन किया तो 'जन-गण-मन' के रूप में सम्बोधित भारत राष्ट्र ही इस प्रशस्ति का अराध्य और इष्ट है, इसमें संदेह न रहा। और अधिनायक का अर्थ 'dictator' के अर्थ में निंदनीय नहीं बल्कि 'प्रथम / आदि' सूत्रधार के रूप में परमेश्वर के लिए प्रशंसात्मक रूप में ही प्रयुक्त हुआ है यह भी अनायास कौंधा।
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May 16, 2014

~~ नमो नमः ~~

पुनर्पाठ / (मूलतः 04 October 2013 को इसी ब्लॉग में प्रकाशित )
~~ नमो नमः ~~
(©विनय कुमार वैद्य.)
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कभी खयाल नहीं आया था कि इस विषय पर लिखूंगा । लेकिन आज सुबह-सुबह सपने में उनके दर्शन हो गये । कल रात कहीं पढा था कि उनके बयान पर बावेला मच गया है । शायद इसलिए वे मेरी छोटी सी कुटिया पर दस्तक देने आ गये थे । मैं तो धन्य हो गया । लग तो रहा था कि सपना ही है, लेकिन ऐसा सपना भी किसे नसीब होता है? मैंने चरण-स्पर्श किया तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया । मैं हर्ष-विभोर हो उठा । सपने में ऐसे ही कभी एक बार 'ठाकुर' ने भी मुझे गले लगा लिया था । 'ठाकुर' अर्थात इनके गुरु ने, जी, श्री रामकृष्ण ने ।
जैसा कि ऐसे सपनों में पहले का मेरा अब तक का अनुभव रहा है, इन दर्शनों में संवाद प्रायः मौन ही होता था । जब मैंने पुनः झुककर उन्हें चरण-स्पर्श किया, तो वे बोले -
"तुम राम को 'यम' के बारे में बतला रहे थे न?"
"जी!"
"तुम मेरी पुस्तक में कुछ ढूंढ रहे थे न?"
"जी, लेकिन फिर जरूरत नहीं पडी ।"
"जरूरत थी ! तुम्हें साधनपाद का सूत्र ३२ चाहिए था !"
"जी "
"शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥"
(स्वामी विवेकानन्द /  पातंजल राजयोग)
उन्होंने कृपापूर्वक मुझे समझाया ।
"नरेन्द्र यही कह रहा था ।"
मैं असमंजस में पड गया ! पर नरेन्द्र तो उनका ही नाम था ! वे किस नरेन्द्र की बात कर रहे थे ! मैं प्रश्नवाची दृष्टि से उन्हें देखने लगा ।
देखो, वैसे मेरा नाम भी नरेन्द्र था किन्तु फिर मेरा संन्यास का नाम विवेकानंद हो गया, इसलिए तुम शायद भ्रमित हो रहे हो । मैं तो नरेन्द्र मोदी के बारे में कह रहा हूं । वह बिल्कुल ठीक कह रहा है ।"
"जी"
"शौच, प्रथम नियम है "
अच्छा तो वे राजयोग के बारे में कह रहे थे , इसी बीच मोबाइल में अलार्म बज उठा और मैं जागकर चकित होकर सुबह के कार्य में लग गया । हां, गांधीजी भी तो स्वच्छता को प्रथम स्थान देते थे । सचमुच, साफ़-सुथरा शौचालय प्रथम जरूरत है हर मनुष्य की । शुचिता से प्रारंभ ।
मैं नहीं जानता कि इससे आगे क्या लिखूं इस पोस्ट में ।
प्रासंगिक प्रतीत होने से इसे लिखने का साहस कर रहा हूं । यदि किसी की भावनाएं आहत हुईं हों तो क्षमा चाहूंगा ।
©विनय कुमार वैद्य.
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May 07, 2014

~~ क्यों ?~~

~~ क्यों ?~~
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आज का ट्वीट् @UjjainVinay '
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तुम इतना क्यों मुस्कुरा रहे हो,
क्या राज़ है जो छिपा रहे हो?
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वो ग़म है या है वो कोई उम्मीद,
ख़ुशी से क्यों फूले जा रहे हो ?
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