~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास -2 ~~
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पिछले तीन माह से चल रहा विप्लव कल चरम को छूकर बिखर गया।
16-2-2014 को एक पोस्ट लिखी थी :
'ध्वंस का उल्लास',
उस उल्लास के महायज्ञ की पूर्णाहुति हो गई ।
मन विभोर था।
शाम को ठीक 5 :30 पर आकाशवाणी इंदौर लगाया, और बेसब्री से श्री नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमन्त्री पद के शपथ-ग्रहण समारोह के 'आँखों देखा हाल' की प्रतीक्षा करने लगा।
वैसे मेरे पास बतलाने के लिए अपना ऐसा कोई औपचारिक कोई 'परिचय' या 'परिचय-पत्र' नहीं है जिसके आधार पर मैं भारतीय नागरिक होने का दावा कर सकूँ। 'ड्राइविंग-लाइसेंस' कुछ साल पहले लैप्स हो चुका है, राशन-कार्ड का इस्तेमाल भी पंद्रह साल से नहीं किया। वोटर्स'-आई डी कार्ड भी कहीं ऐसी जगह रखा है जो मेरी पहुँच से बाहर है। और राजनीति में भागीदारी से मुझे बचपन ही से सख्त परहेज था । इसलिए मुझे देश में चल रहे विप्लव के बारे में रुचि तो नहीं, कौतूहल अवश्य था।
रोज का अख़बार, चूँकि आता है और अखबारवाले भैया मेरे मना कर देने पर भी जबरदस्ती डाल जाते हैं और मैं सिर्फ सौजन्यतावश ही बिल का पेमेंट कर देता हूँ, इसलिए एक नज़र डाल देता हूँ।
वैसे तो पृष्ठ १ से अंतिम पृष्ठ तक यही लगता है 'हम कहाँ जा रहे हैं?' लेकिन मैं बस देखने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता, इसलिए चिंता करने का भी कोई मतलब नहीं। मैं नहीं जानता कि 'प्रगति' क्या है, 'विकास' और 'समृद्धि' का पैमाना क्या है / क्या होना चाहिए।
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एक शब्द है 'हिंदुत्व'। जिसके बारे में बचपन से सुनता आ रहा हूँ। मेरे अपने परिवार में कई लोग हैं जो 'हिन्दू' होने में 'गर्व' अनुभव करते हैं। अभी 16 मई से जरा पहले यू आर अनंतमूर्ति के संबंध में गिरीश कर्नाड का एक वक्तव्य पढ़ा था, जिसका सार यह कि 'हिन्दू' कुछ नहीं होता। उनके कहने का आशय मैं समझता हूँ। मेरा पिछले पचास से भी अधिक वर्षों से यही मत रहा है कि 'हिन्दू' कुछ नहीं होता। न 'धर्म', न 'राष्ट्रीयता'। और इसलिए अगर हम हिन्दू-मुस्लिम या ऐसे भेदों को बहस का विषय बनाते हैं तो हम उसे किसी ऐसी परिणिति तक नहीं ले जा सकते, जिससे बहस समाप्त हो जाए, कोई सर्वमान्य निष्कर्ष निकला जा सके ।
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मैंने किसी भी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ में 'हिन्दू' शब्द नहीं देखा। हाँ कबीरदासजी या उनके समकालीन तथा बाद के लोगों के ग्रंथों में इसके होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
मेरा अपना विश्लेषण यह है कि विष्णुपुराण तथा मनुस्मृति के सन्दर्भ में देखें तो 'आर्य' तथा आर्यावर्त दोनोँ शब्द पृथ्वी के इस भौगोलिक क्षेत्र को जिसे वे तथा हम भी 'भारत' कहते हैं 'सुपरिभाषित' करते हैं। और दोनों ही के अनुसार हिमालय से दक्षिण में समुद्र तक तथा पश्चिम में सिंधु नदी तक की भूमि 'आर्यावर्त' है।
"उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।"
(विष्णुपुराण)
--
और इसलिए हिन्दू कहने की बजाय मैं अपने-आपको, 'भारतीय' कहना कहलाया जाना अधिक उचित समझता हूँ।
लेकिन पिछले 500 वर्षों में भारतीयों पर एक शब्द 'हिन्दू' लादा गया जिसे हमने अपनी अस्मिता मान लिया। मुझे हालाँकि इस पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन फिर इस 'शब्द' को मुस्लिम, सिख तथा ईसाई के साथ रखकर हमारे भारतीय मन को विखंडित कर दिया गया।
--
India और Indonesia दोनों की व्युत्पत्ति 'इंदु' अर्थात् 'चन्द्रमा' से हुई है, न कि 'सिंधु' से, जैसा कि हमें बतलाया जाता रहा है। इसलिए यह संयोगमात्र नहीं है कि 'भारत' की उपरोक्त परिभाषा में भारतवर्ष की पूर्वी सीमा का उल्लेख नहीं है। पूर्व में सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक, तथा मध्य में सिंगापुर, कम्बोडिया, मलेशिया और दूसरे क्षेत्रों में भी 'भारतीयता' को देखा जा सकता है। पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण तो सुपरिभाषित हैं ही।
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तात्पर्य यह कि गीता में अध्याय 2 श्लोक 63 में जैसा कहा गया है,
".... स्मृति भ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशा द्प्रणश्यति।"
इस प्रकार समस्त 'भारतीयता' की स्मृति को ही विनष्ट-भ्रष्ट कर देने के बाद 'हिन्दू' अस्मिता / identity अस्तित्व में आई।
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"मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी, ईश्वर की शपथ ...."
".... विधि, .... "
oath-ceremony का लाइव प्रसारण सुनना एक अद्भुत् अनुभव था।
मेरे लिए तो वह 'अव - अथ -चरमणीय ' / 'अव - अथ -च रमणीय ' ही था।
(basically / fundamentally, अत्यंत प्रारंभ से ही, मूलतः )
--
महामहिम के आगमन के बाद बजाये जानेवाले राष्ट्रीय गान का एक एक शब्द वेद की ऋचाओं से कम न था !
अचानक ही पूरा राष्ट्रगीत स्मृति में शब्दशः गूंजने लगा।
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मैंने कितनी ही बार इस बारे में 'विद्वानों' के भिन्न भिन्न मत पढ़े हैं कि यह गीत भारत राष्ट्र की नहीं, बल्कि भारत के आंग्ल साम्राज्य के अधिनायक की प्रशस्ति में लिखा गया था। किन्तु कल जब इस गीत पर फिर से चिंतन किया तो 'जन-गण-मन' के रूप में सम्बोधित भारत राष्ट्र ही इस प्रशस्ति का अराध्य और इष्ट है, इसमें संदेह न रहा। और अधिनायक का अर्थ 'dictator' के अर्थ में निंदनीय नहीं बल्कि 'प्रथम / आदि' सूत्रधार के रूप में परमेश्वर के लिए प्रशंसात्मक रूप में ही प्रयुक्त हुआ है यह भी अनायास कौंधा।
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पिछले तीन माह से चल रहा विप्लव कल चरम को छूकर बिखर गया।
16-2-2014 को एक पोस्ट लिखी थी :
'ध्वंस का उल्लास',
उस उल्लास के महायज्ञ की पूर्णाहुति हो गई ।
मन विभोर था।
शाम को ठीक 5 :30 पर आकाशवाणी इंदौर लगाया, और बेसब्री से श्री नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमन्त्री पद के शपथ-ग्रहण समारोह के 'आँखों देखा हाल' की प्रतीक्षा करने लगा।
वैसे मेरे पास बतलाने के लिए अपना ऐसा कोई औपचारिक कोई 'परिचय' या 'परिचय-पत्र' नहीं है जिसके आधार पर मैं भारतीय नागरिक होने का दावा कर सकूँ। 'ड्राइविंग-लाइसेंस' कुछ साल पहले लैप्स हो चुका है, राशन-कार्ड का इस्तेमाल भी पंद्रह साल से नहीं किया। वोटर्स'-आई डी कार्ड भी कहीं ऐसी जगह रखा है जो मेरी पहुँच से बाहर है। और राजनीति में भागीदारी से मुझे बचपन ही से सख्त परहेज था । इसलिए मुझे देश में चल रहे विप्लव के बारे में रुचि तो नहीं, कौतूहल अवश्य था।
रोज का अख़बार, चूँकि आता है और अखबारवाले भैया मेरे मना कर देने पर भी जबरदस्ती डाल जाते हैं और मैं सिर्फ सौजन्यतावश ही बिल का पेमेंट कर देता हूँ, इसलिए एक नज़र डाल देता हूँ।
वैसे तो पृष्ठ १ से अंतिम पृष्ठ तक यही लगता है 'हम कहाँ जा रहे हैं?' लेकिन मैं बस देखने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता, इसलिए चिंता करने का भी कोई मतलब नहीं। मैं नहीं जानता कि 'प्रगति' क्या है, 'विकास' और 'समृद्धि' का पैमाना क्या है / क्या होना चाहिए।
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एक शब्द है 'हिंदुत्व'। जिसके बारे में बचपन से सुनता आ रहा हूँ। मेरे अपने परिवार में कई लोग हैं जो 'हिन्दू' होने में 'गर्व' अनुभव करते हैं। अभी 16 मई से जरा पहले यू आर अनंतमूर्ति के संबंध में गिरीश कर्नाड का एक वक्तव्य पढ़ा था, जिसका सार यह कि 'हिन्दू' कुछ नहीं होता। उनके कहने का आशय मैं समझता हूँ। मेरा पिछले पचास से भी अधिक वर्षों से यही मत रहा है कि 'हिन्दू' कुछ नहीं होता। न 'धर्म', न 'राष्ट्रीयता'। और इसलिए अगर हम हिन्दू-मुस्लिम या ऐसे भेदों को बहस का विषय बनाते हैं तो हम उसे किसी ऐसी परिणिति तक नहीं ले जा सकते, जिससे बहस समाप्त हो जाए, कोई सर्वमान्य निष्कर्ष निकला जा सके ।
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मैंने किसी भी प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ में 'हिन्दू' शब्द नहीं देखा। हाँ कबीरदासजी या उनके समकालीन तथा बाद के लोगों के ग्रंथों में इसके होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
मेरा अपना विश्लेषण यह है कि विष्णुपुराण तथा मनुस्मृति के सन्दर्भ में देखें तो 'आर्य' तथा आर्यावर्त दोनोँ शब्द पृथ्वी के इस भौगोलिक क्षेत्र को जिसे वे तथा हम भी 'भारत' कहते हैं 'सुपरिभाषित' करते हैं। और दोनों ही के अनुसार हिमालय से दक्षिण में समुद्र तक तथा पश्चिम में सिंधु नदी तक की भूमि 'आर्यावर्त' है।
"उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।"
(विष्णुपुराण)
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और इसलिए हिन्दू कहने की बजाय मैं अपने-आपको, 'भारतीय' कहना कहलाया जाना अधिक उचित समझता हूँ।
लेकिन पिछले 500 वर्षों में भारतीयों पर एक शब्द 'हिन्दू' लादा गया जिसे हमने अपनी अस्मिता मान लिया। मुझे हालाँकि इस पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन फिर इस 'शब्द' को मुस्लिम, सिख तथा ईसाई के साथ रखकर हमारे भारतीय मन को विखंडित कर दिया गया।
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India और Indonesia दोनों की व्युत्पत्ति 'इंदु' अर्थात् 'चन्द्रमा' से हुई है, न कि 'सिंधु' से, जैसा कि हमें बतलाया जाता रहा है। इसलिए यह संयोगमात्र नहीं है कि 'भारत' की उपरोक्त परिभाषा में भारतवर्ष की पूर्वी सीमा का उल्लेख नहीं है। पूर्व में सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक, तथा मध्य में सिंगापुर, कम्बोडिया, मलेशिया और दूसरे क्षेत्रों में भी 'भारतीयता' को देखा जा सकता है। पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण तो सुपरिभाषित हैं ही।
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तात्पर्य यह कि गीता में अध्याय 2 श्लोक 63 में जैसा कहा गया है,
".... स्मृति भ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशा द्प्रणश्यति।"
इस प्रकार समस्त 'भारतीयता' की स्मृति को ही विनष्ट-भ्रष्ट कर देने के बाद 'हिन्दू' अस्मिता / identity अस्तित्व में आई।
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"मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी, ईश्वर की शपथ ...."
".... विधि, .... "
oath-ceremony का लाइव प्रसारण सुनना एक अद्भुत् अनुभव था।
मेरे लिए तो वह 'अव - अथ -चरमणीय ' / 'अव - अथ -च रमणीय ' ही था।
(basically / fundamentally, अत्यंत प्रारंभ से ही, मूलतः )
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महामहिम के आगमन के बाद बजाये जानेवाले राष्ट्रीय गान का एक एक शब्द वेद की ऋचाओं से कम न था !
अचानक ही पूरा राष्ट्रगीत स्मृति में शब्दशः गूंजने लगा।
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मैंने कितनी ही बार इस बारे में 'विद्वानों' के भिन्न भिन्न मत पढ़े हैं कि यह गीत भारत राष्ट्र की नहीं, बल्कि भारत के आंग्ल साम्राज्य के अधिनायक की प्रशस्ति में लिखा गया था। किन्तु कल जब इस गीत पर फिर से चिंतन किया तो 'जन-गण-मन' के रूप में सम्बोधित भारत राष्ट्र ही इस प्रशस्ति का अराध्य और इष्ट है, इसमें संदेह न रहा। और अधिनायक का अर्थ 'dictator' के अर्थ में निंदनीय नहीं बल्कि 'प्रथम / आदि' सूत्रधार के रूप में परमेश्वर के लिए प्रशंसात्मक रूप में ही प्रयुक्त हुआ है यह भी अनायास कौंधा।
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