May 27, 2014

~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास - 3 ~~

~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास - 3 ~~
__________________________________

सोचता हूँ ' भारतीय' और 'हिन्दू' के अर्थ और प्रयोग और प्रयोग के परिणाम में क्या अंतर है ।
वर्ष 1967 - 1968 में, जब मैं कक्षा 9 का छात्र था पहली बार इस और मेरा ध्यान गया, हालाँकि तब मैं इसे राजनीतिक बुद्धिजीवी जैसा सोचते हैं, कुछ उस ढंग से ही सोचा करता था।  अपरिपक्व तरीके से, जिन्हें किसी तथ्य की सत्यता को गहराई से देखने-समझने के लिए न तो वक्त होता है, न रुचि।  और वे अपने आसपास के वातावरण के अनुसार किसी 'आदर्श' / 'सिद्धांत' या 'लक्ष्य' की प्राप्ति को जीवन की परम उपलब्धि मानकर कभी उत्साह से तो कभी कर्तव्य से या बस अपने लिए किसी क्षेत्र-विशेष में कोई विशेष स्थान भविष्य में  बनाने के लिए श्रम-संलग्न  हो जाते हैं।  इस दृष्टि से दूसरे लोग जो ज्यादा परिपक्व बुद्धि के होते हैं, वे या तो जीवन में अपनी क्षमताओं और संभावनाओं को पहले ही टटोल लेते हैं और अपनी सीमाओं के अंतर्गत अपने लिए कोई जीवन-शैली अपनाकर खुश रहते हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सत्यार्थ प्रकाश को उन्हीं दिनों पढ़ा था।  गीता को बाद के वर्षों में।  फिर यह लगा कि किसी भी ग्रन्थ को ख़ासकर आध्यात्मिक, पौराणिक / ऐतिहासिक ग्रन्थ को भी  उसके मूल रूप में ही पढ़ना चाहिए।
--
जब इस प्रकार से मुझे लगा कि वास्तव में 'हिन्दू' शब्द  न तो किसी 'धर्म' के लिए प्रयुक्त किया जाता है, और न संस्कृति या समाज के लिए, बल्कि यह भारतीयता की जीवन-शैली ही अधिक है, तो मुझे यह भी लगा की फिर तो 'हिन्दू'-आधारित राजनीति हमें विभाजित और सिर्फ विभाजित ही करेगी।  लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि तथाकथित धर्म-निरपेक्षता, जो पहले तो मनुष्यता / भारतीयता को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन और बौद्ध में बाँटने और फिर उन्हें 'समान' 'समझने' के सिद्धांत का आग्रह करती है, हमें विभाजित नहीं करती। मुझे यह भी लगा कि  इस प्रकार से हम एक ऐसे प्रश्न और समस्या को हल करने के प्रयास में हैं, जो मूलतः अस्तित्व ही नहीं रखती।
--
जब  मैंने श्री  बलराज मधोक  के विचार पढ़े तो मेरा यह दृढ विचार हो गया की राष्ट्र / भारत की अखण्डता के लिए हमें 'हिंदुत्व' पर नहीं बल्कि भारतीयता पर जोर देना होगा।
चूँकि मेरा राजनीति के क्षेत्र से न तो कोई सरोकार था, न मेरे लिए यह संभव था कि मैं राजनीति में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ूँ, इसलिए अपने विचार मैंने अपने तक ही रहने दिए।
लेकिन 'भारतवर्ष' या 'भारत' से जुड़ी अपनी अस्मिता मेरे लिए जीवन का सर्वाधिक अमूल्य तत्व हो गई।
--
कल जब श्री नरेंद्र मोदी जी के शपथ-ग्रहण समारोह की कमेंट्री रेडिओ पर सुनी तो एक गहन आनंद की अनुभूति हुई। आज जब नईदुनिया अख़बार में श्रवण गर्ग की रिपोर्ट पढ़ी, तो मैं सोचने लगा कि  श्री नरेंद्र मोदी  संकल्प और ऊर्जा से अपना अभियान चलाया वह किसी ईश्वरीय सत्ता के आशीर्वाद  के बिना शायद ही फलीभूत होता।  और जब मैंने पढ़ा कि किस प्रकार 'विजेता' होने पर भी उन्हें अपने राजनितिक प्रतिद्वंद्वियों को पराजित करने का जरा भी गर्व नहीं है, तो बरबस मेरा सर उनके प्रति सम्मान से झुक गया।
--
 ~~ कल का सपना / ध्वंस का उल्लास - 3 ~~ © , उज्जैन 27 /05 /2014 . 
    

No comments:

Post a Comment