October 01, 2010

संदर्भ :"अब्बू की बकरियाँ"/अन्यथा.

यह कविता श्री गीत चतुर्वेदीजी के ब्लॉग पर प्रकाशित 
कविता "अब्बू की बकरियाँ"पढ़ते हुए मन में उत्पन्न हुई,
और कमेन्ट के रूप में पोस्ट की थी, आज दिनांक 
०१-१०-'१० को .
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    गीतजी,


कविता वही श्रेष्ठ होती है, जो पाठक को किसी अद्भुत्‌ अनुभूति
का साक्षात्कार करा दे. यूँ तो कवि के सिरे पर कविता का जो
भाव या अर्थ होता है, वह पाठक के सिरे पर आते-आते अपना
रंग-रूप, विन्यास बदल लेता है और फ़िर भी एक अमूर्त वस्तु
ही हुआ करता है, किन्तु वह पाठक में कोई प्रतिक्रिया भी जगा
सकता है, और वह प्रतिक्रिया पुनः एक कविता का रंग-रूप ले
सकती है .
आपकी कविता पढ़ते हुए लगा :


अन्यथा.




अब्बू के पास तीन ही बकरियाँ थीं /हैं /रहेंगीं.
एक लोहित,
दूसरी श्वेत,
और तीसरी कृष्ण वर्ण की,
अब्बू अनंत काल से चरा रहा है उन्हें .
चराता रहा था, /रहेगा.
बकरियाँ चरती हैं तृण,
देती हैं दूध,
जो लोहित, कृष्ण अथवा श्वेत नहीं होता.
कुछ पीताभ सा होता है.
तृण अन्न है, बकरियोँ का,
दूध अन्न है, अब्बू का,
बकरियाँ अन्न हैं,
-भेड़ियों का.
तो इसमें गलत क्या है ?
अब्बू कहता है अपने आप से,
"अन्नं न त्यजेत्‌ ।
तद्‌ ब्रह्म ॥"
भेड़िया भी तो अन्न है,
किसी व्याघ्र का !
तीन वर्णों वाली अजा,
घूमती रहती है,
अहर्निश,
अजा एका,
लोहित कृष्ण श्वेता .
अब्बू अज है,
अज और अजा,
सनातन.

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सादर,
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2 comments:

  1. एक ही रात में
    -जिसे ’काल’ जल्दी ही खा लेना चाहता है,
    ’काल’,
    -जो अपनी रफ़्तार में हर जगह पहुँच जाता है,
    ’डेटा’ की तरह,
    बेटे समय से बहुत पहले,
    -बूढ़े हो चले हैं,
    -इस समय में । ....विनय जी ...आप की विचार से में वसे भी कायल हूँ ....कितनी बारीक़ से आप ने इस का विवाचिन किया है उसका में कायल हूँ ...बहुत सुन्दर ...विनय जी और जया जी ने इस को शेयर किया है इस लिये फेस बुक पर भी आ गई है ...सुन्दर ही नहीं बहुत सुन्दर जी ...बधाई समेत प्रणाम जी

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  2. Sorry Sir,
    I could not see your profile.
    And then, It seems you wanted to post your comment on my
    'samay' kaa saapekshikataa-Siddhant post,
    But have posted it instead on
    'Abbu kee bakariyaan'....
    Thanks and Warm Regards,
    -vinay.

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