~~~~~~प्रीति का उल्लास ~~~~~~
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जानता हूँ,
कि तुम जो बहती हुई निर्झरिणी थी कभी,
जीवन की सख्त शीत में ,
जमकर बर्फ हो गयी हो !
और यह बर्फ हो गयी है सख्त चट्टान .
भूल से इसे ही अपना अस्तित्त्व समझकर,
अस्मिता बना लिया है तुमने !
लोग आते रहे, और इस झूठी अस्मिता को बचाने के लिए,
तुम और भी अधिक कठोर तीक्ष्ण होती चली गयी .
सख्त से सख्त,
-शीशे सी पैनी,
पर भंगुर भी !!
तुम्हें लगता है कि मैं भी तुम्हें तोड़ने ही आया हूँ,
तुम्हारे समीप ,
कि तुम्हारे एक छोटे से टुकड़े को,
अपने ड्रिंक में डालकर,
अपने नशे का लुत्फ़ बढ़ाऊँ !
नहीं प्रिये !
मैं तो आया हूँ तुम्हारे समीप सिर्फ इसलिए,
कि पिघला सकूँ,
तुम्हें अपनी प्रीति की ऊष्मा से,
कर दूँ तुम्हें पानी-पानी !
शापमुक्त कर बना दूँ तुम्हें अहिल्या,
ताकि तुम बह सको,
उन्मुक्त स्वच्छंद,
और मैं बह जाऊं,
तुम्हारी प्रीति में,
देवी !
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सुंदर प्रस्तुति....
ReplyDeleteनवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।
कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।
ReplyDelete"मैं तो आया हूँ तुम्हारे समीप सिर्फ इसलिए,
ReplyDeleteकि पिघला सकूँ,
तुम्हें अपनी प्रीति की ऊष्मा से,
कर दूँ तुम्हें पानी-पानी !"
बेहद सुन्दर.
@Sanjay Bhaskar,
ReplyDeleteशुक्रिया भास्कर,
आपकी प्रतिक्रिया के लिये ।
सादर,
@P.N.Subrahmanyan,
ReplyDeleteशुक्रिया सुब्रह्मण्यन्,
आपकी प्रतिक्रिया के लिये .
सादर,
bahut sundar vinay ji...komal kavita...
ReplyDelete@Jaya Pathak Shriniwasan,
ReplyDeleteधन्यवाद जयाजी,
त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिये !
सादर,
सुंदर प्रस्तुती!!!
ReplyDelete.
ReplyDelete► विजय जी ... निर्झरिणी का सख्त होना उसके स्वाभाव का वक्ती फेर-बदल है ... जहाँ कहीं भी वक्त करवट के बल पड़ा नज़र आएगा ठीक उसी जगह से इस जमी निर्झरिणी का झरण-क्षरण शुरू हो जायेगा ... बहुत खूबसूरत लिखा है आपने ... :)
( मेरी लेखनी.. मेरे विचार..)
.
@ Ravindra Ravi,
ReplyDeleteधन्यवाद रवीन्द्र रवि,
अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये.
सादर,
धन्यवाद जोगेन्द्रसिंहजी,
ReplyDeleteअपनी प्रतिक्रिया देने के लिये .
सादर,
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