October 13, 2010

प्रीति का उल्लास

~~~~~~प्रीति का उल्लास ~~~~~~
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जानता हूँ,
कि तुम जो बहती हुई निर्झरिणी थी कभी,
जीवन की सख्त शीत में ,
जमकर बर्फ हो गयी हो !
और यह बर्फ हो गयी है सख्त चट्टान .
भूल से इसे ही अपना अस्तित्त्व समझकर,
अस्मिता बना लिया है तुमने !
लोग आते रहे, और इस झूठी अस्मिता को बचाने के लिए,
तुम और भी अधिक कठोर तीक्ष्ण होती चली गयी .
सख्त से सख्त, 
-शीशे सी पैनी,
पर भंगुर भी !!
तुम्हें लगता है कि मैं भी तुम्हें तोड़ने ही आया हूँ,
तुम्हारे समीप ,
कि तुम्हारे एक छोटे से टुकड़े को,
अपने ड्रिंक में डालकर,
अपने नशे का लुत्फ़ बढ़ाऊँ !
नहीं प्रिये !
मैं तो आया हूँ तुम्हारे समीप सिर्फ इसलिए,
कि पिघला सकूँ,
तुम्हें अपनी प्रीति की ऊष्मा से,
कर दूँ तुम्हें  पानी-पानी !
शापमुक्त कर बना दूँ तुम्हें अहिल्या,
ताकि तुम बह सको,
उन्मुक्त स्वच्छंद,
और मैं बह जाऊं,
तुम्हारी प्रीति में,
देवी !

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12 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति....

    नवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।

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  2. कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।

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  3. "मैं तो आया हूँ तुम्हारे समीप सिर्फ इसलिए,
    कि पिघला सकूँ,
    तुम्हें अपनी प्रीति की ऊष्मा से,
    कर दूँ तुम्हें पानी-पानी !"
    बेहद सुन्दर.

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  4. @Sanjay Bhaskar,
    शुक्रिया भास्कर,
    आपकी प्रतिक्रिया के लिये ।
    सादर,

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  5. @P.N.Subrahmanyan,
    शुक्रिया सुब्रह्मण्यन्‌,
    आपकी प्रतिक्रिया के लिये .
    सादर,

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  6. @Jaya Pathak Shriniwasan,
    धन्यवाद जयाजी,
    त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिये !
    सादर,

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  7. सुंदर प्रस्तुती!!!

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  8. .

    ► विजय जी ... निर्झरिणी का सख्त होना उसके स्वाभाव का वक्ती फेर-बदल है ... जहाँ कहीं भी वक्त करवट के बल पड़ा नज़र आएगा ठीक उसी जगह से इस जमी निर्झरिणी का झरण-क्षरण शुरू हो जायेगा ... बहुत खूबसूरत लिखा है आपने ... :)

    ( मेरी लेखनी.. मेरे विचार..)
    .

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  9. @ Ravindra Ravi,
    धन्यवाद रवीन्द्र रवि,
    अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये.
    सादर,

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  10. धन्यवाद जोगेन्द्रसिंहजी,
    अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये .
    सादर,

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