आज के आध्यात्मिक गुरुओं पर लिखे गए एक लेख
पर मेरे द्वारा लिखी गयी एक टिप्पणी -
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आदरणीय,
धर्म परंपरा और अध्यात्म के बारे में न तो आम आदमी
गंभीरता से सोच-समझ सकता है और न तथाकथित साधु,
महात्मा या विद्वान, तो फिर बुद्धिजीवी से ऐसी अपेक्षा करना
कठिन ही है ।
सिर्फ परंपरा की सीढ़ी चढ़कर स्वामी, आचार्य आदि का लेबल
पा लेना अधिकारी (पात्र) नहीं बनाता ।
और जिसे पात्रता ही नहीं है ऐसे ही लोग उपदेश देने लगें तो
समाज का अहित ही अधिक होगा ।
गीता में स्पष्ट किया गया है कि सात्विक बुद्धि ही धर्म क्या
है और अधर्म क्या है, -इसे समझ पाती है ।
इस कसौटी पर सभी तथाकथित विद्वान् आत्म-अवलोकन करें
तो वे ख़ुद भी दिशा पा सकेंगे, व दूसरों को भी शायद सही
राह बतला सकेंगे ।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अध्यात्म तो स्वयं की ही
उत्कंठा हो तो ही पाया जाता है । इसे स्पून-फ़ीड नहीं किया
जा सकता -जैसी कि अब परंपरा बन चुकी है ।
सादर,
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