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(Ode to a sparrow,
sitting on the window-sill)
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अतिथि !!
जब भी खिड़की पर आते-जाते हुए,
-मैं तुम्हें देखता हूँ,
ठिठक जाता हूँ .
और कभी-कभी तो,
घंटों प्रतीक्षा करता हूँ,
-तुम्हारे आने की .
खिड़की बंद करते हुए,
लगातार यह ख़याल आता रहता है,
कि बस तुम आ ही रहे होगे !
और खिड़की को बंद देखकर,
कहीं लौट न जाओ .
अतिथि, मैं तुम्हारी भाषा तो नहीं समझता,
लेकिन भाव-भंगिमा शायद पढ़ लेता हूँ .
फ़िर कुछ समय के लिए सुनता रहता हूँ,
तुमसे कुछ अबूझ, भेद-भरी बातें .
शायद मेरी बातें भी तुम्हें अबूझ लगती हों !
अतिथि,
तुम फ़िर कब आओगे ?
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इस कविता को पढ़कर मेरे एक आलोचक मित्र ने इसे
सुंदर सरल रचना कहा .
इसे पढ़कर मेरे एक सुहृद कवि मित्र ने कहा,
लगता है इसमें अतिथि ईश्वर को कहा गया है .
और मेरी एक परिचता बोली,
प्रेम में पगी एक कविता है यह .
'अतिथि' शब्द उसने शायद प्रेमी / प्रेमिका
के अर्थ में लिया होगा .
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बहुत सुन्दर रचना. ऊपर आपने स्पष्ट कर ही दिया है अतिथि किसे कहा जा रहा है. हमें उनकी नोक झोंक में आनंद आता है. एक प्लास्टिक के डिब्बे में पानी भर पारिजात के पेड़ से लटका रखा है. पानी पीने के अलावा कभी कभी वे उसमें नहा भी लेते हैं.
ReplyDeleteवो अदृष्य शक्ति जिसे हम जानते नहीं, मगर अपने दिल की बात कह लेते हैं, उसका इन्तजार करते हैं.
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना.
प्रिय श्री सुब्रह्मण्यन् तथा उड़न-तश्तरी !
ReplyDeleteरचना अच्छी लगी यह जानकर खुशी हुई ।
सादर धन्यवाद ।
ये आगंतुक गौरैया बिन बुलाये मेहमान की तरह आ ही जाती है और अपनी चिचियाहट से घर का कोना -कोना गूंजा देती है . मैं इस गीत को बहते हुए आपकी कविता में देख रही हूँ.
ReplyDeleteइस संगीत ko आत्मसात कर पा रही हूँ. बहुत सुन्दर और जीवंत बन पड़ा है , विनय जी. गौरैया -गीत के लिए गीत-भरी बधाई स्वीकारें !
padhkar mukti kahani yaad aa gayi.
@► विनय जी , कलयुग में अतिथि के आगमन की प्रतीक्षा वो भी पलक पाँवड़े बिछाकर कुछ अनौपचारिक सा जान पड़ता है ... इसमें कोई शक नहीं कि रचना के स्तर पर यह एक सुन्दर रचना है ...
ReplyDelete(मेरी लेखनी.. मेरे विचार..)
अपर्णाजी,
ReplyDeleteजी हाँ, आपकी बधाई एक गीतियुक्त बधाई है ।
अहसास हो रहा है मुझे !
सादर,
जोगेन्द्रसिंहजी,
ReplyDeleteआपकी बात बिल्कुल सही है,
किन्तु जब अतिथि निश्छल हृदय होता है,
तो वह सचमुच ईश्वर-तुल्य ही तो होता है !
रचना आपको अच्छी लगी, इसके लिए आभार,
सादर,
शुक्रिया कि आप इस युग में भी अतिथि का इंतजार कर रहे है, भले ही वह परिंदा ही क्यों न हो !
ReplyDeleteवरना आज के कवि लोग तो कहते है ( या यूँ कहूँ कि कहने को मजबूर है) कि
अतिथि तुम न आना
महंगाई का है ज़माना
देहरी पे आके तुम
अपना गीत मत गुनगुनाना
प्रिय श्री गोदियालजी,
ReplyDeleteकविता पढ़ने और प्रतिक्रिया लिखने के लिए आभार !
सादर,
@ A S,
ReplyDeleteDear Sir, Thanks for the comment/suggestion.
Hope you saw my other (English+) blogs also.