~~~ उन दिनों -43.~~~~
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उनसे मिलने का तीसरा अवसर भी अनपेक्षित रूप से मिला । अचानक दफ्तर के काम से उनके शहर जाना हुआ । सोचा कि उन्हें फ़ोन कर दूँ ! दफ्तर के फ़ोन से ही ट्रंक-काल लगाया, तब दफ्तर में एक डायरी होती थी, जिसमें व्यक्तिगत कॉल नोट होते थे । कॉल 'बुक' कराना होता था, फिर पाँच-दस मिनट बाद से लेकर पाँच-छ: घंटों के बीच कॉल 'मटेरियलाइज़' होता था । यदि उस बीच बात न हो सके तो कॉल 'कैंसल' भी कर सकते थे । सौभाग्य से करीब दस मिनट बाद बात हो गयी । मैंने पूछा, :
"सुबह-सुबह आ धमकूं तो कोई परेशानी तो नहीं होगी ?"
वे ठहाका लगाकर हँस पड़े । फिर बोले,
"आइये तो सही ! परेशानी में थोड़ी हेल्प भी तो कर सकते हैं !"
उसी रात का रिज़र्वेशन कराया, सुबह उनके शहर में था । साढ़े पाँच बजे । थोड़ी देर स्टेशन पर घूमता रहा । करीब पौने छ: बजे ऑटो लिया और पहुँच गया 'मधुबन' ।
उनका घर थोड़ा बदला-बदला लग रहा था । पिछली बार आया था तो कहानी के लिए कोई 'थीम' पाने के इरादे से आया था । लेकिन वह रहस्य खुल न सका, जिसे 'थीम' बनाता । इस बार फिर कोशिश करूँ ? ट्रेन में हुई मुलाक़ात में इस सबका विस्मरण हो गया था । अब सोचा तो आश्चर्य हुआ, लेकिन उनके घर में जाते-जाते अचानक सब याद आने लगा था । पिछली बार मैं उनके घर शाम के समय पहुँचा था, आज एकदम सुबह-सुबह । अभी क्षितिज पर सूर्योदय हुआ ही था । 'अच्छा, तो पूर्व उधर है !' -मैंने सोचा । नारायण मंदिर की पृष्ठभूमि सिंदूरी आभा से ज्योतित हो उठी थी । आसपास के छोटे-बड़े वृक्ष घूँघट की तरह मंदिर को चारों ओर से घेरे हुए थे, कलश दुल्हन की बिंदिया सा दमक रहा था, और घंटों-घड़ियालों की आवाज़ उसमें चैतन्य का संचार कर रहे थे । 'लाउड-स्पीकर' नहीं थे, इसलिए थोड़ा ध्यान देने पर ही इतनी दूर से उनकी गूँज सुनी जा सकती थी । मंदिर का रामरज में रंगा चेहरा भी ध्यान से देखने पर ही दिखलाई देता था । यह सब मेरा वहम था, कल्पना या आस्था, लेकिन उस समय तो सब अत्यंत जीवंत सत्य था । मैं मंत्रमुग्ध सा दूर से ही निहारता रहा । सूरज ऊपर उठने लगा था और क्षितिज की रतनार आभा आकाश के नीलेपन से मिलकर चाँदी बिखेर रही थी ।
'यह एक शुभ शगुन है ।' -मेरे मन में ख़याल आया ।
यदि मैं इस ख़याल (जिसे मैं अंतर्दृष्टि कहना चाहूँगा,) पर विश्वास नहीं करता तो इस पर संदेह करने के लिए भी मेरे पास कोई आधार नहीं है । हाँ, हो सकता है । यह तो इस पर निर्भर करता है कि मैं 'उसमें' क्या खोज रहा हूँ !
आज उनका घर उस शाम की तरह उदास नहीं लग रहा था । हालाँकि उस शाम की वह उदासी, उदासी नहीं, कुछ और थी । वह थी प्रतीक्षा की व्याकुलता । क्या प्रतीक्षा की व्याकुलता को उदासी कह सकते हैं ? क्या मैं सिर्फ इसलिए प्रेस से उनका पता ढूँढकर उनके घर गया था, कि 'साहित्यिक' कही जानेवाली किसी कथा के लिए 'प्लॉट' पा सकूँ ? या वह भी एक शुभ संकेत था, जिसे मैं अपने मन की चंचलता के चलते उस समय नहीं देख-समझ सका था ? क्या वह भी कोरा वहम या कोरी आस्था थी ? -नहीं, वहाँ तो मैंने उस पर इस तरह ख़याल तक नहीं किया था । यह तो भविष्य ने ही दिखलाया था कि वह आज के इस प्रभात की ही पूर्वसंध्या थी, -पूर्वाभास भी था, जिसे मैं तब नहीं चीन्ह सका था । बीच का सारा वक्त क्या एक सुदीर्घ रात्रि ही नहीं थी, जिसमें मैं बस सोता, स्वप्न देखता, और कभी-कभी करवटें बदलता रहा था ?
हाँ, उनका घर कुछ मायनों में बदला-बदला सा लग रहा था । पिछली बार जो उदासी थी, वह उनकी मन:स्थिति से भी उत्पन्न हुई होगी, और आज का उल्लास भी वैसे ही उनकी मन:स्थिति के बदल जाने का द्योतक हो सकता है ।
सुबह-सुबह किसी के घर जाना थोड़ा अटपटा महसूस होता है । जब पहुँचा, वे नहा चुके थे । शायद पूजा कर रहे थे । घर में धूप की भीनी महक कह रही थी । डोर-बेल बजाते ही पर्दा उठा । वे द्वार पर थे । मैंने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया । वे मुझसे पाँच-छ; साल बड़े ही होंगे ।
"आइये-आइये, "
-उन्होंने मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में लिया । फिर मेरे कंधे पर स्नेह से हाथ रखकर मुझे भीतर ले गए ।
हम ड्रॉइंग-रूम में बैठ गए । उनका नाश्ता होना था । लेकिन उसमें देर थी । चाय बन रही थी । पानी पीया, चाय पी, और दस मिनट तक इधर-उधर की औपचारिक बातें करते रहे । लेकिनिसके अपने-अपने कारण थे । मेरा कारण यह था कि पिछली मुलाक़ात में कही उनकी बात मुझे अभी तक याद थी । उन्होंने शब्दश: कहा था, :
"मैं न सिर्फ किताबों का, बल्कि अपने रिश्तों तक का एक्स्प्लॉयटेशन कर रहा था । "
हालाँकि वह बात उन्होंने अपने पिता से उनके संबंधों के बारे में कही होगी, लेकिन मुझे लगा कि वह हमारे जीवन का, व्यावहारिक, रिश्तों के जीवन का कठोर और नंगा सच था, (क्योंकि हम वास्तव में 'प्रेम' को नहीं जानते) ! हमें शायद ही कभी ख़याल आता हो । हम इस कदर पाखंडी हो जाते हैं कि संबंधों के नाम पर, उन्हें गौरवान्वित करते हुए उनके प्रति अपनी कोरी भावुकता में डूबते-उतराते हुए, 'प्रेम' दिखलाते हुए, एक-दूसरे को एक्स्प्लॉयट करते रहते हैं । यह प्रेम तो हरगिज़ नहीं होता । हाँ, 'लगाव' शायद होता हो ! फिर 'प्रेम' क्या होता है ?
क्या 'सर' ने अभी जिस तरह मेरा स्वागत किया था वह 'प्रेम' था ?वे तो उस दिन बातचीत को बीच में ही विराम देकर 'सोने' चले गए थे । शायद उनका यह वाक्य एक संकेत रहा होगा कि मैं कोई गलतफहमी न पाल लूँ । या शायद मैं ही बेवज़ह उस बारे में इतना अधिक सोचने लगा था । लेकिन यह तो सच है कि उनके मुख से निकले उस एक वाक्य को सुनने के बाद मैं अपने 'प्रेम' और रिश्तों का परीक्षण करने में जुट गया था ।
फिर वे क्यों मेरा इतना स्वागत कर रहे थे ? यहाँ आकर मैंने कहीं कोई गलती तो नहीं की ? क्या रिश्ता है उनसे मेरा ? क्यों अखबार के उस छोटे से नामालूम से विज्ञापन से उपजे रोमांच से उत्पन्न मोह से ग्रस्त होकर मैं प्रेस जा पहुँचा, क्यों मैंने उनका 'पता' खोजा ? क्यों इसके बाद उन्हें फोन से सूचित कर आज यहाँ चला आया ?
फ्रेश होकर, नहा-धोकर मैं उनके ड्रॉइंग-रूम में आ गया । उनके साथ नाश्ता किया, चाय पी, अखबार पढ़ता रहा ।
उनके यहाँ पत्रिकाएँ भी आती हैं । याने वे 'साहित्य' के रसिक तो होंगे ही । उस वक्त मेरी यही धारणा थी । कोई परिचित इसी बीच उनसे मिलने आ गए थे । उन्होंने न तो उनसे मेरा परिचय कराया, न उनके जाने के बाद उनके बारे में मुझे कुछ बतलाया । मैं अखबार पढ़ता रहा था । हम कुछ समय तक ट्रेन में आमने-सामने बैठे दो अजनबियों की तरह ड्रॉइंग-रूम में बैठे रहे । फिर मुझे लगा कि मेरी उपस्थिति से उनकी बातचीत में व्यवधान हो सकता है, तो मैं घर देखने के बहाने उनकी छत पर चला आया था । हम छत पर ही थे कि वे मुझे "अभी आया" कहकर वहीं छोड़कर नीचे चले गए थे ।
छत पर मैं अकेला था । थोड़ी देर बाद उनकी बिटिया बाल्टी में धोए और निचोड़े हुए कपड़े लेकर छत पर आई ।
"अंकल नमस्ते !"
उसने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा, और एक-एक कर, कपड़ों को तार पर फैलाने लगी ।
उसके बाल बिखरे हुए थे, शायद सर धोया होगा, मुझे अपनी बिटिया की याद आई। बालों से क्लिनिक शैम्पू की भीनी-भीनी महक आ रही थी, जिसके साथ किसी साबुन की महक भी मिली हुई थी ।
मैं दूर नारायण-मंदिर के कलश को देखता रहा । अब भी घंटे-घड़ियाल की मद्धिम ध्वनि सुनाई देती थी । शायद हमेशा ही मंदिर में भक्त आते रहते होंगे । वैसे अभी 'सुबह' थी , दोपहर नहीं, और लोग तो सुबह या शाम को ही मंदिरों में अधिकतर जाते हैं ।
बाहर 'सर' के घर के सामने की सड़क पर बच्चे 'क्रिकेट' खेल रहे थे । कभी कभी गेंद उछलकर छत पर आ जाती थी । मैं उठाकर लौटा देता । -अपने शहर के अपने घर की तरह । शायद वहाँ भी कोई गेंद आकर पडी रहती होगी, वे आकर ले जाते होंगे ।
छत पर प्लास्टिक-चेयर्स पड़ी थीं । मैं एक पर बैठ गया । इस बीच वे भी ऊपर आ गए थे । उनके हाथों में अखबार था ।
"मैंने सोचा अकेले 'बोर' हो रहे होंगे,"
-वे बोले ।
"नहीं अच्छा लग रहा है यहाँ । धुप तीखी नहीं, आरामदेह है ।"
-मैंने कहा ।
वे दूसरी चेयर पर बैठ गए ।
कुछ मिनटों तक हम दोनों खामोश रहे ।
"अंकल को नमस्कार किया कि नहीं, बेटे ? "
उन्होंने अपर्णा से पूछा ।
" हाँ कर दिया । "
-वह अपना काम करते हुए निरपेक्ष भाव से बोली ।
छत पर गमले रखे थे, जिनमें छोटे-बड़े पौधे, केक्टस आदि लगे थे । जूही, चमेली, मोगरा, गुलाब के लता, पौधे मैं पहचान लेता था । वे सब यहाँ भी थे । पीछे के घर के 'आँगन' में पारिजात का एक वृक्ष था, जो काफी ऊंचा था, लेकिन इस छत पर से एक बच्चा भी हाथ बढ़ाकर उसके फूल तोड़ सकता था । उससे लगा हुआ ही पपीते का भी एक पेड़ था । उसमें पपीतों की बहार थी । सब एकदम गहरे हरे थे, कच्चे । पारिजात का पेड़ ऐसी जगह था जहां से उसके फूल उस पीछे वाले घर के आँगन में और आसपास के दो घरों पर भी झरते रहते थे । अभी भी कोने में कुछ आधे ताजे, आधे कुम्हलाये फूल पड़े हुए थे । थोड़ी ही दूर पर किसी घर के सामने सड़क किनारे गुलमोहर का वृक्ष भी था, जिसका वितान छतरी की तरह फैला हुआ था । इन दिनों उस पर गहरी हरी पत्तियाँ भर थीं पत्तियों के बीच कहीं कहीं हलके हरे रंग की प्रकाश-किरचें भी थीं -वे थीं, नईं कोंपलें । उसे देखते हुए मुझे जे कृष्णमूर्ति का वह वर्णन याद हो आया ।
" वह वहाँ अकेला खडा था, उस पर गहरे हरे पत्तों का एक मुकुट था, किसी पहाड़ी की तरह ऊबड़-खाबड़ शीर्षवाला वह वृक्ष फूलों से रहित था । आप दिन में उसके नीचे आराम कर सकते थे, लेकिन उस पर लगातार दौडती-भागती गिलहरियाँ, ठहरा-ठहरा सा गिरगिट, चींटों की लम्बी कतारें, अनेक पक्षी, उन सभी के एकछत्र अधिकार वाले उस वृक्ष के पास जाने से पूर्व आपको सावधानी रखना ज़रूरी था । उसके तराशे हुए ठोस चिकने तने की पेशियाँ, इतनी सुघड़ थीं कि आप उन्हें छूते हुए सहम जाते थे । अत्यंत कठोर, लेकिन अत्यंत नाज़ुक । नहीं, वे टूटेंगी नहीं, लेकिन उन के रेशों की पैनी धार आपकी उँगलियों को अपने बारीक धागों से काट सकती थी । लेकिन वह बस ख़याल था आपका ! - गिरगिट, गिलहरी, और चींटों को उससे कोई फर्क कहाँ पड़ता था ?
सूरज की किरणें जब उसकी केनॉपी से छानकर नीचे की भूमि पर एक गूढ़ चित्र बनातीं, तो एक गोल घेरे में धूप-छाँव का एक मोहक संजाल फैलता, जिसमें उस वृक्ष का हरा रंग प्रतिबिंबित होता, और पीली धूसर धरती पर एक संमोहन रचता । आसपास धूप का रजत रंग उस घेरे के चारों ओर उसके प्रभा-पुंज सा दिग-दिगंत तक फैला उस संजाल से गलबहियाँ मिला होता ।
वहाँ संसार नहीं था । उसे आप पीछे छोड़ आये थे, आपकी उत्तेजनाएँ, पछतावे, भय, दुश्चिंताएं, .... वे सब वहाँ थे,
-उस रजत-रंगी प्रभामंडल से बहुत दूर । वहाँ 'समय' नहीं था । वह भी वहाँ उन सबके साथ कहीं रहा होगा ।
इस वृक्ष के, धरती के उन्मुक्त सौन्दर्य को देखकर आप अभिभूत हो गए। आप उस सौन्दर्य का अनुमान नहीं कर सकते थे, और वर्णन करना तो कतई असंभव था । हृदय पर एक धक्का सा लगा था आपको । आप अवाक थे . आपकी आँखों में आँसू आ गए । "
मैं नहीं जानता कि जे. कृष्णमूर्ति की अनुभूति क्या रही होगी, लेकिन उस गुलमोहर का गहरा हरा रंग वास्तव में हृदय को झकझोर देता था । शांत, प्रकाश और अन्धकार का अनोखा संगम, -इस बीच मैं उन्हें भूल गया था । वे सामने बैठे हुए थे । बीच में एकाध बार उन्होंने शायद कनखियों से मुझे देखा था, लेकिन मुझे अपने-आपमें लीन देखकर मुझे डिस्टर्ब न करते हुए चुप ही रहे थे ।
जब मैं उस जगत से लौटा जहाँ गुलमोहर का वह वृक्ष और उसके गिरगिट, गिलहरियों, चींटों, चिड़ियों और उस संजाल तथा रजत प्रभा-मंडल सहित जे कृष्णमूर्ति भी कहीं थे, तो मेरा ध्यान उनकी तरफ गया । वे भी आकाश में कहीं दृष्टि डाले चुपचाप बैठे हुए थे । अखबार उनके हाथों से नीचे गिर गया था, और उनकी बेटी ने उसे चुपचाप उठा लिया था । वह बाल्टी और अखबार लेकर नीचे चली गयी थी ।
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>>>>> उन दिनों - 44. >>>>>>>>
January 28, 2010
January 23, 2010
उन दिनों -42.
~~ उन दिनों -42 ~~~~
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सुबह-सुबह जब अभी सूर्योदय में घंटा भर बाकी था, वे जाग चुके थे ।
"रात में सचमुच मुझे अचानक ऐसी तेज़ नींद आने लगी थी कि जागना कठिन था । माफी चाहता हूँ !"
कहते हुए उन्होंने मुझे जगाया ।
मैं तो सुबह तक अर्धनिद्रा की सी दशा में उस तार के स्वर को सुनता रहा था, जिसे रात्रि में वे जाने-अनजाने छेड़कर सोने के लिए अपनी बर्थ पर चले गए थे । हालाँकि उतना कष्ट नहीं हुआ जितना कभी और इस स्थिति में हुआ होता ।
'कभी और ?' -हाँ, ऐसा ही किसी और ने भी कहा था, और मैं सन्न रह गया था । कभी - कभी अचानक मनुष्य ऐसे सत्य कह बैठता है, जिन्हें वह मरते दम तक सीने में दफ़न रखना चाहता है, पर ज़ुबान ही तो है, और दिल ही तो है, दोनों समय-असमय कहाँ देख पाते हैं ? तब उन दोनों की ऐसी जुगलबंदी हो जाती है कि आप असहाय से बस देखते ही रह जाते हैं ।
अभी तो उनकी माफी मांगने की अदा ने मुझे भाव-विभोर कर दिया था । वह तो मुझे बरसों बाद पता चल था (उन्होंने ही तो बताया था !) कि 'अविज्नान' जिस 'कहीं-और' होता है, उसी 'कहीं-और' के खिंचाव ने उन्हें चर्चा को बीच मझधार में छोड़ने पर विवश किया था । तो वे उन दिनों 'कहीं-और' आने-जाने के क्रम से गुज़र रहे थे । यह कोई 'यूटोपिया' नहीं था, उनकी कल्पना की उड़ान नहीं थी, किसी किस्म का आत्म-सम्मोहन , नशा या स्वप्न भी कदापि नहीं था । लेकिन उनकी स्थिति कभी-कभी ऐसी हो जाया करती थी, जब लोगों और दुनिया की नज़रों में वे 'कहीं-और' होते थे । (*) या क्या वे 'कहीं' होते भी थे ? वे कुछ परेशान से भी थे । वे सारे काम ठीक ढंग से कर लेते थे, लेकिन उन्हें अचरज होता था कि कहीं उनके साथ कुछ 'गड़बड़' तो नहीं है ? बोलते-बोलते वे अचानक रुक जाया करते थे, उनकी वाणी लड़खड़ा जाया करती थी । क्या ऐसा ही 'अविज्नान' के साथ भी नहीं होता रहता है ?
लोगों को लगता था कि वे कोई नशा करते हैं, -उनकी पत्नी, उनकी बेटी, और इनसे मिलने-जुलनेवाले तमाम लोगों का कहना था कि उन्होंने कभी उन्हें सिगरेट-बीड़ी पीते भी देखा हो, याद नहीं आता । दफ्तर के साथियों के अनुसार 'गरगजी' कभी किसी ऐसी पार्टी में शामिल ही नहीं होते थे, जहाँ भांग या अन्य किसी तरह का कोई नशा इस्तेमाल किया जाता हो, फिर वे कभी गंजेड़ी-साधुओं आदि के आसपास फटकते तक नहीं थे । हाँ, खाने के वे शौक़ीन थे, लेकिन शुद्ध शाकाहारी थे । उनका स्वास्थ्य अच्छा था, भूख अच्छी लगती थी, और डाईट भी थोड़ी ज़्यादा थी ऐसा कह सकते हैं । लेकिन भोजन के निश्चित समय के अलावा कुछ खाना उनकी आदत में ही नहीं था । और यात्रा में भी घर का ही बना खाना खाते थे, या भूखे रह जाया करते थे । उनका वजन थोड़ा बढ़ा हुआ था, और 'ब्लड-प्रेशर' भी । लेकिन डॉक्टरों के अनुसार सब सुरक्षित हदों में था ।
उन्हें अपनी स्थिति का भान पहली बार तब हुआ, जब शाम हो चुकी थी, और वे अकेले ही पैदल शहर के दूर से घर की ओर आ रहे थे । एक तिराहा है वहाँ । शहर का पुराना चुंगी-नाका था कभी वहाँ, जहाँ से सड़क दो दिशाओं में फूटती है । दूर पर एक पुराना जर्जर मंदिर था, जहाँ लोग किसी पर्व-त्यौहार के अलावा कभी नहीं जाते थे, अलबत्ता औघड़ किस्म के कुछ साधु वहाँ कभी-कभी दिखलाई दे जाते थे । पास ही थोड़ी दूर खेत और एक कुआँ भी था । वहाँ कुछ ग्रामीण से दिखलाए देनेवाले लोग बैठकर धूम्रपान कर रहे थे । धुएँ की गंध में कुछ ऐसा था कि उनके 'चेतन'-मन में चल रहे विचार एकाएक विलीन होने लगे । एक अद्भुत अनुभव हुआ, जब वे अपने रास्ते चले जा रहे थे, और मन 'निर्विचार' था । ऐसा लग रहा था कि वे ठिठक गए हों । वे सड़क पर से जा रहे थे, और वे 'ठिठके-हुए' भी थे ! हाँ, वे एक नाटक में थे ! उनकी अपनी पहचान मिट गयी थी । और सारे संबब्धों की, 'संसार' की पहचान भी मिट गयी थी, लेकिन देह बिलकुल यांत्रिक तरीके से अपने रास्ते पर गतिशील थी । वे मानों अभिनय कर रहे थे, किसी फिल्म में, -और वे ही दर्शक थे अपने-आपके, तथा नाटक के भी ! वे सर्वत्र थे, लेकिन वे कहीं नहीं थे ।
कुँए के पास बैठे वे लोग शायद गाँजा पी रहे थे । और उस के असर से धुएँ पर सवार कोई प्रवाह उनकी नासा में चला गया हो । वे मानों नींद में चलने लगे थे । जागते हुए नींद मे चल रहे थे । जब विचार शांत था, स्वप्न या तंद्रा नहीं थी। शायद कोई और वज़ह हो, लेकिन उन्हें आज भी लगता है कि वह भी एक वज़ह रही होगी । लेकिन उन्हें जो अनुभव उस दिन हुआ, उसे उन्होंने बड़ी सावधानी से समझने की कोशिश की, और उन्हें ऐसा समझ में आया कि वह 'साक्षी' किसी कारण का परिणाम या फल नहीं हो सकता । 'चेतना' के उस अद्भुत स्वरूप पर वे विस्मय से भर उठे थे । विभोर हो उठे थे , -पर विह्वल नहीं ! ऐसा उन्होंने ही मुझे बतलाया था । उस अनिर्वचनीय तत्त्व की व्याख्या करना उन्हें एक अपवित्र कार्य महसूस हो रहा था । उन्हें लग रहा था कि उसे इस अपनी क्षुद्र, तुच्छ बुद्धि के दायरे में कैसे बाँधा जा सकता है ! उसे वाणी का विषय कैसे बनाया जा सकता है, जो वाणी से पूर्व ही है !
वे अधिक सावधान हो गए थे । उन्हें ख़याल था कि गाँजे की या ऐसे दूसरे द्रव्यों की गंध उनके भीतर कोई ऐसा क्षणिक, या अल्पकालिक बदलाव ले आती थी, जो उन्हें अवचेतन स्तर तक, या उससे भी अधिक गहराई तक, 'अचेतन' तक प्रभावित करता था । चेतना के 'साक्षी'-स्वरूप का उद्घाटन तो एक सहवर्ती घटना हुआ करती थी, न कि उस गंध के फल से । वे इसे किसी पिछली साधना का परिणाम भी नहीं मानते थे । वे अनिश्चयपूर्ण थे, लेकिन संशयशील या दुविधाग्रस्त नहीं थे । वे समझ रहे थे कि अनिश्चय का एक अर्थ यह है कि आप न तो अविश्वास करते हैं, न झूठा विश्वास ही करते हैं । आप अभी 'देख' रहे हैं । जैसे फूल पर एक नई किस्म का कीड़ा, जो भ्रमर भी नहीं है, तितली भी नहीं, जो आपने पहली बार देखा होता है, लेकिन आप नहीं जानते कि वह जहरीला हो सकता है, या नहीं, जो काटता है, या नहीं, उसे देखने पर आप अनिश्चय में होते हैं वैसे अनिश्चय में थे वे तब । 'चेतना' की उस दशा में जब उनका चित्त प्रवेश कर रहा होता, तो वे अपने-आपको सब ओर, सब-कुछ की भाँति महसूसने लगते थे ।उन्हें 'अपना' होना और सारा अस्तित्त्व एकात्म लगने लगता । वे सब-कुछ होने से कुछ विशिष्ट नहीं रह जाते थे, 'व्यक्तित्व', स्मृति, और 'विचार' तब एकाएक विलीन हो जाते, और वे बड़ा अद्भुत अनुभव करने लगते थे । हैरत की बात यह थी कि तब 'मन' और शरीर अपना जागतिक व्यवहार बिलकुल यांत्रिक तरीके से जारी रखते, लेकिन उन्हें यह शक होने लगता था कि कहीं वे (मन और श) कोई असंगत व्यवहार तो नहीं कर बैठेंगे ? -क्योंकि उस समय उन पर उनका 'स्वैच्छिक'-नियंत्रण मानो सम्माप्त हो चुका होता था । और तब भी जब सब-कुछ बिलकुल ठीक-ठीक होता रहता था, तो उन्हें एक अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई कि सम्पूर्ण अस्तित्तव, उनके संकल्प, इच्छा या प्रयास से नहीं, वरण उस चेतन-सत्ता के माध्यम से संचालित होता है, जो इस समष्टि-अस्तित्त्व में ओत-प्रोत है, जिसमें यह संपूर्ण अस्तित्त्व वैसा ही खेलता है, जैसे माता की गोद में छोटा सा शिशु खेला करता है ।
लेकिन जब वह 'अनुभव' अपनी पूरी प्रगाढ़ता से उन्हें अपने में समालिया करता था, तब तो वे कुछ सोच तक नहीं सकते थे ।
कभी-कभी वह 'अनुभव' अकस्मात ही उनकी दिशा में चल आता, जैसा उस दिन हो रहा था, जब वे ट्रेन में बैठे-बैठे बातों का सिलसिला अचानक बंदकर सोने चले गए थे । ऐसे समय उन्हें 'अपने' होने का भान तक मिटने लगता था, और वे बहुत व्याकुल हो उठते थे ।
और यही तो 'अविज्नान' के साथ भी होता था ! 'अविज्नान के यहाँ आने के बाद मुझे उन दोनों की स्थिति की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं रहा ।
वे किससे पूछते ? ('अविज्नान' तो सौभाग्य से उनसे पूछ सकता है, लेकिन चूँकि मैंने इस सब पर कभी ध्यान से नहीं सोचा था, इसलिए अभी तक 'अविज्नान' को इस बारे में कुछ नहीं बतलाया था ।)
उन्होंने योग दर्शन का अध्ययन और अभ्यास भी किया था, लेकिन उसकी प्रामाणिकता अब अनुभव हो रही थी ।
और उसे सही सन्दर्भ में देखना ज़रूरी था, ऐसा वे कहते थे ।
मुझे लगता है कि 'चेतना' की मन से परे की दशाओं को 'अनुभव' करने की लालसा से भी कुछ लोग नशे की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन यह भोर के समय मुर्गे की बाँग सुनकर, सूरज उगता है, ऐसा नतीज़ा निकालने जैसी बात है । मेरा सौभाग्य कि मैंने अपने इन कानों से ही उनके ही मुख से उनके इस अद्भुत अनुभव के विवरण का श्रवण किया था, अमृत-रस का पान किया था ।
मुझे यहीं उतरना था, -आनेवाले स्टेशन पर । वे बोले,
"उतरेंगे नहीं ?"
मैं बोला, :
"नहीं, अगले स्टॉप पर उतरूंगा ।"
गाड़ी वहाँ बीस मिनट रूकती थी । जैसे मुम्बई में कितने ही स्टेशन थे, वैसे ही एक स्टेशन पर, जो ट्रेन से बस तीन-चार मिनट के फासले पर था । पाँच मिनटों में हमने चाय पी, एक दूसरे के पते और फ़ोन नं. लिए, और पुन: गाड़ी में जाकर बैठ गए । थोड़ी देर बाद मैं अपना स्टेशन आने पर अपना सामान लेकर उनसे विदा हुआ ।
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- *(तब मैं 'लोगों' तथा 'दुनिया' का ही हिस्सा हुआ करता था । अब स्थिति बदल चुकी है, मैं जानता हूँ कि 'लोग' और 'दुनिया' मेरा हिस्सा है । गीता के शब्दों में, : "पश्य मे योगमैश्वरं ! ")
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सुबह-सुबह जब अभी सूर्योदय में घंटा भर बाकी था, वे जाग चुके थे ।
"रात में सचमुच मुझे अचानक ऐसी तेज़ नींद आने लगी थी कि जागना कठिन था । माफी चाहता हूँ !"
कहते हुए उन्होंने मुझे जगाया ।
मैं तो सुबह तक अर्धनिद्रा की सी दशा में उस तार के स्वर को सुनता रहा था, जिसे रात्रि में वे जाने-अनजाने छेड़कर सोने के लिए अपनी बर्थ पर चले गए थे । हालाँकि उतना कष्ट नहीं हुआ जितना कभी और इस स्थिति में हुआ होता ।
'कभी और ?' -हाँ, ऐसा ही किसी और ने भी कहा था, और मैं सन्न रह गया था । कभी - कभी अचानक मनुष्य ऐसे सत्य कह बैठता है, जिन्हें वह मरते दम तक सीने में दफ़न रखना चाहता है, पर ज़ुबान ही तो है, और दिल ही तो है, दोनों समय-असमय कहाँ देख पाते हैं ? तब उन दोनों की ऐसी जुगलबंदी हो जाती है कि आप असहाय से बस देखते ही रह जाते हैं ।
अभी तो उनकी माफी मांगने की अदा ने मुझे भाव-विभोर कर दिया था । वह तो मुझे बरसों बाद पता चल था (उन्होंने ही तो बताया था !) कि 'अविज्नान' जिस 'कहीं-और' होता है, उसी 'कहीं-और' के खिंचाव ने उन्हें चर्चा को बीच मझधार में छोड़ने पर विवश किया था । तो वे उन दिनों 'कहीं-और' आने-जाने के क्रम से गुज़र रहे थे । यह कोई 'यूटोपिया' नहीं था, उनकी कल्पना की उड़ान नहीं थी, किसी किस्म का आत्म-सम्मोहन , नशा या स्वप्न भी कदापि नहीं था । लेकिन उनकी स्थिति कभी-कभी ऐसी हो जाया करती थी, जब लोगों और दुनिया की नज़रों में वे 'कहीं-और' होते थे । (*) या क्या वे 'कहीं' होते भी थे ? वे कुछ परेशान से भी थे । वे सारे काम ठीक ढंग से कर लेते थे, लेकिन उन्हें अचरज होता था कि कहीं उनके साथ कुछ 'गड़बड़' तो नहीं है ? बोलते-बोलते वे अचानक रुक जाया करते थे, उनकी वाणी लड़खड़ा जाया करती थी । क्या ऐसा ही 'अविज्नान' के साथ भी नहीं होता रहता है ?
लोगों को लगता था कि वे कोई नशा करते हैं, -उनकी पत्नी, उनकी बेटी, और इनसे मिलने-जुलनेवाले तमाम लोगों का कहना था कि उन्होंने कभी उन्हें सिगरेट-बीड़ी पीते भी देखा हो, याद नहीं आता । दफ्तर के साथियों के अनुसार 'गरगजी' कभी किसी ऐसी पार्टी में शामिल ही नहीं होते थे, जहाँ भांग या अन्य किसी तरह का कोई नशा इस्तेमाल किया जाता हो, फिर वे कभी गंजेड़ी-साधुओं आदि के आसपास फटकते तक नहीं थे । हाँ, खाने के वे शौक़ीन थे, लेकिन शुद्ध शाकाहारी थे । उनका स्वास्थ्य अच्छा था, भूख अच्छी लगती थी, और डाईट भी थोड़ी ज़्यादा थी ऐसा कह सकते हैं । लेकिन भोजन के निश्चित समय के अलावा कुछ खाना उनकी आदत में ही नहीं था । और यात्रा में भी घर का ही बना खाना खाते थे, या भूखे रह जाया करते थे । उनका वजन थोड़ा बढ़ा हुआ था, और 'ब्लड-प्रेशर' भी । लेकिन डॉक्टरों के अनुसार सब सुरक्षित हदों में था ।
उन्हें अपनी स्थिति का भान पहली बार तब हुआ, जब शाम हो चुकी थी, और वे अकेले ही पैदल शहर के दूर से घर की ओर आ रहे थे । एक तिराहा है वहाँ । शहर का पुराना चुंगी-नाका था कभी वहाँ, जहाँ से सड़क दो दिशाओं में फूटती है । दूर पर एक पुराना जर्जर मंदिर था, जहाँ लोग किसी पर्व-त्यौहार के अलावा कभी नहीं जाते थे, अलबत्ता औघड़ किस्म के कुछ साधु वहाँ कभी-कभी दिखलाई दे जाते थे । पास ही थोड़ी दूर खेत और एक कुआँ भी था । वहाँ कुछ ग्रामीण से दिखलाए देनेवाले लोग बैठकर धूम्रपान कर रहे थे । धुएँ की गंध में कुछ ऐसा था कि उनके 'चेतन'-मन में चल रहे विचार एकाएक विलीन होने लगे । एक अद्भुत अनुभव हुआ, जब वे अपने रास्ते चले जा रहे थे, और मन 'निर्विचार' था । ऐसा लग रहा था कि वे ठिठक गए हों । वे सड़क पर से जा रहे थे, और वे 'ठिठके-हुए' भी थे ! हाँ, वे एक नाटक में थे ! उनकी अपनी पहचान मिट गयी थी । और सारे संबब्धों की, 'संसार' की पहचान भी मिट गयी थी, लेकिन देह बिलकुल यांत्रिक तरीके से अपने रास्ते पर गतिशील थी । वे मानों अभिनय कर रहे थे, किसी फिल्म में, -और वे ही दर्शक थे अपने-आपके, तथा नाटक के भी ! वे सर्वत्र थे, लेकिन वे कहीं नहीं थे ।
कुँए के पास बैठे वे लोग शायद गाँजा पी रहे थे । और उस के असर से धुएँ पर सवार कोई प्रवाह उनकी नासा में चला गया हो । वे मानों नींद में चलने लगे थे । जागते हुए नींद मे चल रहे थे । जब विचार शांत था, स्वप्न या तंद्रा नहीं थी। शायद कोई और वज़ह हो, लेकिन उन्हें आज भी लगता है कि वह भी एक वज़ह रही होगी । लेकिन उन्हें जो अनुभव उस दिन हुआ, उसे उन्होंने बड़ी सावधानी से समझने की कोशिश की, और उन्हें ऐसा समझ में आया कि वह 'साक्षी' किसी कारण का परिणाम या फल नहीं हो सकता । 'चेतना' के उस अद्भुत स्वरूप पर वे विस्मय से भर उठे थे । विभोर हो उठे थे , -पर विह्वल नहीं ! ऐसा उन्होंने ही मुझे बतलाया था । उस अनिर्वचनीय तत्त्व की व्याख्या करना उन्हें एक अपवित्र कार्य महसूस हो रहा था । उन्हें लग रहा था कि उसे इस अपनी क्षुद्र, तुच्छ बुद्धि के दायरे में कैसे बाँधा जा सकता है ! उसे वाणी का विषय कैसे बनाया जा सकता है, जो वाणी से पूर्व ही है !
वे अधिक सावधान हो गए थे । उन्हें ख़याल था कि गाँजे की या ऐसे दूसरे द्रव्यों की गंध उनके भीतर कोई ऐसा क्षणिक, या अल्पकालिक बदलाव ले आती थी, जो उन्हें अवचेतन स्तर तक, या उससे भी अधिक गहराई तक, 'अचेतन' तक प्रभावित करता था । चेतना के 'साक्षी'-स्वरूप का उद्घाटन तो एक सहवर्ती घटना हुआ करती थी, न कि उस गंध के फल से । वे इसे किसी पिछली साधना का परिणाम भी नहीं मानते थे । वे अनिश्चयपूर्ण थे, लेकिन संशयशील या दुविधाग्रस्त नहीं थे । वे समझ रहे थे कि अनिश्चय का एक अर्थ यह है कि आप न तो अविश्वास करते हैं, न झूठा विश्वास ही करते हैं । आप अभी 'देख' रहे हैं । जैसे फूल पर एक नई किस्म का कीड़ा, जो भ्रमर भी नहीं है, तितली भी नहीं, जो आपने पहली बार देखा होता है, लेकिन आप नहीं जानते कि वह जहरीला हो सकता है, या नहीं, जो काटता है, या नहीं, उसे देखने पर आप अनिश्चय में होते हैं वैसे अनिश्चय में थे वे तब । 'चेतना' की उस दशा में जब उनका चित्त प्रवेश कर रहा होता, तो वे अपने-आपको सब ओर, सब-कुछ की भाँति महसूसने लगते थे ।उन्हें 'अपना' होना और सारा अस्तित्त्व एकात्म लगने लगता । वे सब-कुछ होने से कुछ विशिष्ट नहीं रह जाते थे, 'व्यक्तित्व', स्मृति, और 'विचार' तब एकाएक विलीन हो जाते, और वे बड़ा अद्भुत अनुभव करने लगते थे । हैरत की बात यह थी कि तब 'मन' और शरीर अपना जागतिक व्यवहार बिलकुल यांत्रिक तरीके से जारी रखते, लेकिन उन्हें यह शक होने लगता था कि कहीं वे (मन और श) कोई असंगत व्यवहार तो नहीं कर बैठेंगे ? -क्योंकि उस समय उन पर उनका 'स्वैच्छिक'-नियंत्रण मानो सम्माप्त हो चुका होता था । और तब भी जब सब-कुछ बिलकुल ठीक-ठीक होता रहता था, तो उन्हें एक अंतर्दृष्टि प्राप्त हुई कि सम्पूर्ण अस्तित्तव, उनके संकल्प, इच्छा या प्रयास से नहीं, वरण उस चेतन-सत्ता के माध्यम से संचालित होता है, जो इस समष्टि-अस्तित्त्व में ओत-प्रोत है, जिसमें यह संपूर्ण अस्तित्त्व वैसा ही खेलता है, जैसे माता की गोद में छोटा सा शिशु खेला करता है ।
लेकिन जब वह 'अनुभव' अपनी पूरी प्रगाढ़ता से उन्हें अपने में समालिया करता था, तब तो वे कुछ सोच तक नहीं सकते थे ।
कभी-कभी वह 'अनुभव' अकस्मात ही उनकी दिशा में चल आता, जैसा उस दिन हो रहा था, जब वे ट्रेन में बैठे-बैठे बातों का सिलसिला अचानक बंदकर सोने चले गए थे । ऐसे समय उन्हें 'अपने' होने का भान तक मिटने लगता था, और वे बहुत व्याकुल हो उठते थे ।
और यही तो 'अविज्नान' के साथ भी होता था ! 'अविज्नान के यहाँ आने के बाद मुझे उन दोनों की स्थिति की प्रामाणिकता पर संदेह नहीं रहा ।
वे किससे पूछते ? ('अविज्नान' तो सौभाग्य से उनसे पूछ सकता है, लेकिन चूँकि मैंने इस सब पर कभी ध्यान से नहीं सोचा था, इसलिए अभी तक 'अविज्नान' को इस बारे में कुछ नहीं बतलाया था ।)
उन्होंने योग दर्शन का अध्ययन और अभ्यास भी किया था, लेकिन उसकी प्रामाणिकता अब अनुभव हो रही थी ।
और उसे सही सन्दर्भ में देखना ज़रूरी था, ऐसा वे कहते थे ।
मुझे लगता है कि 'चेतना' की मन से परे की दशाओं को 'अनुभव' करने की लालसा से भी कुछ लोग नशे की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन यह भोर के समय मुर्गे की बाँग सुनकर, सूरज उगता है, ऐसा नतीज़ा निकालने जैसी बात है । मेरा सौभाग्य कि मैंने अपने इन कानों से ही उनके ही मुख से उनके इस अद्भुत अनुभव के विवरण का श्रवण किया था, अमृत-रस का पान किया था ।
मुझे यहीं उतरना था, -आनेवाले स्टेशन पर । वे बोले,
"उतरेंगे नहीं ?"
मैं बोला, :
"नहीं, अगले स्टॉप पर उतरूंगा ।"
गाड़ी वहाँ बीस मिनट रूकती थी । जैसे मुम्बई में कितने ही स्टेशन थे, वैसे ही एक स्टेशन पर, जो ट्रेन से बस तीन-चार मिनट के फासले पर था । पाँच मिनटों में हमने चाय पी, एक दूसरे के पते और फ़ोन नं. लिए, और पुन: गाड़ी में जाकर बैठ गए । थोड़ी देर बाद मैं अपना स्टेशन आने पर अपना सामान लेकर उनसे विदा हुआ ।
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- *(तब मैं 'लोगों' तथा 'दुनिया' का ही हिस्सा हुआ करता था । अब स्थिति बदल चुकी है, मैं जानता हूँ कि 'लोग' और 'दुनिया' मेरा हिस्सा है । गीता के शब्दों में, : "पश्य मे योगमैश्वरं ! ")
>>>>>> उन दिनों -43 >>>>>>>>>>>
January 19, 2010
उन दिनों -41.
~~ उन दिनों -41. ~~~~~~~~~~~~~~~~~
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"उनकी बातें तब हमें समझ में नहीं आतीं थी, और हमें यह भी समझ में नहीं आता था कि हम उनकी बातें नहीं समझ पा रहे हैं । साधारणतया हर मनुष्य ऐसा ही होता है । हमारा 'मन' तब विमूढ सा होता है । तब 'मन' बन रहा होता है । हम जाने-अनजाने ही 'सीख' रहे होते हैं । तब हम किसी चीज़ में 'प्रवीण' हो सकते है, किसी 'कला', या खेल में, किसी ऐसी क्रिया की पुनरावृत्ति में, जिसमें हमें 'मजा' आता हो । हम धीरे-धीरे 'चालाक' या चतुर हो जाते हैं । इसके बाद हम एक दुश्चक्र में फँस जाते हैं । -लगभग हर कोई । हमारे कुंवारे 'मन' पर अनेक परतें चढ़ने लगती हैं, और वह शिशु की निर्दोष, मासूम मानसिकता उस सब के नीचे दब कर ओझल हो जाती है, जो हममें उसके पहले हुआ करती थी । लेकिन वह नष्ट नहीं होती । यदि हम उस निर्दोष 'मानसिकता' से जीवन को देख सकें,, बिना कोई प्रतिक्रिया के, तो ...."
वे बोलते-बोलते ठहर गए । दो मिनट चुप रहने के बाद बोले,
"वे हमसे कहते थे, 'जीवन को सीधे देखो, चारों तरफ के जीवन को, समाज को, लोगों को, मनुष्य को, पशुओं को, पेड़-पौधों को, हवा को, पहाड़, जंगल, पक्षियों, मछलियों, तितलियों, नदी, झरने, तालाब, को, -हर चीज़ को सीधे देखो । ' लेकिन हम समझने की कोशिश ही नहीं करते थे । कभी-कभी वे हमें अपने साथ घूमने के लिए ले जाते ।
ऐसे ही एक बार कई दिनों की उमस के बाद रात में पानी बरसा था । सुबह बहुत स्वच्छ आकाश में सूरज जब उठा, तो मैं उनके साथ घूमने गया ।
'कैसा लग रहा है ?'
-उन्होंने पूछा ।
'बहुत अच्छा,'
-मैंने कहा । मैं उनके साथ-साथ साफ़-सुथरी सड़क पर जा रहा था । घर से निकलते ही जंगल शुरू हो जाता था । लेकिन वह मेरा वहम था । तब मैं पेड़ों को जंगल समझता था । फिर जब हम कुछ दूर चले आये, तो खेत आने लगे । मैंने उनसे पूछा,
'-ये जंगल के बीच मैदान किसने बनाए हैं ?'
'इसे मनुष्य ने बनाया । '
-वे बोले ।
'क्यों ?'
'ताकि उसमें बीज बोकर अनाज, सब्जी पैदा कर सके । '
'क्यों ?'
'क्योंकि अनाज, सब्जी हमें जितनी जरूरत होती है अपने-आप उससे बहुत कम उग पाते हैं, फिर उसे जानवर भी खा जाते हैं ।'
मैं बस देख रहा था, मेरे भीतर से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठ रही थी ।
फिर हम दूसरी बातें करने लगे । लेकिन जीवन को 'सीधे देखने' से उनका यह तात्पर्य था , यह बहुत वर्षों बाद समझ पाया था, जब वे नहीं रहे थे । हम 'जानकारियाँ' इकट्ठी कर लेते हैं और उसे 'ज्ञान' समझने की भूल कर बैठते हैं, और जितनी अधिक जानकारियाँ हमारे पास एकत्र हो जाती हैं, और जितनी 'चतुराई' या 'चालाकी' से हम उन्हें 'मैनिपुलेट' कर लेते हैं, उतने ही 'सफल' कहलाने लगते हैं । लेकिन इस बीच हम उस स्वाभाविक निर्द्शिता से विच्छिन्न हो जाते हैं, जो बचपन या कहें शैशव से हममें मौजूद होती है । भाषा, गणित, या कला, साहित्य, धर्म, विज्ञान, तकनीक या कौशल सीखना जीवन जीने के लिए अपने-आपमें ज़रूरी है, लेकिन हम उस सबके गुलाम हो जाते हैं । "
वे फिर थोड़ी देर तक चुप रहे ।
"यह मेरी अनौपचारिक शिक्षा-दीक्षा थी । कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि उनकी बातों का क्या मतलब है ! जब मैं उनसे पूछता तो कहते,
'इतिहास की किताबों में तुम्हें बहुत-कुछ पढ़ने को मिलेगा, तुम उन किताबों से तथाकथित महान व्यक्तियों के बारे में पढ़कर दीं-दुखियों की सहायता करने, या सामाजिक या राजनीतिक कार्य को अपने जीवन का ध्येय या आदर्श भी बना सकते हो । तुम श्रेष्ठ वैज्ञानिक, साहित्यकार, धार्मिक नेता, इंजीनियर, कुशल वक्ता, खिलाड़ी, महान वीर योद्धा आदि बन सकते हो । संक्षेप में तुम एक 'सफल' और 'महान' व्यक्ति बन सकते हो , लेकिन इनमें से बिरला ही जीवन को 'सीधे' देखा करता है । '
वे अपनी बात समझाते हुए कहा करते ।
मैं सोच में पड़ जाता । कॉलेज जाने की उम्र होने तक भी जब वे कहते कि जीवन को सीधे देखो, तो मैं उनकी इस बात पर मुँह बाए उनकी ओर देखता रहता था । उनकी मृत्य हो जाने तक मैं उनकी इस सरल सी शिक्षा को ग्रहण नहीं कर सका था ।
जब मैंने उनसे पूछा कि किताबों का प्रयोग जीवन से भागने के लिए कैसे किया जाता है, तो उन्होंने विस्तारपूर्वक समझाते हुए कहा था , :
'देखो, तुम मनोरंजन के लिए किताबें पढ़ते हो, जबकि तुम्हारे जीवन में डर है, ईर्ष्या है, चिंताएँ हैं, द्वंद्व हैं, है न ? '
"हाँ, है । "
-मैंने स्वीकार किया।
'तो क्या तुम अपने जीवन को सीधे नहीं देख सकते कि यह सब तुम्हारे भीतर ही कहीं है, तुम्हारे जीवन से जुड़ा एक तथ्य है ? ऐसा नहीं कि तुम्हें इस सबका पता नहीं है, तुम्हें पता है कि तुम्हें किन बातों से डर लगता है, परीक्षा से, तुम्हें पता है कि तुम्हें दोस्तों से, भाई बहनों से ईर्ष्या है, शायद द्वेष भी है, तुम लालच में फँस जाते हो, और सोचते हो कि लालच करना ठीक नहीं है, क्या यह दुविधा तुममें नहीं है ? तुम भले बनाना चाहते हो, लेकिन देखते हो कि भले बनाना आज के जमाने में बेवकूफी है, क्या यह सब समझने में किताबें तुम्हारी कोई मदद कर सकती हैं ? तुम्हें खुद ही बड़े धीरज से इस पूरे मामले को देखना होगा, और इसके लिए तुम्हें ही दिलचस्पी होनी चाहिए, इस बारे में दूसरा शायद ही कोई हेल्प कर सकता है । '
'कौन सा मामला ?'
-मैं आँखे झपकाता हुआ बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ बैठा ।
'इसीलिये मैं कहता हूँ, कि पहले अपने से बाहर के जीवन को, इस दुनिया को आँखें खोलकर देखो, कोई राय बनाने, या कमेन्ट देने के लिए नहीं, बल्कि इससे तुम्हारी 'संवेदनशीलता' बढ़ेगी, और संवेदनशीलता ही जीवन है । इसलिए मैं कहता हूँ कि जीवन को देखो, पशु-पक्षियों को देखो, उनमें भी डर, ईर्ष्या, लोभ, प्रेम, त्याग, हिंसा, क्रूरता, चालाकी, मूर्खता आदि सब होता है । पशु-पक्षियों के जीवन को, पेड़-पौधों के जीवन को, ध्यानपूर्वक देखो । देखो पशु-पक्षी कैसे बच्चों को जन्म देते हैं, कैसे अपने बच्चों से प्यार करते हैं, कैसे उनकी सुरक्षा करते हैं, एक दूसरे पर कैसे अधिकार रखते हैं । चिड़िया कैसे अपनेबच्चों को खिलाने के लिय दूर-दूर से कीड़े-मकोड़े पकड़कर लाती है . कबूतर कैसे सहमे-सहमे और सतर्क रहते हैं, बिल्ली कैसे शिकार करती है, गिलहरी कितनी चौकन्नी होती है, बन्दर कैसे झुण्ड में रहते हैं । उन सबका अध्ययन यदि तुम किताबों से करोगे तो वही बात हुई न, कि हाथ-कंगन को आरसी में देखा जाए ? तब तुम्हें पता चलेगा कि 'जीवन को देखना' कितना शक्तिशाली है, जबकि इसमें प्रयास जैसा कुछ नहीं होता । जीवन एक खुली किताब की भाँति, पिक्टोरियल-बुक से भी ज़्यादा जीवंत वस्तु है, यह तुममें भी है और तुम्हारे आसपास भी है । तुम जीवन से बहुत घनिष्ठतापूर्वक जुड़े हो !'
'सर' की बातें रोचक थीं सरल थीं । लेकिन क्या उन बातों की व्यावहारिक उपयोगिता भी है ? आजकल कौन इस तरह से सोच या कह सकता है ? फिर 'करना' तो शायद और भी मुश्किल है । मैं सुनता रहा ।
'
देखो, तुम पशु-पक्षियों से बहुत कुछ सीख सकते हो । कैसे सारे पशु-पक्षी एक दूसरे पर और प्रकृति पर आश्रित हैं । उनमें 'सेन्स ऑफ़ टाइम' वैसा नहीं होता जैसा हम मनुष्यों में हुआ करता है । उनका 'सेन्स ऑफ़ टाइम' या 'समय-बोध' हमारी तरह का नहीं होता । हमारे 'समय-बोध' पर 'विचार' हावी होता है । हमारा मन 'काल्पनिक भविष्य और स्मृति में बने तथाकथित अतीत के चित्रों' से 'विचार-रूपी तंतुओं से 'समय' की एक छवि बनाता है, और संयोग से उसमें कुछ बातें ऐसी भी होतीं हैं, जो शुद्ध भौतिक तथ्य होने की वजह से पुनारावृत्तिपरक होती हैं । और उस आधार पर हम एक 'ठोस', टेन्जिबल समय के अस्तित्वमान होने के ख़याल से ग्रस्त हो जाते हैं । हम 'प्लानिंग' करते हैं । हम शुद्धत: एक 'मानसिक-समय' में जीते रहते हैं । और हमें लगता है कि हम बहुत उन्नत किस्म के जीव हैं ।
दूसरे जीवों में ऐसा 'भविष्य-बोध' बहुत क्षीण होता है । वे अपने आसपास की दुनिया की ऐसी कोई 'परिचय-परक' मानसिक छवि नहीं बनाते जो 'विचार' और कल्पना के ताने-बाने से बनाई गयी हो । बेशक, इससे उन्हें कई दूसरे कष्टों का सामना करना होता है, लेकिन मनुष्य जिन त्रासद मनोव्याधियों से पीड़ित होता है, उससे वे मुक्त होते हैं ।
जैसे चिड़िया घोंसला बनाती है, उसमें अंडे रखती है, बच्चों के बड़े होने तक उनकी देखभाल करती है, लेकिन फिर उन्हें उनका स्वतंत्र जीवन जीने देती है । चीन्त्तियाँ बारिश की संभावना होने पर अपने अण्डों को लेकर ऊंचाई पर जाने लगती हैं । लेकिन वह उनकी सहज प्रत्युत्पन्न मति होती है । हम मनुष्यों ने न जाने क्या-क्या 'विकसित' कर लिया है, जो हमारी प्रत्युत्पन्न मति का ही नहीं बल्कि उसके साथ मिले हमारे 'मानसिक-समय-बोध' का परिणाम भी है ।
लेकिन मेरी रूचि किताबों में भी थी । हाँ शोहरत, पैसा, स्टेटस , आदि के लिए नहीं बल्कि शायद सिर्फ मनोरंजन के लिए । दर-असल मैं किताबों को छोड़ ही नहीं पा रहा था, और यह मेरे पिताजी की दृष्टि में मेरा असंतुलित विकास था । वे चाहते थे, कि मैं जीवन को सीधे समझूँ ।
मेरी रुचि किताबों से मुग्ध हो जाने में थी । ज़ाहिर है कि मैं किताबों का अवांछित शोषण (exploitation) कर रहा था । और यही बात पिताजी मुझे समझाना चाहते रहे होंगे । किताबों के बहाने मैं प्रत्यक्ष जीवन से कट रहा था, पलायन कर रहा था । और बड़ा प्लीजेंट तरीका था यह, इसलिए ज़्यादा खतरा था कि मैं विनष्ट होने जा रहा था, और मुझे कभी पता तक न चल पाता कि मैंने क्या खो दिया है ।
कभी-कभी वे कहते, :
बेटा, सबसे बड़ा आध्यात्मिक सत्य यह है कि अपना नुक्सान किये बिना तुम किसी दूसरे का नुक्सान कभी नहीं कर सकते । यदि तुम किताबों को exploit कर रहे हो तो समझो कि अपने-आप को ही exploit कर रहे हो । वैसे यह बात दूसरी बातों में भी उतनी ही सही है । यदि तुम किसी को धोखा देते हो तो इसके लिए तुम्हें अपने मन में लालच, ईर्ष्या, चालाकी को जगह देनी होती है, तात्पर्य यह कि तब तुम्हारा मन अधिक जटिल, कुटिल और कलुषित हो जाता है । तब तुम उतने ही अधिक 'असंवेदनशील' हो जाते हो । और असंवेदनशीलता जीवन से दूर ले जारी है । शायद इस मृत्यु कह सकते हैं । जब तुम अधिकतम संवेदनशील होते हो तब जीवन की अधिकतम संभावना तुममें होती है । '
मुझे उनकी बातें धीरे-धीरे समझ में आने लगीं थीं, लेकिन जैसा कि मैंने कहा - 'कच्ची उम्र', तो उस 'कच्ची उम्र' में वे मेरे लिए महत्व नहीं रखतीं थी । यह भी मेरी असंवेदनशीलता ही थी । लेकिन हम सभी ऐसे ही होते हैं । दर-असल मैं सिर्फ किताबों को ही नहीं बल्कि अपने सभी रिश्तों को अवांछित तरीके से exploit कर रहा था । और हम सभी यही तो करते रहते हैं, भले ही हम उसे संबंध, प्रेम, भाई-चारा, त्याग, समर्पण आदि जैसे सुन्दर-सुन्दर नाम देते हुए करते रहें । "
"रिश्तों का ! -क्या मतलब ?"
-मैंने पूछा ।
मैं नहीं जानता कि हमारी गाडी किस दिशा में जा रही थी । जिस ट्रेन में हम बैठे थे वह तो घूम-फिर कर अपने सुनिश्चित गंतव्य की ओर अग्रसर थी, लेकिन हमारी बातचीत किस दिशा में जा रही थी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल था ।
"छोड़िये भी ! "
उन्होंने कहा और मुझे अचानक ही मझधार में छोड़कर उठ खड़े हुए । अब मुझे क्या नींद आ सकेगी ? हृदय के जिन तारों को उन्होंने छेड़ा था, उसके बेसुरे स्वर क्या अब सोने भी देंगे ?
"क्योंकि अब मुझे नींद आ रही है । "
-कहकर उन्होंने अपनी बर्थ पर एक मोटी बेडशीट फैलाई, दूसरी पांवों के पास रख ली, अपनी सूटकेस और बैग को, पानी की शीशी को किनारे बर्थ की दीवार की तरफ सटा दिया, और बोले, :
"आप भी सो जाइए, फिर बातें करेंगे । "
"ठीक है, गुड नाईट !"
"गुड नाईट ! "
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>>>>>>>>> उन दिनों -42 >>>>>>>>>>
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"उनकी बातें तब हमें समझ में नहीं आतीं थी, और हमें यह भी समझ में नहीं आता था कि हम उनकी बातें नहीं समझ पा रहे हैं । साधारणतया हर मनुष्य ऐसा ही होता है । हमारा 'मन' तब विमूढ सा होता है । तब 'मन' बन रहा होता है । हम जाने-अनजाने ही 'सीख' रहे होते हैं । तब हम किसी चीज़ में 'प्रवीण' हो सकते है, किसी 'कला', या खेल में, किसी ऐसी क्रिया की पुनरावृत्ति में, जिसमें हमें 'मजा' आता हो । हम धीरे-धीरे 'चालाक' या चतुर हो जाते हैं । इसके बाद हम एक दुश्चक्र में फँस जाते हैं । -लगभग हर कोई । हमारे कुंवारे 'मन' पर अनेक परतें चढ़ने लगती हैं, और वह शिशु की निर्दोष, मासूम मानसिकता उस सब के नीचे दब कर ओझल हो जाती है, जो हममें उसके पहले हुआ करती थी । लेकिन वह नष्ट नहीं होती । यदि हम उस निर्दोष 'मानसिकता' से जीवन को देख सकें,, बिना कोई प्रतिक्रिया के, तो ...."
वे बोलते-बोलते ठहर गए । दो मिनट चुप रहने के बाद बोले,
"वे हमसे कहते थे, 'जीवन को सीधे देखो, चारों तरफ के जीवन को, समाज को, लोगों को, मनुष्य को, पशुओं को, पेड़-पौधों को, हवा को, पहाड़, जंगल, पक्षियों, मछलियों, तितलियों, नदी, झरने, तालाब, को, -हर चीज़ को सीधे देखो । ' लेकिन हम समझने की कोशिश ही नहीं करते थे । कभी-कभी वे हमें अपने साथ घूमने के लिए ले जाते ।
ऐसे ही एक बार कई दिनों की उमस के बाद रात में पानी बरसा था । सुबह बहुत स्वच्छ आकाश में सूरज जब उठा, तो मैं उनके साथ घूमने गया ।
'कैसा लग रहा है ?'
-उन्होंने पूछा ।
'बहुत अच्छा,'
-मैंने कहा । मैं उनके साथ-साथ साफ़-सुथरी सड़क पर जा रहा था । घर से निकलते ही जंगल शुरू हो जाता था । लेकिन वह मेरा वहम था । तब मैं पेड़ों को जंगल समझता था । फिर जब हम कुछ दूर चले आये, तो खेत आने लगे । मैंने उनसे पूछा,
'-ये जंगल के बीच मैदान किसने बनाए हैं ?'
'इसे मनुष्य ने बनाया । '
-वे बोले ।
'क्यों ?'
'ताकि उसमें बीज बोकर अनाज, सब्जी पैदा कर सके । '
'क्यों ?'
'क्योंकि अनाज, सब्जी हमें जितनी जरूरत होती है अपने-आप उससे बहुत कम उग पाते हैं, फिर उसे जानवर भी खा जाते हैं ।'
मैं बस देख रहा था, मेरे भीतर से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठ रही थी ।
फिर हम दूसरी बातें करने लगे । लेकिन जीवन को 'सीधे देखने' से उनका यह तात्पर्य था , यह बहुत वर्षों बाद समझ पाया था, जब वे नहीं रहे थे । हम 'जानकारियाँ' इकट्ठी कर लेते हैं और उसे 'ज्ञान' समझने की भूल कर बैठते हैं, और जितनी अधिक जानकारियाँ हमारे पास एकत्र हो जाती हैं, और जितनी 'चतुराई' या 'चालाकी' से हम उन्हें 'मैनिपुलेट' कर लेते हैं, उतने ही 'सफल' कहलाने लगते हैं । लेकिन इस बीच हम उस स्वाभाविक निर्द्शिता से विच्छिन्न हो जाते हैं, जो बचपन या कहें शैशव से हममें मौजूद होती है । भाषा, गणित, या कला, साहित्य, धर्म, विज्ञान, तकनीक या कौशल सीखना जीवन जीने के लिए अपने-आपमें ज़रूरी है, लेकिन हम उस सबके गुलाम हो जाते हैं । "
वे फिर थोड़ी देर तक चुप रहे ।
"यह मेरी अनौपचारिक शिक्षा-दीक्षा थी । कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि उनकी बातों का क्या मतलब है ! जब मैं उनसे पूछता तो कहते,
'इतिहास की किताबों में तुम्हें बहुत-कुछ पढ़ने को मिलेगा, तुम उन किताबों से तथाकथित महान व्यक्तियों के बारे में पढ़कर दीं-दुखियों की सहायता करने, या सामाजिक या राजनीतिक कार्य को अपने जीवन का ध्येय या आदर्श भी बना सकते हो । तुम श्रेष्ठ वैज्ञानिक, साहित्यकार, धार्मिक नेता, इंजीनियर, कुशल वक्ता, खिलाड़ी, महान वीर योद्धा आदि बन सकते हो । संक्षेप में तुम एक 'सफल' और 'महान' व्यक्ति बन सकते हो , लेकिन इनमें से बिरला ही जीवन को 'सीधे' देखा करता है । '
वे अपनी बात समझाते हुए कहा करते ।
मैं सोच में पड़ जाता । कॉलेज जाने की उम्र होने तक भी जब वे कहते कि जीवन को सीधे देखो, तो मैं उनकी इस बात पर मुँह बाए उनकी ओर देखता रहता था । उनकी मृत्य हो जाने तक मैं उनकी इस सरल सी शिक्षा को ग्रहण नहीं कर सका था ।
जब मैंने उनसे पूछा कि किताबों का प्रयोग जीवन से भागने के लिए कैसे किया जाता है, तो उन्होंने विस्तारपूर्वक समझाते हुए कहा था , :
'देखो, तुम मनोरंजन के लिए किताबें पढ़ते हो, जबकि तुम्हारे जीवन में डर है, ईर्ष्या है, चिंताएँ हैं, द्वंद्व हैं, है न ? '
"हाँ, है । "
-मैंने स्वीकार किया।
'तो क्या तुम अपने जीवन को सीधे नहीं देख सकते कि यह सब तुम्हारे भीतर ही कहीं है, तुम्हारे जीवन से जुड़ा एक तथ्य है ? ऐसा नहीं कि तुम्हें इस सबका पता नहीं है, तुम्हें पता है कि तुम्हें किन बातों से डर लगता है, परीक्षा से, तुम्हें पता है कि तुम्हें दोस्तों से, भाई बहनों से ईर्ष्या है, शायद द्वेष भी है, तुम लालच में फँस जाते हो, और सोचते हो कि लालच करना ठीक नहीं है, क्या यह दुविधा तुममें नहीं है ? तुम भले बनाना चाहते हो, लेकिन देखते हो कि भले बनाना आज के जमाने में बेवकूफी है, क्या यह सब समझने में किताबें तुम्हारी कोई मदद कर सकती हैं ? तुम्हें खुद ही बड़े धीरज से इस पूरे मामले को देखना होगा, और इसके लिए तुम्हें ही दिलचस्पी होनी चाहिए, इस बारे में दूसरा शायद ही कोई हेल्प कर सकता है । '
'कौन सा मामला ?'
-मैं आँखे झपकाता हुआ बेवकूफी भरा प्रश्न पूछ बैठा ।
'इसीलिये मैं कहता हूँ, कि पहले अपने से बाहर के जीवन को, इस दुनिया को आँखें खोलकर देखो, कोई राय बनाने, या कमेन्ट देने के लिए नहीं, बल्कि इससे तुम्हारी 'संवेदनशीलता' बढ़ेगी, और संवेदनशीलता ही जीवन है । इसलिए मैं कहता हूँ कि जीवन को देखो, पशु-पक्षियों को देखो, उनमें भी डर, ईर्ष्या, लोभ, प्रेम, त्याग, हिंसा, क्रूरता, चालाकी, मूर्खता आदि सब होता है । पशु-पक्षियों के जीवन को, पेड़-पौधों के जीवन को, ध्यानपूर्वक देखो । देखो पशु-पक्षी कैसे बच्चों को जन्म देते हैं, कैसे अपने बच्चों से प्यार करते हैं, कैसे उनकी सुरक्षा करते हैं, एक दूसरे पर कैसे अधिकार रखते हैं । चिड़िया कैसे अपनेबच्चों को खिलाने के लिय दूर-दूर से कीड़े-मकोड़े पकड़कर लाती है . कबूतर कैसे सहमे-सहमे और सतर्क रहते हैं, बिल्ली कैसे शिकार करती है, गिलहरी कितनी चौकन्नी होती है, बन्दर कैसे झुण्ड में रहते हैं । उन सबका अध्ययन यदि तुम किताबों से करोगे तो वही बात हुई न, कि हाथ-कंगन को आरसी में देखा जाए ? तब तुम्हें पता चलेगा कि 'जीवन को देखना' कितना शक्तिशाली है, जबकि इसमें प्रयास जैसा कुछ नहीं होता । जीवन एक खुली किताब की भाँति, पिक्टोरियल-बुक से भी ज़्यादा जीवंत वस्तु है, यह तुममें भी है और तुम्हारे आसपास भी है । तुम जीवन से बहुत घनिष्ठतापूर्वक जुड़े हो !'
'सर' की बातें रोचक थीं सरल थीं । लेकिन क्या उन बातों की व्यावहारिक उपयोगिता भी है ? आजकल कौन इस तरह से सोच या कह सकता है ? फिर 'करना' तो शायद और भी मुश्किल है । मैं सुनता रहा ।
'
देखो, तुम पशु-पक्षियों से बहुत कुछ सीख सकते हो । कैसे सारे पशु-पक्षी एक दूसरे पर और प्रकृति पर आश्रित हैं । उनमें 'सेन्स ऑफ़ टाइम' वैसा नहीं होता जैसा हम मनुष्यों में हुआ करता है । उनका 'सेन्स ऑफ़ टाइम' या 'समय-बोध' हमारी तरह का नहीं होता । हमारे 'समय-बोध' पर 'विचार' हावी होता है । हमारा मन 'काल्पनिक भविष्य और स्मृति में बने तथाकथित अतीत के चित्रों' से 'विचार-रूपी तंतुओं से 'समय' की एक छवि बनाता है, और संयोग से उसमें कुछ बातें ऐसी भी होतीं हैं, जो शुद्ध भौतिक तथ्य होने की वजह से पुनारावृत्तिपरक होती हैं । और उस आधार पर हम एक 'ठोस', टेन्जिबल समय के अस्तित्वमान होने के ख़याल से ग्रस्त हो जाते हैं । हम 'प्लानिंग' करते हैं । हम शुद्धत: एक 'मानसिक-समय' में जीते रहते हैं । और हमें लगता है कि हम बहुत उन्नत किस्म के जीव हैं ।
दूसरे जीवों में ऐसा 'भविष्य-बोध' बहुत क्षीण होता है । वे अपने आसपास की दुनिया की ऐसी कोई 'परिचय-परक' मानसिक छवि नहीं बनाते जो 'विचार' और कल्पना के ताने-बाने से बनाई गयी हो । बेशक, इससे उन्हें कई दूसरे कष्टों का सामना करना होता है, लेकिन मनुष्य जिन त्रासद मनोव्याधियों से पीड़ित होता है, उससे वे मुक्त होते हैं ।
जैसे चिड़िया घोंसला बनाती है, उसमें अंडे रखती है, बच्चों के बड़े होने तक उनकी देखभाल करती है, लेकिन फिर उन्हें उनका स्वतंत्र जीवन जीने देती है । चीन्त्तियाँ बारिश की संभावना होने पर अपने अण्डों को लेकर ऊंचाई पर जाने लगती हैं । लेकिन वह उनकी सहज प्रत्युत्पन्न मति होती है । हम मनुष्यों ने न जाने क्या-क्या 'विकसित' कर लिया है, जो हमारी प्रत्युत्पन्न मति का ही नहीं बल्कि उसके साथ मिले हमारे 'मानसिक-समय-बोध' का परिणाम भी है ।
लेकिन मेरी रूचि किताबों में भी थी । हाँ शोहरत, पैसा, स्टेटस , आदि के लिए नहीं बल्कि शायद सिर्फ मनोरंजन के लिए । दर-असल मैं किताबों को छोड़ ही नहीं पा रहा था, और यह मेरे पिताजी की दृष्टि में मेरा असंतुलित विकास था । वे चाहते थे, कि मैं जीवन को सीधे समझूँ ।
मेरी रुचि किताबों से मुग्ध हो जाने में थी । ज़ाहिर है कि मैं किताबों का अवांछित शोषण (exploitation) कर रहा था । और यही बात पिताजी मुझे समझाना चाहते रहे होंगे । किताबों के बहाने मैं प्रत्यक्ष जीवन से कट रहा था, पलायन कर रहा था । और बड़ा प्लीजेंट तरीका था यह, इसलिए ज़्यादा खतरा था कि मैं विनष्ट होने जा रहा था, और मुझे कभी पता तक न चल पाता कि मैंने क्या खो दिया है ।
कभी-कभी वे कहते, :
बेटा, सबसे बड़ा आध्यात्मिक सत्य यह है कि अपना नुक्सान किये बिना तुम किसी दूसरे का नुक्सान कभी नहीं कर सकते । यदि तुम किताबों को exploit कर रहे हो तो समझो कि अपने-आप को ही exploit कर रहे हो । वैसे यह बात दूसरी बातों में भी उतनी ही सही है । यदि तुम किसी को धोखा देते हो तो इसके लिए तुम्हें अपने मन में लालच, ईर्ष्या, चालाकी को जगह देनी होती है, तात्पर्य यह कि तब तुम्हारा मन अधिक जटिल, कुटिल और कलुषित हो जाता है । तब तुम उतने ही अधिक 'असंवेदनशील' हो जाते हो । और असंवेदनशीलता जीवन से दूर ले जारी है । शायद इस मृत्यु कह सकते हैं । जब तुम अधिकतम संवेदनशील होते हो तब जीवन की अधिकतम संभावना तुममें होती है । '
मुझे उनकी बातें धीरे-धीरे समझ में आने लगीं थीं, लेकिन जैसा कि मैंने कहा - 'कच्ची उम्र', तो उस 'कच्ची उम्र' में वे मेरे लिए महत्व नहीं रखतीं थी । यह भी मेरी असंवेदनशीलता ही थी । लेकिन हम सभी ऐसे ही होते हैं । दर-असल मैं सिर्फ किताबों को ही नहीं बल्कि अपने सभी रिश्तों को अवांछित तरीके से exploit कर रहा था । और हम सभी यही तो करते रहते हैं, भले ही हम उसे संबंध, प्रेम, भाई-चारा, त्याग, समर्पण आदि जैसे सुन्दर-सुन्दर नाम देते हुए करते रहें । "
"रिश्तों का ! -क्या मतलब ?"
-मैंने पूछा ।
मैं नहीं जानता कि हमारी गाडी किस दिशा में जा रही थी । जिस ट्रेन में हम बैठे थे वह तो घूम-फिर कर अपने सुनिश्चित गंतव्य की ओर अग्रसर थी, लेकिन हमारी बातचीत किस दिशा में जा रही थी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल था ।
"छोड़िये भी ! "
उन्होंने कहा और मुझे अचानक ही मझधार में छोड़कर उठ खड़े हुए । अब मुझे क्या नींद आ सकेगी ? हृदय के जिन तारों को उन्होंने छेड़ा था, उसके बेसुरे स्वर क्या अब सोने भी देंगे ?
"क्योंकि अब मुझे नींद आ रही है । "
-कहकर उन्होंने अपनी बर्थ पर एक मोटी बेडशीट फैलाई, दूसरी पांवों के पास रख ली, अपनी सूटकेस और बैग को, पानी की शीशी को किनारे बर्थ की दीवार की तरफ सटा दिया, और बोले, :
"आप भी सो जाइए, फिर बातें करेंगे । "
"ठीक है, गुड नाईट !"
"गुड नाईट ! "
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>>>>>>>>> उन दिनों -42 >>>>>>>>>>
January 10, 2010
ईश्वर.
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~~~~~~~~~~~ ईश्वर ~~~~~~~~~~~~
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उसके 'अस्तित्व' के बारे में,
वे बहस में व्यस्त हैं,
कि वह है,
या नहीं है !
और 'कोई',
उनकी इस अंतहीन बहस से ऊबकर,
खुद ही उसकी तलाश में चल पड़ा ।
खोजते-खोजते,
उसे 'वह' मिल गया है, जिसे वह ईश्वर कह सकता है ।
लेकिन इस बीच वह खुद मिट चुका है ।
और वे,
वे अब भी बदस्तूर,
बहस में व्यस्त हैं ।
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~~~~~~~~~~~ ईश्वर ~~~~~~~~~~~~
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उसके 'अस्तित्व' के बारे में,
वे बहस में व्यस्त हैं,
कि वह है,
या नहीं है !
और 'कोई',
उनकी इस अंतहीन बहस से ऊबकर,
खुद ही उसकी तलाश में चल पड़ा ।
खोजते-खोजते,
उसे 'वह' मिल गया है, जिसे वह ईश्वर कह सकता है ।
लेकिन इस बीच वह खुद मिट चुका है ।
और वे,
वे अब भी बदस्तूर,
बहस में व्यस्त हैं ।
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January 05, 2010
विचारणा
~~~~~~~~ विचारणा/1 ~~~~~~~~
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.... शरीर और शरीर का स्वामी ....
शरीर पाँच तत्त्वों से, या 'विज्ञान' की भाषा में कहें तो भौतिक पदार्थों से बना है ।
शरीर विज्ञान के नियमों से, अर्थात् प्रकृति के नियमों से बनाता, कार्यशील रहता और विनष्ट हो जाता है ।
शरीर को निर्मित करनेवाले द्रव्य, शक्तियाँ, घटक, परिस्थितियाँ आदि ही उसे जीवन प्रदान करती हैं, और इस दृष्टि से वही उसके वास्तविक स्वामी कहे जा सकते हैं ।
उनकी पारस्परिक क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होने से ही शरीर में विभिन्न और विविध क्षमताएँ तथा प्रतिफल /परिणाम जैसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि लगना, जाग्रति, स्वप्न तथा सुषुप्ति की या मूर्च्छा की स्थितियाँ पैदा होती हैं । और वह स्वामी शरीर को अपने-आपसे पृथक की भाँति जानता है, या जानता भी है या नहीं, इसे समझना तो बहुत कठिन है ।
लेकिन इसी शरीर से घनिष्ठता से जुड़ा एक चेतन तत्त्व भी अवश्य है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । यही शरीर को 'जानता' है, और न सिर्फ उसके माध्यम से भिन्न-भिन्न सुखद या दुखद या साधारण भोगों को 'भोगता' है, न सिर्फ उसके 'कष्टों' या 'सुखों' से प्रभावित होता है, उसे न सिर्फ 'मेरा' कहकर उसके स्वामी होने का विचार / दावा करता है, (या इस भ्रम से ग्रस्त रहता है), बल्कि उसे 'मैं' कहता भी है ।
उसका ऐसा 'जानना', उसके 'चेतन'-तत्त्व होने का ही कारण तथा परिणाम भी है । केवल संप्रेषण की सुविधा के लिए हम उसे उसके 'जानने' से पृथक के रूप में स्वीकार करते हैं, यह बात स्पष्टता-पूर्वक देख लेने पर आसानी होगी ।
इसलिए यह तो स्पष्ट ही है कि यद्यपि वह चेतन-तत्त्व जिसे हम अपने-आपके रूप में जानते-समझते हैं, और जो हम स्वयं ही वस्तुत: हैं भी, जो शरीर को 'अपना' या 'मेरा', यहाँ तक कि 'मैं' भी कहता है, वह शरीर में होनेवाली तमाम क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के केवल एक अत्यंत छोटे से अंश (जैसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी लगना आदि, और इन्द्रिय-संवेदनों को ) ही 'जानता' है -किन्तु वह उन्हें 'संचालित' कदापि नहीं करता । वह परोक्षत: शायद 'जानकारी' तथा 'अनुभव' की 'स्मृति' (जो पुन: बाहर से प्राप्त हुई 'जानकारी' ही होती है,) के आधार पर उन्हें सक्रिय या निष्क्रिय, तीव्र या धीमा तो कर सकता है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना तो भूल ही होगा कि वह शरीर का 'स्वामी' है !
अतएव शरीर के दो 'स्वामी' अब हमारे लिए विचारणीय हैं ।
एक तो प्रकृति के तत्त्व और नियम, जो कि विज्ञान-सम्मत तो हैं ही , लेकिन उस 'स्वामी' के बारे में यह दूसरा 'स्वामी' (अर्थात् चेतन-तत्त्व), जो कि शरीर का उपयोग /उपभोग करता है, और शरीर के न सिर्फ 'मेरे-होने' का, बल्कि 'मैं' होने का भी विचार / दावा / विश्वास करता है, -जो इस विभ्रम से ग्रस्त है, लगभग कुछ भी नहीं जानता । अब, यह भी स्पष्ट ही है कि वह चेतन-तत्त्वरूपी 'स्वामी' या तो शरीर का ही 'परिणाम' अथवा 'विकार' है, या उससे भिन्न किसी और स्वरूप की कोई दूसरी बिलकुल ही भिन्न वस्तु है ।
क्या यह संभव है कि वह सिर्फ शरीर के अंतर्गत उत्पन्न होनेवाला एक ख़याल अथवा कल्पना-मात्र हो ? यदि वह शरीर के अंतर्गत होनेवाली एक क्रिया या प्रतिक्रया भर होता हो, तो क्या वह दूसरी ऐसी सारी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की भाँति किसी समय होता हो, और किसी समय खो जाता हो ? क्या वह शरीरगत एक स्थिति-विशेष भर है ? यदि ऐसा ही है तो 'मृत्यु' के समय उसका क्या होता होगा ?
किन्तु अभी तो, जब हम जीवन जी रहे हैं, तब भी तो वह है, इस पर संदेह तो किया ही नहीं जा सकता !
निष्कर्ष यह, कि वह चेतन-तत्त्व जो शरीर को 'जानता' है, भूलवश ही उसे 'मेरा' अथवा 'मैं' कह या समझ बैठता है । वह शरीर को एक ओर तो भोग का माध्यम, साधन या उपकरण मन लेता है, वहीं दूसरी ओर, उस माध्यम को ही 'मैं' भी समझ लेने की नासमझी कर बैठता है, जबकि शरीर तो प्रकृति के अपने नियमों से बनता-बिगड़ता और व्यवहार करता है । शरीर का यह 'चेतन' स्वामी शरीर में होनेवाली भिन्न-भिन्न क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को अनुकूल, प्रतिकूल, और सामान्य, आवश्यक, अनावश्यक आदि की तरह देखता है । इन्द्रिय-संवेदनाएँ और शरीर के अंतर्गत घट रही क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के संवेदन भी शायद उस ज्ञान का ही हिस्सा हैं जो शरीर को निर्मित, संचालित और अंतत: विनष्ट भी कर देता है । क्या उस ज्ञान को हम वैश्विक-प्रज्ञा (Cosmic-Intelligence) नहीं कह सकते ? लेकिन शरीर को 'भोग' के एक उपकरण की तरह प्रयोग करनेवाला चेतन-तत्त्व, जो कि 'मन' के माध्यम से 'विचार', 'बुद्धि', 'भावनाओं', 'स्मृति', तथा 'संकल्प' का भी उपभोग करता है, अपने-आप के एक स्वतंत्र सत्ता होने के विभ्रम से ग्रस्त हो जाता है । इस विभ्रम की वैधता पर संदेह करने, इसके प्रति जागने, इसके 'कारण' का अन्वेषण करने की बजाय, वह चेतन स्वामी इस विभ्रम का एक समर्पित सेवक बन जाता है, और एक मिथ्या दुश्चक्र में फँस जाता है ।
क्या सामान्य 'मन' का प्रयोग करते हुए, उसी 'मन' की तमाम 'विधियों' का अनुष्ठान करने-मात्र से यह चेतन तत्त्व, कभी अपने इस मौलिक विभ्रम से मुक्त हो सकता है ? क्या वे इस विभ्रम को और दृढ ही नहीं करती हैं ?
और यदि वह चेतन-तत्त्व इस मौलिक विभ्रम पर प्रश्न नहीं उठाता, तो वह अनंतकाल तक के लिए, सदा के लिए, इस दुश्चक्र में पड़ा रहने के लिए विवश है ।
>>>विचारणा/2।>>>>>>>>
>>>'अहं' और 'अहं'-संकल्प.>>>>>>>
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.... शरीर और शरीर का स्वामी ....
शरीर पाँच तत्त्वों से, या 'विज्ञान' की भाषा में कहें तो भौतिक पदार्थों से बना है ।
शरीर विज्ञान के नियमों से, अर्थात् प्रकृति के नियमों से बनाता, कार्यशील रहता और विनष्ट हो जाता है ।
शरीर को निर्मित करनेवाले द्रव्य, शक्तियाँ, घटक, परिस्थितियाँ आदि ही उसे जीवन प्रदान करती हैं, और इस दृष्टि से वही उसके वास्तविक स्वामी कहे जा सकते हैं ।
उनकी पारस्परिक क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होने से ही शरीर में विभिन्न और विविध क्षमताएँ तथा प्रतिफल /परिणाम जैसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि लगना, जाग्रति, स्वप्न तथा सुषुप्ति की या मूर्च्छा की स्थितियाँ पैदा होती हैं । और वह स्वामी शरीर को अपने-आपसे पृथक की भाँति जानता है, या जानता भी है या नहीं, इसे समझना तो बहुत कठिन है ।
लेकिन इसी शरीर से घनिष्ठता से जुड़ा एक चेतन तत्त्व भी अवश्य है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता । यही शरीर को 'जानता' है, और न सिर्फ उसके माध्यम से भिन्न-भिन्न सुखद या दुखद या साधारण भोगों को 'भोगता' है, न सिर्फ उसके 'कष्टों' या 'सुखों' से प्रभावित होता है, उसे न सिर्फ 'मेरा' कहकर उसके स्वामी होने का विचार / दावा करता है, (या इस भ्रम से ग्रस्त रहता है), बल्कि उसे 'मैं' कहता भी है ।
उसका ऐसा 'जानना', उसके 'चेतन'-तत्त्व होने का ही कारण तथा परिणाम भी है । केवल संप्रेषण की सुविधा के लिए हम उसे उसके 'जानने' से पृथक के रूप में स्वीकार करते हैं, यह बात स्पष्टता-पूर्वक देख लेने पर आसानी होगी ।
इसलिए यह तो स्पष्ट ही है कि यद्यपि वह चेतन-तत्त्व जिसे हम अपने-आपके रूप में जानते-समझते हैं, और जो हम स्वयं ही वस्तुत: हैं भी, जो शरीर को 'अपना' या 'मेरा', यहाँ तक कि 'मैं' भी कहता है, वह शरीर में होनेवाली तमाम क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के केवल एक अत्यंत छोटे से अंश (जैसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी लगना आदि, और इन्द्रिय-संवेदनों को ) ही 'जानता' है -किन्तु वह उन्हें 'संचालित' कदापि नहीं करता । वह परोक्षत: शायद 'जानकारी' तथा 'अनुभव' की 'स्मृति' (जो पुन: बाहर से प्राप्त हुई 'जानकारी' ही होती है,) के आधार पर उन्हें सक्रिय या निष्क्रिय, तीव्र या धीमा तो कर सकता है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना तो भूल ही होगा कि वह शरीर का 'स्वामी' है !
अतएव शरीर के दो 'स्वामी' अब हमारे लिए विचारणीय हैं ।
एक तो प्रकृति के तत्त्व और नियम, जो कि विज्ञान-सम्मत तो हैं ही , लेकिन उस 'स्वामी' के बारे में यह दूसरा 'स्वामी' (अर्थात् चेतन-तत्त्व), जो कि शरीर का उपयोग /उपभोग करता है, और शरीर के न सिर्फ 'मेरे-होने' का, बल्कि 'मैं' होने का भी विचार / दावा / विश्वास करता है, -जो इस विभ्रम से ग्रस्त है, लगभग कुछ भी नहीं जानता । अब, यह भी स्पष्ट ही है कि वह चेतन-तत्त्वरूपी 'स्वामी' या तो शरीर का ही 'परिणाम' अथवा 'विकार' है, या उससे भिन्न किसी और स्वरूप की कोई दूसरी बिलकुल ही भिन्न वस्तु है ।
क्या यह संभव है कि वह सिर्फ शरीर के अंतर्गत उत्पन्न होनेवाला एक ख़याल अथवा कल्पना-मात्र हो ? यदि वह शरीर के अंतर्गत होनेवाली एक क्रिया या प्रतिक्रया भर होता हो, तो क्या वह दूसरी ऐसी सारी क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की भाँति किसी समय होता हो, और किसी समय खो जाता हो ? क्या वह शरीरगत एक स्थिति-विशेष भर है ? यदि ऐसा ही है तो 'मृत्यु' के समय उसका क्या होता होगा ?
किन्तु अभी तो, जब हम जीवन जी रहे हैं, तब भी तो वह है, इस पर संदेह तो किया ही नहीं जा सकता !
निष्कर्ष यह, कि वह चेतन-तत्त्व जो शरीर को 'जानता' है, भूलवश ही उसे 'मेरा' अथवा 'मैं' कह या समझ बैठता है । वह शरीर को एक ओर तो भोग का माध्यम, साधन या उपकरण मन लेता है, वहीं दूसरी ओर, उस माध्यम को ही 'मैं' भी समझ लेने की नासमझी कर बैठता है, जबकि शरीर तो प्रकृति के अपने नियमों से बनता-बिगड़ता और व्यवहार करता है । शरीर का यह 'चेतन' स्वामी शरीर में होनेवाली भिन्न-भिन्न क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं को अनुकूल, प्रतिकूल, और सामान्य, आवश्यक, अनावश्यक आदि की तरह देखता है । इन्द्रिय-संवेदनाएँ और शरीर के अंतर्गत घट रही क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के संवेदन भी शायद उस ज्ञान का ही हिस्सा हैं जो शरीर को निर्मित, संचालित और अंतत: विनष्ट भी कर देता है । क्या उस ज्ञान को हम वैश्विक-प्रज्ञा (Cosmic-Intelligence) नहीं कह सकते ? लेकिन शरीर को 'भोग' के एक उपकरण की तरह प्रयोग करनेवाला चेतन-तत्त्व, जो कि 'मन' के माध्यम से 'विचार', 'बुद्धि', 'भावनाओं', 'स्मृति', तथा 'संकल्प' का भी उपभोग करता है, अपने-आप के एक स्वतंत्र सत्ता होने के विभ्रम से ग्रस्त हो जाता है । इस विभ्रम की वैधता पर संदेह करने, इसके प्रति जागने, इसके 'कारण' का अन्वेषण करने की बजाय, वह चेतन स्वामी इस विभ्रम का एक समर्पित सेवक बन जाता है, और एक मिथ्या दुश्चक्र में फँस जाता है ।
क्या सामान्य 'मन' का प्रयोग करते हुए, उसी 'मन' की तमाम 'विधियों' का अनुष्ठान करने-मात्र से यह चेतन तत्त्व, कभी अपने इस मौलिक विभ्रम से मुक्त हो सकता है ? क्या वे इस विभ्रम को और दृढ ही नहीं करती हैं ?
और यदि वह चेतन-तत्त्व इस मौलिक विभ्रम पर प्रश्न नहीं उठाता, तो वह अनंतकाल तक के लिए, सदा के लिए, इस दुश्चक्र में पड़ा रहने के लिए विवश है ।
>>>विचारणा/2।>>>>>>>>
>>>'अहं' और 'अहं'-संकल्प.>>>>>>>
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January 04, 2010
उन दिनों -40.
~~~~~~~~~ उन दिनों -40. ~~~~~~~~
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'सर' से मेरी दूसरी मुलाक़ात करीब डेढ़ साल बाद हुई । तब मैं सरकारी काम से जबलपुर जा रहा था । स्टेशन पर आने पर जब 'रिज़र्वेशन-चार्ट' देख रहा था, तो मेरे नाम और टिकट-नंबर के बाद बहुत नीचे उनका नाम दिखलाई दिया । अचानक ऐसा लगा कि मैं जानता हूँ । फिर याद आया कि ये तो 'सर' ही होंगे । उनका 'रिज़र्वेशन' उस शहर से था जहाँ वे रहते थे, और जहाँ उनसे मेरी पहली मुलाक़ात विचित्र ढंग से हुई थी । उनका बर्थ-क्रमांक मेरे ही आसपास रहा होगा । खैर जब ट्रेन में बैठा, तो उनका शहर आने तक उनके ही बारे में सोचता रहा । मेरी बर्थ के ठीक साइड में, खिड़की से ऊपर उनकी बर्थ थी ।
जब वे आये, तो उनके साथ दो अन्य लोग भी थे, -उन्हें छोड़ने आये होंगे । वे तुरंत ही लौट गए थे । 'सर' ने अपनी सूट-केस अपनी बर्थ पर रखी, पानी की बोतल, एक छोटा बैग, और वहाँ एक कम्बल भी फैला दिया ।
फिर वे नीचे बैठने के लिए आसपास देखने लगे । थोड़ी देर तक वे 'मुआयना' करते जान पड़े । फिर उनकी निगाहें मुझ पर टिक गयीं । मैं मुस्कुराते हुए उठा, नमस्कार किया, तो वे खिल पड़े । हम दोनों थोड़ी देर तक औपचारिक बातें करते रहे । करीब दस मिनट बाद गाड़ी चली, तो हम सुकून से बातें करने लगे ।
"क्या नया लिख रहे हैं आजकल ?"
-उन्होंने पूछा ।
"नया?"
उन्होंने तो बस यूंही पूछा था, लेकिन उनके स्वर में ऐसा कुछ था, मानों एक चैलेन्ज, हो, चुनौती हो । हम साहित्यकारों को अक्सर यह भ्रम होता है कि हम कुछ नया लिखते हैं, लेकिन मैं सोच में पड़ गया ।
"अरे भाई, मेरा मतलब सिंपल है, मैंने आपकी वह कहानी पढ़ी थी, क्या वह 'नई' नहीं थी ? "
उन्होंने ही मुझे उबार भी लिया ।
"हाँ, थी भी, और नहीं भी थी । "
जहाँ तक मेरी जानकारी थी, वे स्थापित या विस्थापित आलोचक या समीक्षक आदि नहीं थे । बहरहाल मैं 'लेखक' ज़रूर था । इसलिए मैंने चर्चा को थोड़ा गंभीर मोड़ दे दिया । वह सोई हुई अभीप्सा दिल में करवटें बदलने लगी थी, जो उनसे मेरी पहली मुलाक़ात के लिए उनके घर तक खींच ले गयी थी ।
"ऐसा?"
-उन्होंने विस्मित होकर पूछा ।
"देखिये शैली की दृष्टि से वह 'नई' अवश्य थी, और इस दृष्टि से भी नई थी कि ... ... "
मैं सोच रहा था कि बात को कहाँ तक खींचना ठीक रहेगा । दर-असल मैं उन्हें 'नाप' रहा था । मैं अपने आपको लेखक तो मानता हूँ, लेकिन बुद्धिजीवी नहीं, और राजनीतिक व्यक्ति तो हरगिज़ नहीं मानता । वे इंतज़ार करते रहे । मुझे ही बोलना पड़ा । यह हिंदी साहित्य की कोई स्नातकोत्तर कक्षा या स्थापित / स्थापित होने के अभीप्सु उदीयमान साहित्यकारों की मजलिस भी नहीं थी, इसलिए मैं बहुत 'रिलैक्स्ड' फील कर रहा था ।
"देखिये कहानी के विकास का इतिहास देखें तो कहानी किस्सागोई से बढ़ते-बढ़ते कला, शिल्प, माध्यम, अभिव्यक्ति, आदि में ढलती चली गयी, उपदेशमूलक, या प्रेरणास्पद रूप में सामने आने लगी । इस सबको मैं 'नया'
नहीं मानता । "
वे सुन रहे थे ।
"बेताल-पच्चीसी , अलिफ़-लैला, कथा सरित्सागर, पुराण, बाइबिल, महाभारत और रामायण, से लेकर मंटो, इस्मत चुगताई, प्रेमचंद, चेखव, मुक्तिबोध, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा, रंगे राघव और दूसरे असंख्य कहानीकारों तक इतिहास का यह सफ़र एक दृष्टि से पुराना ही है । कहीं मनोरंजन, कहीं शिक्षा या उपदेश, कौतूहल, कला की विधा, इन सब प्रकारों में लेखक की 'प्रतिबद्धता' लगभग स्पष्ट देखी जा सकती है । "
-मैंने कहा ।
अब भी वे बस सुन रहे थे ।
"इस हिसाब से मेरी वह कहानी पुरानी ही तो थी ! "
"और 'नई' कैसे ?"
उन्होंने मुझे सहारा दिया ।
"मैंने जितने भी नाम लिए, उनमें से कुछ में आप यह देख सकते हैं कि लेखक कहानी लिखते समय पाठक का विचार या कल्पना तक करता हो ऐसा नहीं लगता । हालाँकि वह दुनिया से कट कर एकदम अकेला भी नहीं हो सकता, फिर भी इतना अकेला तो ज़रूर होता है कि अपनी ही स्मृति से, अपनी ही कल्पना से खेलता हुआ उत्साह्वाश एक 'नया' चित्र रच लेता है । उसका कोई उद्देश्य नहीं होता । जैसे गाना, नृत्य, या पेंटिंग में उसकी रचना-प्रक्रिया के दौरान कलाकार उस प्रक्रिया से एकाकार होता है, ज़रूरी नहीं कि उस समय वह दर्शक या श्रोता के बारे में कुछ सोच रहा हो । बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि श्रोता, दर्शक या कलाविधा के उद्देश्य का विचार तक भी उसकी रचना-प्रक्रिया की स्वाभाविक गति में खलल डाल सकता है । "
"तो ?"
उन्होंने मुझे फिर सहारा दिया । यदि वे चुप ही रह जाते तो मुझे शक होता कि वे शायद 'बोर' हो रहे होंगे । मेरी इस भावना को शायद वे भी भाँप चुके थे, और सिर्फ सभ्यतावश नहीं, बल्कि मुझे प्रोत्साहित करने के लिए इस छोटे से शब्द का उच्चार उन्होंने किया था ।
"तो इस दृष्टि से भी किसी कहानी को 'नई', या 'पुरानी', आदि रूपों में देखा जा सकता है । "
"और कविता के बारे में क्या कहेंगे ? "
"हाँ, कविता में भी तो यह होता है, क्योंकि हर कविता में कोई कहानी तो छिपी होती ही है, जबकि कहानी में कविता छिपी हो ऐसा ज़रूरी नहीं । "
'क्या वे सिर्फ सुनना चाहते थे ? ऐसा श्रोता तो नसीब से ही किसी लेखक को प्राप्त होता है !'
-मैं सोच रहा था ।
मैं कोशिश कर रहा था कि वे 'सक्रिय भागीदारी' करें, लेकिन वे 'संगत' करने से आगे नहीं बढ़ रहे थे । एक विचित्र भय मुझ पर हावी होने लगा । कहीं वे मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ा रहे हैं !
"कविता और कहानी में क्या समानता या फर्क होता है ?"
जब उन्होंने साहित्य के एक एक समझदार जिज्ञासु की भाँति पूछा तो मैंने राहत की साँस ली ।
"देखिये, इस पर तो काफी कुछ लिखा जा चुका है, अलग-अलग बहाने से, काफी लोगों ने इस पर चिंतन क्या है । "
"मैं तो एक आम पाठक के नज़रिए से पूछ रहा था । "
नहीं, वे मेरा मज़ाक नहीं उड़ा रहे थे , उनकी गंभीरता देखकर मुझे दिलासा मिला ।
"हाँ, यह तो विचारणीय प्रश्न है । "
-मेरे भीतर का साहित्यकार बोला ।
"आम पाठक सामान्यतया ज्ञान, मनोरंजन, खुशी पाने या कौतूहलवश, किसी भावदशा की तीव्रता को अधिक अच्छी तरह से 'जगाने', 'भोगने' अथवा 'जीने' के उद्देश्य से कविता, कहानी या कहें साहित्य को पढ़ता है । कभी-कभी वह उनमें अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का हल भी ढूँढता है, तो कभी-कभी तो वह इतने से ही संतुष्ट या प्रफुल्ल हो जाता है कि उसकी समस्या को, भावनाओं को स्पर्श प्राप्त हुआ, और वह स्वयं शायद ही इतने बेहतर ढंग से उन्हें व्यक्त कर पाता, जैसा कि साहित्यकार कर सका है । वह 'वाह-वाह' कह उठता है, और साहित्यकार इसे अपनी बड़ी कामयाबी समझ लेता है । "
"क्यों ?"
"क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, और साहित्यकार वह व्यक्ति है, जो दर्पण को भरसक कोशिश के ज़रिये स्वच्छ कर देता है, -चमका देता है । "
मैंने विनम्रता से कहा ।
"और इसलिए यह उसकी सफलता होती है !"
-वे बोले, उन्होंने कहा, या प्रश्न किया, मैं समझ नहीं सका ।
"हाँ, मैंने आत्मविश्वास से कहा । "
रात हो चुकी थी । उन्होंने अपने बैग से खाने का टिफिन निकाला, बोले -
"खाना खा लिया जाए !"
"हाँ-हाँ, ज़रूर !"
मैंने भी अपना टिफिन निकाला और हम दोनों ने आराम से एक बर्थ पर अखबार बीच में बिछाकर अपने-अपने टिफिन खोले । हाथ-मुँह धोकर आ डटे । ट्रेन में घर का बना खाना एक अजीब सुख देता है । लगता है जैसे किसी पिकनिक पर हों । अक्सर परांठे, पूरियाँ, अचार, चटनी, कोई सूखी सब्जी, आदि होता है । और अगर कोई दूसरा यात्री मिल जाये तो दोनों के लिए कोई न कोई 'सरप्राईज़' भी निकल ही आता है । सौभाग्य से लोग ट्रेन में शायद ही कभी नॉन-वेज लेकर चलते हों । हम दोनों ही इस मामले में एक ही रूचि रखते थे ।
सामने की बर्थ पर बैठी दो महिलाएँ भी हमारी ही तरह लगातार बातचीत में व्यस्त थीं , और उनके बाजू में बैठे दो बच्चे आपस में खेल रहे थे । उनसे हमें और हमसे उन्हें कोई मतलब नहीं था ।
कोई स्टेशन आनेवाला था । हमारा भोजन ख़त्म हो चुका था । स्टेशन आते ही नीचे जाकर पानी पिया और खाली शीशियों में भी भरकर रख लिया । अपनी-अपनी बर्थ पर खिडकियों के पास बैठ गए । अभी सामने की बर्थ्वाले ने आपत्ति भी नहीं की थी, कि उसे सोना है, या ऊपरी बर्थ खोलनी है ।
चर्चा को कोई दूसरा दौर होने में थोड़ा समय था । अभी सवा नौ बजे थे, एकाध घंटे उनसे चर्चा करने का प्रलोभन अभी भी मेरे मन में शेष था । ऐसा लगता था कि उनसे चर्चा करते-करते मन-मस्तिष्क की कई खिड़कियाँ खुलने लगीं थीं ।
"आप साहित्य के एक धीर-गंभीर, सुधी पाठक हैं, ऐसा कहने में न तो मुझे कोई संकोच है, और न मैं आपकी झूठी तारीफ़ ही कर रहा हूँ । "
-मैंने दूसरी 'इनिंग' की पहली गेंद फेंकी ।
"जी ?"
-वे खिड़की से बाहर देख रहे थे ।
बाहर काफी रौशनी थी । दूर-दराज़ की बस्तियों में खेतों, या छोटी-मोटी बसाहटों में सोडियम-लैम्प्स और वेपर-लैम्प्स भी रौशनी बिखेर रहे थे । पटरी से काफी दूर रोड से आती-जाती कारें, स्कूटर्स, मोटर-सायकिलें, ट्रक आदि एक अलग ही दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे , जैसा हमें शहर में कभी देखने को नहीं मिलता । उनकी आमने-सामने से आती -जाती 'हेड-लाइट्स' और उनमें गाड़ियों का 'कोलाज' सचमुच एक आधुनिक, अमूर्त कलाकृति दिखलाई दे रहा था । हवा साफ़ थी, धुँध या कोहरा, धूल या धुआँ भी नहीं था । ऐसा लगता था कि परदे पर बाएँ से दायें द्रिशावाली 'चल' रही हो । धरती और आकाश के बीच एक पट्टी पर चल रहा वह चल-चित्र बहुत धीरे-धीरे हमारी खिड़की से कोण बदल रहा था, और अब पेड़ों की ओट में ओझल हो चला था । कुछ ही पलों में खो जानेवाला था ।
ज़ाहिर है, उन्होंने सूना था, लेकिन अभी कुछ उत्तर देने की जल्दी उन्हें कतई नहीं थी । मैंने भी प्रश्न दुहराना उचित नहीं समझा । मैं इंतज़ार कर रहा था ।
"कॉलेज के दिनों में पढ़ने का रोग मुझे ज़रूर लग चुका था, लेकिन आप जानते ही होंगे कि वह कच्ची उम्र होती है । "
-वे बोले ।
वे धीरे-धीरे बोलते थे, कभी-कभी तो दो वाक्यों के बीच एक-दो मिनट का अंतर हो जाता था । यदि नया व्यक्ति उन्हें सावधानी से न सुने तो उनकी बात अधूरी रह सकती थी । और ऐसी ही स्थिति तब भी होती थी जब वे किसी दूसरे की बात सुन रहे होते । वे प्रतीक्षा करते, और जब उन्हें भरोसा हो जाता कि सामने वाला अपनी बात पूरी कर चुका है, तभ प्रत्युत्तर देने की कोशिश करते । ध्यान से सुनते थे, और वाचक के अगले वाक्य के इंतज़ार में पाँच मिनट भी धैर्य रख सकते थे ।
इस वाक्य के बाद भी वे थोड़ा रुके । लेकिन मुझे ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी ।
"पिताजी पढ़ने के शौक़ीन थे, और अक्सर हमें तरह-तरह की किताबें लाकर दिया करते थे ।
'किताबें जीवन से भागने के लिए नहीं होतीं । यदि तुम किताबों का इस्तेमाल ज़िंदगी से दूर भागने के एक साधन की तरह करते हो तो तुम दूसरों के साथ-साथ खुद को भी धोखा दे रहे होते हो । '
-वे हमसे कहा करते थे ।
उनकी बात तब हमें समझ में नहीं आती थी ।
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>>>>>>> उन दिनों -41. >>>>>>>
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'सर' से मेरी दूसरी मुलाक़ात करीब डेढ़ साल बाद हुई । तब मैं सरकारी काम से जबलपुर जा रहा था । स्टेशन पर आने पर जब 'रिज़र्वेशन-चार्ट' देख रहा था, तो मेरे नाम और टिकट-नंबर के बाद बहुत नीचे उनका नाम दिखलाई दिया । अचानक ऐसा लगा कि मैं जानता हूँ । फिर याद आया कि ये तो 'सर' ही होंगे । उनका 'रिज़र्वेशन' उस शहर से था जहाँ वे रहते थे, और जहाँ उनसे मेरी पहली मुलाक़ात विचित्र ढंग से हुई थी । उनका बर्थ-क्रमांक मेरे ही आसपास रहा होगा । खैर जब ट्रेन में बैठा, तो उनका शहर आने तक उनके ही बारे में सोचता रहा । मेरी बर्थ के ठीक साइड में, खिड़की से ऊपर उनकी बर्थ थी ।
जब वे आये, तो उनके साथ दो अन्य लोग भी थे, -उन्हें छोड़ने आये होंगे । वे तुरंत ही लौट गए थे । 'सर' ने अपनी सूट-केस अपनी बर्थ पर रखी, पानी की बोतल, एक छोटा बैग, और वहाँ एक कम्बल भी फैला दिया ।
फिर वे नीचे बैठने के लिए आसपास देखने लगे । थोड़ी देर तक वे 'मुआयना' करते जान पड़े । फिर उनकी निगाहें मुझ पर टिक गयीं । मैं मुस्कुराते हुए उठा, नमस्कार किया, तो वे खिल पड़े । हम दोनों थोड़ी देर तक औपचारिक बातें करते रहे । करीब दस मिनट बाद गाड़ी चली, तो हम सुकून से बातें करने लगे ।
"क्या नया लिख रहे हैं आजकल ?"
-उन्होंने पूछा ।
"नया?"
उन्होंने तो बस यूंही पूछा था, लेकिन उनके स्वर में ऐसा कुछ था, मानों एक चैलेन्ज, हो, चुनौती हो । हम साहित्यकारों को अक्सर यह भ्रम होता है कि हम कुछ नया लिखते हैं, लेकिन मैं सोच में पड़ गया ।
"अरे भाई, मेरा मतलब सिंपल है, मैंने आपकी वह कहानी पढ़ी थी, क्या वह 'नई' नहीं थी ? "
उन्होंने ही मुझे उबार भी लिया ।
"हाँ, थी भी, और नहीं भी थी । "
जहाँ तक मेरी जानकारी थी, वे स्थापित या विस्थापित आलोचक या समीक्षक आदि नहीं थे । बहरहाल मैं 'लेखक' ज़रूर था । इसलिए मैंने चर्चा को थोड़ा गंभीर मोड़ दे दिया । वह सोई हुई अभीप्सा दिल में करवटें बदलने लगी थी, जो उनसे मेरी पहली मुलाक़ात के लिए उनके घर तक खींच ले गयी थी ।
"ऐसा?"
-उन्होंने विस्मित होकर पूछा ।
"देखिये शैली की दृष्टि से वह 'नई' अवश्य थी, और इस दृष्टि से भी नई थी कि ... ... "
मैं सोच रहा था कि बात को कहाँ तक खींचना ठीक रहेगा । दर-असल मैं उन्हें 'नाप' रहा था । मैं अपने आपको लेखक तो मानता हूँ, लेकिन बुद्धिजीवी नहीं, और राजनीतिक व्यक्ति तो हरगिज़ नहीं मानता । वे इंतज़ार करते रहे । मुझे ही बोलना पड़ा । यह हिंदी साहित्य की कोई स्नातकोत्तर कक्षा या स्थापित / स्थापित होने के अभीप्सु उदीयमान साहित्यकारों की मजलिस भी नहीं थी, इसलिए मैं बहुत 'रिलैक्स्ड' फील कर रहा था ।
"देखिये कहानी के विकास का इतिहास देखें तो कहानी किस्सागोई से बढ़ते-बढ़ते कला, शिल्प, माध्यम, अभिव्यक्ति, आदि में ढलती चली गयी, उपदेशमूलक, या प्रेरणास्पद रूप में सामने आने लगी । इस सबको मैं 'नया'
नहीं मानता । "
वे सुन रहे थे ।
"बेताल-पच्चीसी , अलिफ़-लैला, कथा सरित्सागर, पुराण, बाइबिल, महाभारत और रामायण, से लेकर मंटो, इस्मत चुगताई, प्रेमचंद, चेखव, मुक्तिबोध, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा, रंगे राघव और दूसरे असंख्य कहानीकारों तक इतिहास का यह सफ़र एक दृष्टि से पुराना ही है । कहीं मनोरंजन, कहीं शिक्षा या उपदेश, कौतूहल, कला की विधा, इन सब प्रकारों में लेखक की 'प्रतिबद्धता' लगभग स्पष्ट देखी जा सकती है । "
-मैंने कहा ।
अब भी वे बस सुन रहे थे ।
"इस हिसाब से मेरी वह कहानी पुरानी ही तो थी ! "
"और 'नई' कैसे ?"
उन्होंने मुझे सहारा दिया ।
"मैंने जितने भी नाम लिए, उनमें से कुछ में आप यह देख सकते हैं कि लेखक कहानी लिखते समय पाठक का विचार या कल्पना तक करता हो ऐसा नहीं लगता । हालाँकि वह दुनिया से कट कर एकदम अकेला भी नहीं हो सकता, फिर भी इतना अकेला तो ज़रूर होता है कि अपनी ही स्मृति से, अपनी ही कल्पना से खेलता हुआ उत्साह्वाश एक 'नया' चित्र रच लेता है । उसका कोई उद्देश्य नहीं होता । जैसे गाना, नृत्य, या पेंटिंग में उसकी रचना-प्रक्रिया के दौरान कलाकार उस प्रक्रिया से एकाकार होता है, ज़रूरी नहीं कि उस समय वह दर्शक या श्रोता के बारे में कुछ सोच रहा हो । बल्कि मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि श्रोता, दर्शक या कलाविधा के उद्देश्य का विचार तक भी उसकी रचना-प्रक्रिया की स्वाभाविक गति में खलल डाल सकता है । "
"तो ?"
उन्होंने मुझे फिर सहारा दिया । यदि वे चुप ही रह जाते तो मुझे शक होता कि वे शायद 'बोर' हो रहे होंगे । मेरी इस भावना को शायद वे भी भाँप चुके थे, और सिर्फ सभ्यतावश नहीं, बल्कि मुझे प्रोत्साहित करने के लिए इस छोटे से शब्द का उच्चार उन्होंने किया था ।
"तो इस दृष्टि से भी किसी कहानी को 'नई', या 'पुरानी', आदि रूपों में देखा जा सकता है । "
"और कविता के बारे में क्या कहेंगे ? "
"हाँ, कविता में भी तो यह होता है, क्योंकि हर कविता में कोई कहानी तो छिपी होती ही है, जबकि कहानी में कविता छिपी हो ऐसा ज़रूरी नहीं । "
'क्या वे सिर्फ सुनना चाहते थे ? ऐसा श्रोता तो नसीब से ही किसी लेखक को प्राप्त होता है !'
-मैं सोच रहा था ।
मैं कोशिश कर रहा था कि वे 'सक्रिय भागीदारी' करें, लेकिन वे 'संगत' करने से आगे नहीं बढ़ रहे थे । एक विचित्र भय मुझ पर हावी होने लगा । कहीं वे मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ा रहे हैं !
"कविता और कहानी में क्या समानता या फर्क होता है ?"
जब उन्होंने साहित्य के एक एक समझदार जिज्ञासु की भाँति पूछा तो मैंने राहत की साँस ली ।
"देखिये, इस पर तो काफी कुछ लिखा जा चुका है, अलग-अलग बहाने से, काफी लोगों ने इस पर चिंतन क्या है । "
"मैं तो एक आम पाठक के नज़रिए से पूछ रहा था । "
नहीं, वे मेरा मज़ाक नहीं उड़ा रहे थे , उनकी गंभीरता देखकर मुझे दिलासा मिला ।
"हाँ, यह तो विचारणीय प्रश्न है । "
-मेरे भीतर का साहित्यकार बोला ।
"आम पाठक सामान्यतया ज्ञान, मनोरंजन, खुशी पाने या कौतूहलवश, किसी भावदशा की तीव्रता को अधिक अच्छी तरह से 'जगाने', 'भोगने' अथवा 'जीने' के उद्देश्य से कविता, कहानी या कहें साहित्य को पढ़ता है । कभी-कभी वह उनमें अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का हल भी ढूँढता है, तो कभी-कभी तो वह इतने से ही संतुष्ट या प्रफुल्ल हो जाता है कि उसकी समस्या को, भावनाओं को स्पर्श प्राप्त हुआ, और वह स्वयं शायद ही इतने बेहतर ढंग से उन्हें व्यक्त कर पाता, जैसा कि साहित्यकार कर सका है । वह 'वाह-वाह' कह उठता है, और साहित्यकार इसे अपनी बड़ी कामयाबी समझ लेता है । "
"क्यों ?"
"क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, और साहित्यकार वह व्यक्ति है, जो दर्पण को भरसक कोशिश के ज़रिये स्वच्छ कर देता है, -चमका देता है । "
मैंने विनम्रता से कहा ।
"और इसलिए यह उसकी सफलता होती है !"
-वे बोले, उन्होंने कहा, या प्रश्न किया, मैं समझ नहीं सका ।
"हाँ, मैंने आत्मविश्वास से कहा । "
रात हो चुकी थी । उन्होंने अपने बैग से खाने का टिफिन निकाला, बोले -
"खाना खा लिया जाए !"
"हाँ-हाँ, ज़रूर !"
मैंने भी अपना टिफिन निकाला और हम दोनों ने आराम से एक बर्थ पर अखबार बीच में बिछाकर अपने-अपने टिफिन खोले । हाथ-मुँह धोकर आ डटे । ट्रेन में घर का बना खाना एक अजीब सुख देता है । लगता है जैसे किसी पिकनिक पर हों । अक्सर परांठे, पूरियाँ, अचार, चटनी, कोई सूखी सब्जी, आदि होता है । और अगर कोई दूसरा यात्री मिल जाये तो दोनों के लिए कोई न कोई 'सरप्राईज़' भी निकल ही आता है । सौभाग्य से लोग ट्रेन में शायद ही कभी नॉन-वेज लेकर चलते हों । हम दोनों ही इस मामले में एक ही रूचि रखते थे ।
सामने की बर्थ पर बैठी दो महिलाएँ भी हमारी ही तरह लगातार बातचीत में व्यस्त थीं , और उनके बाजू में बैठे दो बच्चे आपस में खेल रहे थे । उनसे हमें और हमसे उन्हें कोई मतलब नहीं था ।
कोई स्टेशन आनेवाला था । हमारा भोजन ख़त्म हो चुका था । स्टेशन आते ही नीचे जाकर पानी पिया और खाली शीशियों में भी भरकर रख लिया । अपनी-अपनी बर्थ पर खिडकियों के पास बैठ गए । अभी सामने की बर्थ्वाले ने आपत्ति भी नहीं की थी, कि उसे सोना है, या ऊपरी बर्थ खोलनी है ।
चर्चा को कोई दूसरा दौर होने में थोड़ा समय था । अभी सवा नौ बजे थे, एकाध घंटे उनसे चर्चा करने का प्रलोभन अभी भी मेरे मन में शेष था । ऐसा लगता था कि उनसे चर्चा करते-करते मन-मस्तिष्क की कई खिड़कियाँ खुलने लगीं थीं ।
"आप साहित्य के एक धीर-गंभीर, सुधी पाठक हैं, ऐसा कहने में न तो मुझे कोई संकोच है, और न मैं आपकी झूठी तारीफ़ ही कर रहा हूँ । "
-मैंने दूसरी 'इनिंग' की पहली गेंद फेंकी ।
"जी ?"
-वे खिड़की से बाहर देख रहे थे ।
बाहर काफी रौशनी थी । दूर-दराज़ की बस्तियों में खेतों, या छोटी-मोटी बसाहटों में सोडियम-लैम्प्स और वेपर-लैम्प्स भी रौशनी बिखेर रहे थे । पटरी से काफी दूर रोड से आती-जाती कारें, स्कूटर्स, मोटर-सायकिलें, ट्रक आदि एक अलग ही दृश्य प्रस्तुत कर रहे थे , जैसा हमें शहर में कभी देखने को नहीं मिलता । उनकी आमने-सामने से आती -जाती 'हेड-लाइट्स' और उनमें गाड़ियों का 'कोलाज' सचमुच एक आधुनिक, अमूर्त कलाकृति दिखलाई दे रहा था । हवा साफ़ थी, धुँध या कोहरा, धूल या धुआँ भी नहीं था । ऐसा लगता था कि परदे पर बाएँ से दायें द्रिशावाली 'चल' रही हो । धरती और आकाश के बीच एक पट्टी पर चल रहा वह चल-चित्र बहुत धीरे-धीरे हमारी खिड़की से कोण बदल रहा था, और अब पेड़ों की ओट में ओझल हो चला था । कुछ ही पलों में खो जानेवाला था ।
ज़ाहिर है, उन्होंने सूना था, लेकिन अभी कुछ उत्तर देने की जल्दी उन्हें कतई नहीं थी । मैंने भी प्रश्न दुहराना उचित नहीं समझा । मैं इंतज़ार कर रहा था ।
"कॉलेज के दिनों में पढ़ने का रोग मुझे ज़रूर लग चुका था, लेकिन आप जानते ही होंगे कि वह कच्ची उम्र होती है । "
-वे बोले ।
वे धीरे-धीरे बोलते थे, कभी-कभी तो दो वाक्यों के बीच एक-दो मिनट का अंतर हो जाता था । यदि नया व्यक्ति उन्हें सावधानी से न सुने तो उनकी बात अधूरी रह सकती थी । और ऐसी ही स्थिति तब भी होती थी जब वे किसी दूसरे की बात सुन रहे होते । वे प्रतीक्षा करते, और जब उन्हें भरोसा हो जाता कि सामने वाला अपनी बात पूरी कर चुका है, तभ प्रत्युत्तर देने की कोशिश करते । ध्यान से सुनते थे, और वाचक के अगले वाक्य के इंतज़ार में पाँच मिनट भी धैर्य रख सकते थे ।
इस वाक्य के बाद भी वे थोड़ा रुके । लेकिन मुझे ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी ।
"पिताजी पढ़ने के शौक़ीन थे, और अक्सर हमें तरह-तरह की किताबें लाकर दिया करते थे ।
'किताबें जीवन से भागने के लिए नहीं होतीं । यदि तुम किताबों का इस्तेमाल ज़िंदगी से दूर भागने के एक साधन की तरह करते हो तो तुम दूसरों के साथ-साथ खुद को भी धोखा दे रहे होते हो । '
-वे हमसे कहा करते थे ।
उनकी बात तब हमें समझ में नहीं आती थी ।
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