February 27, 2009

श्री गणपति स्तोत्रं .





।। संकट-नाशन-गणेश-स्तोत्रं ।।

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकं ।

भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुष कामार्थ सिद्धये । । १ । ।

प्रथमं वक्र-तुंडं च एकदंतं द्वितीयकं ।

तृतीयं कृष्ण-पिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकं । । २ । ।

लम्बोदरं पंचमं च षष्टम विकटमेव च ।

सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टमं । । ३। ।

नवमं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकं ।

एकादशं भालचंद्रं द्वादशं तू गजाननं । । ४ । ।

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ।

च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो । । ५। ।

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनं ।

पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिं । । ६ । ।

जपेत् गणपति-स्तोत्रं षट्भिः मासैः फलं लभेत ।

संवत्सरेण सिद्धिं च लभेत् नात्र संशयः । । ७ । ।

अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् ।

तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः । । ८। ।

। । इति श्रीनारदपुराणे संकट-नाशन-गणेश स्तोत्रं । ।

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February 26, 2009

उन दिनों / 5.

"हमारे भाषागत अभ्यास और सुविधा के लिए भले ही हम पुनः पुनः 'मैं' या 'मेरा' पर लौटते रहते हैं, लेकिन यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारा पूरा व्यक्तित्व (या चेतना) इस मैं की छाया में गतिमान रहता है । यदि 'मैं' नहीं, तो क्या व्यक्तित्व का कोई आधार कहीं मिलता है ? इस प्रकार उस 'मैं' का एक संभावित रूप इस तरह से भी हो सकता है । क्या व्यक्तित्व 'मैं' की इस छाया के अभाव में भी कार्य कर सकता है ? किंतु जैसा कि हम देख चुके हैं, मन, बुद्धि, विचार, अनुमान आकलन और कुछ हद तक भावनाएं भी निरंतर इस 'मैं' से जुड़े प्रतीत होते हैं, -बल्कि हम बहुत आग्रहपूर्वक उन सबका 'अपना' या 'मेरा' होना मान्य भी करते हैं । इस प्रकार अनजाने ही हम यह भी कहना चाहते हैं कि वे मेरे / मेरा / मेरी / आदि हैं , और इसका एक तात्पर्य यह हुआ कि 'मैं' (जो भी कुछ होता हो) इन सबका स्वामी या मालिक है । अर्थात्, यह सब विचार, बुद्धि, भावनाएँ, संस्कार , कर्म, स्मृतियाँ, आदि 'मैं' नहीं । क्योंकि जो आज 'मेरा' है, वह किसी भी क्षण 'मेरा नहीं' या किसी और का हो सकता है । विचार, बुद्धि, भावनाएँ, संस्कार, कर्म, प्रवृत्तियाँ, स्मृतियाँ, संशय, इच्छाएँ, आदि निश्चित ही एक अस्थिर और निरंतर बदलते रहनेवाला समूह या समुच्चय ही तो है ! कोई दुर्घटना, ज़रूरत, बाध्यता, इनमें से किसी को भी विलुप्त कर सकती है । क्या इन सबके विलुप्त होने या बदलते रहने में उनमें विद्यमान किसी ऐसे तत्त्व का संकेत नहीं दिखलाई देता जो समय के साथ नहीं बदलता ? क्या वह तत्त्व ही 'मैं' का यथार्थ स्वरुप, 'वास्तविकता' है ? और उसे किस प्रकार 'जाना' जाता है ? क्या वह 'जानना' इन्द्रिय-ज्ञान या सूचनापरक ज्ञान (जानकारी) है ? बुद्धि, विचार, भावनाओं, शारीरिक भूख, प्यास, कष्ट, निद्रा,आदि का ज्ञान भी हमें होता है । क्या यह ज्ञान 'शब्द-गत' होता है ? भूख लगने पर भूख का बोध हमें जिस रीति से होता है, उसमें मूलतः क्या कोई 'जानकारी' होती है ? या वह महज़ एक शारीरिक प्रवृत्ति और उसके फलस्वरूप होनेवाली शारीरिक प्रतिक्रिया मात्र होती है ? और यदि उस गतिविधि को (भूख का) नाम न दें, तो क्या उसका होना रुक जाता है ? क्या उस गतिविधि में कहीं 'मैं' होता है ?
क्या ऐसा कहा जा सकता है कि 'मैं' एक कल्पित / अनुमानित वस्तु है, जिसका अनुमान मन / मस्तिष्क / विचार / बुद्धि करती है ?
जिस तरह से भूख का संशय-रहित बोध होता है, क्या हमें 'मैं' का वैसा बोध होता है ? तो फ़िर 'मैं' क्या है ? विचार,/ मन,/ मस्तिष्क,/ बुद्धि, को सातत्य में रखकर कहीं स्मृति ही तो इसे नहीं गढ़ लेती ? कहीं स्मृति ही तो इस 'स्वतंत्र' 'मैं' को निर्धारित / अनुमानित नहीं कर लेती ? क्या कहेंगे आप ?"
-वह इतना कहकर चुप हो गया । गेंद अब मेरे पाले में थी ।

February 23, 2009

उन दिनों / 4.

सामान्यतः मनुष्य अपने बोध को 'मेरी चेतना' कहता है । यह त्रुटि का प्रारंभ है । विचारणीय यह है कि जैसे हम अन्य वस्तुओं को 'मेरा' या 'अपना' कहते हैं, क्या उसी प्रकार से चेतना (consciousness) को 'मेरा' कहना तर्कसंगत है ? यदि आप चेतना शब्द को विचार, भावनाएँ, स्मृति, बुद्धि, संस्कार, आदि के लिए इस्तेमाल करते हैं, तो यह प्रश्न उठाता है कि उनसे पृथक् कोई 'मैं' यदि है, तो उसका स्वरुप क्या होगा ? अर्थात् उसका रंग-रूप, ताना-बाना, आकृति, आदि क्या है ? क्या 'जानना' ही 'मैं' नहीं है ?
लेकिन इस प्रश्न पर हम कभी आते ही नहीं । यदि विचार, मन, बुद्धि, भावनाओं, संस्कारों, स्मृतियों, आदि को 'अपना' या 'मेरा' कहनेवाली किसी वस्तु, या तत्व का अस्तित्त्व है, तो 'वह' किस प्रकार का अस्तित्त्व है ? ऐसी कोई वस्तु यदि सचमुच है, जैसे विचार, मन, बुद्धि, भावनाएँ, और स्मृति आदि हैं, यदि उसी प्रकार से इस 'मैं' का भी अस्तित्त्व है, तो वह वस्तु (मैं) क्या है ? मुझे नहीं मालूम कि मैं जो कह रहा हूँ, (या जो कहा जा रहा है !) उसका आशय आप तक सम्प्रेषित हो रहा है या नहीं । और यदि आप तक यह बात पहुँच रही है, अर्थात् यदि आप उसे ग्रहण कर पा रहे हैं, तो यह सवाल भी सरलता से आपके समक्ष भी वैसे ही आ खड़ा होगा, और आप इस प्रश्न की तीव्रता से चौंक जायेंगे । आपके भीतर यह सवाल भी उठेगा कि इस ओर आपका ध्यान पहले कभी क्यों नहीं गया ! और यदि मैं जो कहने का प्रयास कर रहा हूँ, यदि वह आप तक पहुँच सका है, तो आपको मेरी बात कोरा बौद्धिक प्रलाप कदापि नहीं लगेगी । वरना तो आप ज़रूर यही सोच रहे होंगे कि यह सब कहीं थोथा शब्द-जाल तो नहीं है !
तो इस ओर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि यह 'मैं' नामक वस्तु ( जो एक अमूर्त्त तत्त्व तो अवश्य ही है) वास्तव में किस प्रकार की बनावट वाली वस्तु है ? (यदि थोड़ा सा मज़ाक कर लें तो ) यह प्रश्न भी गंभीरता से किया जा सकता है, कि कहीं यह कोई बनावटी वस्तु तो नहीं है ? और यदि सचमुच यह एक अमूर्त्त बनावटी वस्तु है, तो भी इतनी ताकत से उभरकर हम पर हावी क्यों हो जाती है ?
इसे ही अब हम दूसरे-तीसरे ढंग से भी देखेंगे । दूसरा ढंग यह है कि क्या यह 'मैं' एक भावना, विचार, अनुमान, या निष्कर्ष है ?
हमारे हृदय, और मस्तिष्क की क्षमताओं , -जैसे कि बुद्धि, अनुमान,स्मृति, और विचार की क्रिया-प्रणाली किसी कम्प्यूटर की तरह से अपना काम स्वाभाविक रीति से करती है, लेकिन इनसे परे की कुछ चीज़ें जैसे भय, इच्छा, इस स्वाभाविक क्षमता (या इन स्वाभाविक क्षमताओं ) को भिन्न भिन्न प्रकार से प्रभावित करते हैं । शारीरिक सुरक्षा के लिए भय, अथवा इच्छा का होना तो प्राकृतिक व्यवस्था का ही हिस्सा है, जैसे भूख लगने पर भोजन पाने का प्रयास होना, ठण्ड लगने पर उससे बचने की कोशिश, शरीर को क्षति होने की संभावना दिखलाई देने पर उस संभावना को समाप्त करने का प्रयास आदि । उसी तरह से काम-वृत्ति भी शरीर की क्रिया-प्रणाली का एक अंग है ।
सवाल यह है कि इस सारे क्रम में 'मैं' नामक उस बनावटी, वास्तविक, काल्पनिक, या अनुमानित वस्तु की , उस अमूर्त्त तत्त्व की क्या भूमिका है ? क्या उस अमूर्त्त (भाववाचक) तत्त्व का शरीर में कोई विशेष स्थान या केन्द्र है ? क्या उसका शरीरगत कोई ऐसा विशेष केन्द्र है, जहाँ से वह तत्त्व अस्तित्त्व पाटा हो ? इसमें संदेह नहीं, कि यह सारा विमर्श बुद्धि, विचार, तर्क, स्मृति, और 'अभिव्यक्ति' नामक शक्तियों के प्रयोग से सम्भव हो रहा है ।

February 22, 2009

उन दिनों / 3.

"क्या यहाँ यह आवश्यक नहीं है कि इस वक्तव्य को पर्याप्त सावधानीपूर्वक विश्लेषित किया जाए ? " -मैंने प्रश्न उठाया ।
"हाँ", वह थोड़ा सा झेंप सा गया ।
"हाँ, और नहीं, वास्तव में यह एक वक्तव्य विमर्श का एक नया आयाम प्रशस्त करता है । " -उसने आगे कहा ।
"मैं यही सोच रहा था । " -मेरा प्रत्युत्तर ।
"लेकिन जब हम बोध-क्षमता , संवेदन-क्षमता, संवेदनशीलता, चेतना , अवबोध आदि के परिप्रेक्ष्य में बात करते हैं, तो संवेदन (perception) के तथ्य को किसी भी तर्क से अस्वीकृत नहीं किया जा सकता । 'perception' नामक अमूर्त तत्व, वस्तु, या घटना तो स्वयंसिद्ध, स्वतःप्रमाणित तथ्य है । इसका तो किसी काल या स्थान (देश-काल) में अभाव नहीं हो सकता । क्योंकि इसके अभाव में तो जीवन ही नहीं रहता । यदि रहता भी हो तो उसका क्या प्रमाण ? जो कहता है कि जीवन तो तब भी रहता है, उसे ही बतलाना होगा कि उस जीवन का क्या सवरूप, रंग-रूप, बनावट आदि है, और क्या वह अपना अस्तित्व घोषित करता है ? और यदि उसे नहीं जाना गया तो उसके अस्तित्व का क्या प्रमाण ? अतः 'जानना' तो जीवन का स्वरूपगत घटक है । हम कहें कि 'जानना' या 'पता चलना' या सामान्यतः consciousness का जो अर्थ किया जाता है उसके अभाव में, अभाव को तो जाना ही जाता है । 'जानना' स्वयं ही अपना प्रमाण है । 'कोई' 'जाननेवाला', वहाँ मौजूद होता है । अतः जो 'है', याने अस्तित्व-मात्र का एक घटक / आयाम है, -'जानना', और अस्तित्व भी अंततः और स्वाभाविक रूप से 'जानने' का एक घटक / आयाम है । अतः जो 'है', उसे दो दृष्टियों से समझा जा सकता है - पहला, 'Consciousness' is one aspect of 'Being'. और दूसरा, -'Being' is another aspect of 'Consciousness' । यहाँ 'Being' से मेरा तात्पर्य है, -जो भी 'है', -याने 'अस्ति', 'अस्तित्व', जिसका भी अस्तित्व है, वह । और 'Consciousness' से मेरा अभिप्राय है, -'acquaintance', याने बोध, 'पता चलना' ।
हालाँकि ये दोनों एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं, लेकिन इन्हें दो भिन्न चीज़ें समझा जाता है । 'जानने' को, ज्ञान का नाम दे दिया जाता है, व उसे मस्तिष्क से , शाब्दिक सूचनाओं से सम्बंधित किसी वस्तु की तरह देखा जाता है । जो 'है', वह तो निर्विवाद रूप से है ही । उसके मूल स्वरुप के बारे में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उसके 'होने' पर कौन संदेह कर सकता है ? तब कम से कम उस संदेहकर्ता का अस्तित्व है, यह तो मानना ही होगा । इस प्रकार 'यह है, / वह है, /मैं हूँ, / तुम हो, / आप हैं, /हम हैं,' आदि में 'होने' डीके ज्ञान तो सर्वनिष्ठ, आधारभूत तत्व होता ही है ।
समस्या तब होती है, जब मस्तिष्क-गत जानकारी, (जो स्मृति पर ही अवलंबित होती है) को 'ज्ञान' समझ लिया जाता है । यह जानकारी तो मस्तिष्क में बनी उस 'है' की भाषागत / शब्दगत प्रतिमाएँ मात्र होती हैं, जिसे हमने वस्तु (जो 'है') के विकल्प के रूप में चुना होता है ।
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February 21, 2009

उन दिनों / 2.

"मैं चाहता हूँ कि हम बोध-क्षमता (awareness), संवेदन-क्षमता (perceptivity), संवेदनशीलता (sensitivity), चेतना (consciousness), अवबोध (sensibility), आदि पर विस्तार से बातें करें ।"
"अभी हम मनुष्य के सन्दर्भ में इस पर बात करें तो कुछ आसानी होगी । "
"हाँ, ऐसा लगता है कि अपनेआपको हम मनुष्य के अधिक नज़दीक महसूस करते हैं । "
इन सारी चीज़ों में जिस बारे में सर्वाधिक सहमति हो सकती है, वह है -चेतना । मुझे जो कुछ भी पता चलता है उसे बोध-वृत्ति कहें तो हममें 'पता चलना' याने बोध-वृत्ति, दो तरह से कार्य करता है । पहला तो मुझे मेरी ज्ञानेन्द्रियों (त्वचा, आँखों, नाक, जीभ, कानों ) के माध्यम से कुछ पता चलता है, 'जिसे' पता चलता है, वह शरीर के भीतर ही कहीं स्थित है । 'जो' पता चलता है, वह मस्तिष्क और ह्रदय या शरीर में अन्यत्र 'कहीं' पता चलता है । उसे शब्द का आवरण न दें तो भी वह अनायास ही पता चलता रहता है । उस इन्द्रिय-गम्य वृत्ति-विशेष पर मेरा ध्यान कभी-कभी होता है, और कभी कभी नहीं भी होता । इस प्रकार का मेरा ध्यान एक समय में प्रायः एक ही संवेदन-विशेष में संलग्न रहता है । उदाहरण के लिए, यदि मैं कुछ पढ़ रहा होता हूँ, तो मेरा ध्यान या मेरे चित्त की स्वाभाविक एकाग्रता सामने दृष्टिगत होनेवाले अक्षरों-शब्दों आदि पर होती है । इस दौरान, मेरे ध्यान का एक अंश विभिन्न ध्वनियों पर भी होता है, लेकिन ध्यान का मुख्य अंश तो आँखों के माध्यम से पढ़ी जा रही सामग्री पर ही स्थिर रहता है ।
इसी समय यदि कोई ऐसी आवाज़ अचानक होती है, जो ध्यान की इस धारा में बाधा बन रही हो, तो मेरा ध्यान उन शब्दों, उनके तात्पर्य आदि से हटकर उस दिशा में चला जाता है, जहाँ से वह आवाज़ आ रही होती है । यदि उस आवाज़ से मेरे कार्य में खलल नहीं पड़ता, तो मेरा ध्यान पुनः पढ़ने में लग जाता है । जब मैं पढ़ता हूँ, तो एकाग्रता शब्दों / वाक्यों पर होती है । इसी प्रकार, यदि मैं आँखें बंद रखकर संगीत का आनंद ले रहा होता हूँ, तो मेरा ध्यान प्रमुखतः उस संगीत की विशिष्टताओं / बारीकियों पर लगा होता है । इन दोनों क्रियाओं में यह भी सम्भव है,(और प्रायः तो यह होता ही है) कि इसके साथ साथ मेरे मस्तिष्क में विचारों का भी कोई क्रम चल रहा हो । ये विचार निश्चित ही मेरी स्मृति से उठ रहे होते हैं, जो बात स्मृति में न हो, उसके बारे में विचार भी नहीं आ सकते । विचारों की जोड़-तोड़ से मैं कल्पना ज़रूर कर सकता हूँ, कि मैंने कुछ'नया' सोचा, पर वह 'नया' काल्पनिक ही होता है । कोई नया 'आइडिया' भी पुराने के ही विशिष्ट प्रतिफल के रूप में स्मृति से ही आया होता है, लेकिन चूँकि किसी दूसरे के मस्तिष्क में वह अभी तक नहीं आया होता, इसलिए मैं उसे 'नया' समझने लगता हूँ । किसी भी क्षण, किसी भी दूसरे मस्तिष्क में, इरर एंड ट्रायल या विचारों के मैनिपुलेशन से वह आ सकता है । अतः विचार (स्वरूपतः) कभी 'नया' नहीं हो सकता ।
इसी प्रकार,यह भी सम्भव है कि पुस्तक पढ़ते समय या संगीत सुनते समय मैं चाय या काफ़ी की चुस्कियाँ या सिगरेट के कश ले रहा होऊँ, तब मुझे जो 'लगता' है, उसमें मेरा ध्यान एक से अधिक 'विषयों' से जुडा होता है । और ध्यान की इस वृत्ति-विशेष में बंटाव हो जाता है । एकाग्रता दो-तीन में बँट जाती है । इस प्रकार मेरा चित्त, एक बहु-आयामी माध्यम है, जिसके द्वारा भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण किया जाता है । और जाहिर है कि 'मैं' और 'मेरा चित्त' एक ही वस्तु हैं । "

February 02, 2009

उन दिनों .-1.

उन दिनों - 1.
"तुम कुछ लिखते हो ?" -मैंने पूछा ।
"हाँ", पहले लिखता था, , शुरू में रिपोर्टिंग करता था, फ़िर आलोचनाएँ लिखने लगा, और बाद में कविताएँ, कहानियाँ आदि भी । "
"फ़िर उपन्यास नहीं ? -मैंने चुटकी ली ।
"हो-हो-हो- , वह हंसने लगा ।
थोड़ी देर तक हम चुप बैठे रहे ।सामने टेबल पर अखबार रखा हुआ था,जिस पर उसने अपने पैर फैला रखे थे, और वह बड़े आराम से बैठा था । मैं मुस्कुरा रहा था ।
"कुछ याद नहीं आता अखबार पर नज़र पड़ने पर ?" - मैंने कुरेदा ।
"हाँ, लेकिन कुछ ख़ास नहीं । उन दिनों हमारे यहाँ संगीत सभाएँ हुआ करती थीं , "पार्टीज़" । लड़के-लड़कियाँ डान्स किया करते थे । 'एक्सटेसी' का चलन था ।"
"अच्छा !"
"हाँ, सब सुखी थे । जीवन में उत्तेजनाएँ थीं । भारत था, हमारी संस्कृति का विस्तार हो रहा था । और हम युवा लोग तंत्र, योग और पूर्वी संस्कृति के रंगों में अपने आप को रंग रहे थे । 'मेडिटेशन' और 'पेरासायकोलोजी' हमें बहुत आकर्षित करता था । इसे हम विकास समझते थे ।"
जब वह काफी देर तक चुप ही बैठा रहा, तो मैंने उसे पुनः झकझोरा ,
"तो क्या वह विकास नहीं था ?"
"था । पर नहीं था । " - कहकर वह चुप हो गया ।
"क्यों ?"
"देखिये हमारी सारी उठापटक उसी दायरे में बँधी हुई थी , -"डिव्हिजिव" , बुद्धिपरक । "
"एनेलिटिकल" ?
"हाँ, फ़िर औरोबिन्दो थे ,उनका 'समन्वय-दर्शन' था, पर वह , ... " - उसने वाक्य को वहीं विराम दे दिया ।
"अच्छा, यह बताओ कि जब कहीं कुछ नहीं था, न ज़ेन , न ताओ, न स्पिरिचुअल हीलिंग, तो फ़िर वह क्या था जिसके पीछे तुम पागल थे ? "
"मीनिंग, परपज इन लाइफ, " -कहते हुए वह हँसने लगा ।
"तुम हँसे क्यों ? "
"स्पिरिचुअल हीलिंग को मैं स्पिरिचुअल व्हीलिंग कहा करता था उन दिनों , -सो याद आ गया । "
-उसने कारण बतलाया ।
" तो फ़िर टर्निंग-प्वाइंट कहाँ आया ?
"हमने महसूस किया कि समथिंग इज बेसिकली रोंग विथ अवर अप्रोच । जे कृष्णमूर्ति की बातें अपील होतीं थीं , लेकिन , ... " मौन उसकी सहज मुद्रा थी ।
"हम कविता के बारे में बात करें ?"
"जी । "
"कहाँ से शुरू करें ? "
"मुझे लगता है कि कविता मूलतः अनुभूति और अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । अनुभूति किसी जीवित अथवा चेतन-सत्ता में ही सम्भव होती है । जड़ या निर्जीव वस्तुएँ अनुभूति नहीं कर सकतीं । और अभिव्यक्ति करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । " मैं सुन रहा था । वह मुस्कुराने लगा ।
"आपने मेरी बात ऐसे ही मान ली ?" -उसने पूछा ।
"नहीं तो , मैं सुन रहा हूँ । " -मैंने उत्तर दिया ।
"वही तो ! मुझे यही उम्मीद थी कि आप असहमत होते हुए भी धैर्यपूर्वक सुनेंगे । लेकिन मैंने अभी-अभी जो कहा वह मेरी तब की समझ थी जब मैंने कुछ लिखना बस शुरू ही किया था । "
"फ़िर ?"
"अब मैं कह सकता हूँ कि जिन्हें मैं निर्जीव वस्तुएँ कहता हूँ उनकी अनुभूति-क्षमता के बारे में मैं अधिकारपूर्वक कुछ तय नहीं कर सकता । मेरे पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं है, कि उनमें अनुभूति-क्षमता नहीं होती । "
"क्यों ?"
"क्योंकि सजीव तथा निर्जीव के बीच विभाजन का कोई आधार कैसे तय किया जा सकता है ?"
"हम अनुभूति की बात कर रहे थे । " -मैंने दिशा बदली ।
"अनुभूति के लिए एक अन्तःकरण का होना भी आवश्यक होता है, अंतःकरण के अभाव में अनुभूति कैसे हो सकती है ? "
"और अंतःकरण तो किसी सजीव वस्तु में ही हो सकता है । "
"हम अंतःकरण किसे कहेंगे ?"
"अंतःकरण अर्थात् ह्रदय या मस्तिष्क की वह क्षमता जिससे अपने आसपास की अन्य वस्तुओं के बारे में कोई कल्पना या विचार ग्रहण किया जाता है । यह विचार शब्दगत भी हो सकता है , भावगत या अमूर्त भी हो सकता है । यह किसी स्मृति अथवा चित्र के रूप में भी अंतःकरण में संचित / दर्ज हो सकता है । तब इसे अनुभूति कहेंगे । "
"क्या बोध-क्षमता अर्थात् अवेयरनेस और अनुभूति-क्षमता एक ही वस्तु हैं ?"
"ज़ाहिर है कि वे दोनों बहुत अलग-अलग चीजें हैं । अनुभूति के लिए बोध-क्षमता होना जरूरी होता है, बोध-क्षमता न हो तो अनुभूति होने की कोई संभावना नहीं रह जाती , लेकिन अनुभूति न हो तो भी बोध-क्षमता अबाध रूप से बनी रह सकती होगी । "
"और ?"
"अनुभूति आने-जानेवाली वस्तु है , जो बोध-क्षमता के होने पर ही अस्तित्व में आती और मिटती रहती है । "
"और ?"
"दूसरी तरफ़ बोध-क्षमता एक स्वाभाविक वस्तु है , मेरा मतलब यह है कि वह एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता है जो अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं होती । "
" क्या इस बोध-क्षमता को जागृत किया जा सकता है ?"
"नहीं । "
"फ़िर ?"
"इसका आविष्कार ज़रूर हो सकता है । "
"मतलब ? "
"यह कोई आने-जानेवाली , प्रकट या विलुप्त होनेवाली चीज़ तो नहीं है । लेकिन यह है ,-बस है भर । "हाँ यदि कोई इसके प्रति गंभीर और उत्कंठित हो तो इसकी स्वाभाविक पूर्व-अवस्थिति के प्रति जागृत हो सकता है, उससे अवगत हो सकता है । "
"कोई," मतलब ? -मैंने पूछा ।
" मन, कोई अंतःकरण , कोई चेतना । "
"और 'विचार' ?"
"विचार, जैसा कि मैंने कहा , अनुभूति है । विचार को भी दो रूपों में समझा जा सकता है, -एक तो वह जो अभिव्यक्ति या भाषागत शब्द-विन्यास के रूप में हुआ करता है, -वह किसी तात्पर्य को इंगित तो करता है लेकिन वह 'बोध-क्षमता' नहीं होता । दूसरी ओर बोध-क्षमता के प्रकाश में देखे गए सत्य को प्रकट करने के लिए भी किसी शब्द-विन्यास का इस्तेमाल किया जा सकता है और इस विचार को सार्थक होने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ होती है, - सम्प्रेषनीयता । "
"लेकिन सम्प्रेषनीयता तो अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने और किसी दूसरे मनुष्य की अभिव्यक्ति को यथावत ग्रहण करने के लिए भी उतनी ही ज़रूरी चीज़ होती है ! "
"हाँ, होती तो है , लेकिन इसे मैं एक उदाहरण के द्वारा समझाना चाहूंगा । क्या आपको कभी मेरी याद आती है ?"
"हाँ, कभी-कभी आती है ।"
"कभी-कभी क्यों?"
"जैसे अन्य लोगों की , घटनाओं की, वस्तुओं, स्थितियों, आदि की याद कभी-कभी आया करती है, उसी तरह से । "
"अच्छा, आप मेरे बारे में सोचते हैं ?"
"हाँ, ज़रूर सोचता हूँ । " -मैं मुस्कुराने लगा था । "
"ग़लत ! आप मेरे बारे में कभी कुछ नहीं सोचते, और सच तो यह है कि मैं भी आपके बारे में कभी भी बिल्कुल नहीं सोचता । "
मैं मौन हो गया था उसकी इस बात पर । वह भी मौन था ।
"आगे कहो ! " -मैंने क्रम को आगे बढाया ।
"पहले यह बतलाइये कि मेरे वक्तव्य से आप सहमत हैं या असहमत हैं ?"
"सहमत हूँ, सौ फीसदी । "
"ठीक है , अर्थात् आप मेरे बारे में नहीं, बल्कि मेरे विषय में आपके पास जो जानकारी , कल्पनाएँ आदि हैं, और उनके माध्यम से आपने मेरी जो 'प्रतिमा' बनाई है , उस प्रतिमा के बारे में सोचते हैं । और इसी प्रकार हम सभी एक-दूसरे की स्मृतियों, कल्पनाओं,आदि से बनी एक-दूसरे की प्रतिमा के बारे में अनुमान करते हैं, उन प्रतिमाओं को निरंतर बदलते, संशोधित करते रहते हैं । "
" ठीक है, और सम्प्रेषनीयता के बारे में क्या कहोगे ? " -मैंने प्रश्न किया ।
"तात्पर्य यह हुआ कि किन्हीं भी दो मनुष्यों की अनुभूतियों , विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, आदि से उनके द्वारा निर्मित की गयी जगात्प्रतिमाएं एक दूसरे से काफी भिन्न होती हैं । "
"ठीक है । "
"अतः अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस शैली, विन्यास, माध्यम आदि से की जा रही है, और उसे जिस शैली, विन्यास, और माध्यम में ग्रहण किया जा रहा होता है, यदि उनमें समरूपता नहीं है, तो सम्प्रेषनीयता बाधित होती है । "
अब 'कविता' के बारे में कुछ बातें करने हेतु आधार तैयार हो चुका था ।
"कविता, जैसा कि मुझे लगता है, अनुभूति एवं अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । "
"क्या कविता के लिए कोई श्रोता या पाठक हो, यह ज़रूरी होता है ?"
"मुझे लगता है कि वैसे तो कविता अपने-आप में ही एक अद्भुत सृष्टि होती है, -जैसे किसी बहुत विस्तीर्ण सरोवर में खिला हुआ एक कमल-पुष्प होता है । वह किसी प्रशंसक की प्रशंसा का मोहताज़ नहीं हुआ करता , लेकिन यदि प्रशंसक सौन्दर्य की परख रखता है, तो अवश्य ही उस पुष्प से उसका संवाद स्थापित हो जायेगा । "
"शायद इसे ही सम्प्रेषनीयता कहेंगे !"
"जी । "
"अब हम कथ्य पर आयें । "
"कविता में कथ्य तो होता ही है, कथा न भी हो तो भी चलेगा ,लेकिन कथ्य का होना तो अपरिहार्य ही होता है । उसके अभाव में तथ्य अनुभूति तक सिमटकर रह जाएगा । "
"और कथ्य ?"
"हाँ, कथ्य के ही बारे में कह रहा हूँ । कथ्य ही अभिव्यक्ति की शैली, विन्यास माध्यम, अर्थ आदि तय करेगा । "
"जैसे ?"
"जैसे अपनी अनुभूति को मैंने मान लीजिये कि एक कविता के रूप में प्रस्तुत किया तो मेरी अनुभूति की विशेषताओं के अनुसार वह गहन, या उथली, स्तरीय या अधकचरी बन जायेगी । इसलिए जैसा कि मैंने कहा कविता तो स्वयं में एक अद्भुत सृष्टि होती है पर तब वह सिर्फ़ मेरे लिए ही अद्भुत होगी । और, कोई वस्तु अकेली ही अद्भुत नहीं हो सकती, उसे अद्भुत समझनेवाला , कहनेवाला कोई होता है, तभी वह अद्भुत हो सकती है । "
"इसे दूसरे उदाहरण से समझाओ । "
"एक पेंटिंग का उदाहरण देखें । चित्रकार अपने द्वारा तय प्रतिमानों आदि से पेंटिंग का विशिष्ट भाव (थीम), और प्रभाव सुनिश्चित करता है । एक रेखा या बिन्दु का विन्यास, रंग का शेड, या माध्यम, जल-तैल , या कोई अन्य, एक्रिलिक, या ऑइल, आदि यह तय करता है कि वह पेंटिंग में जो कुछ अभिव्यक्त करना चाह रहा था, वह किस हद तक वैसा हो सका है । यहाँ तक कि कैनवास का आकार भी महत्वपूर्ण होता है। उसे किस समय और किस प्रकाश में देखा जाए यह भी महत्वपूर्ण हो सकता है ! लेकिन यदि सम्प्रेषनीयता नहीं है, तो वह पेंटिंग चित्रकार की दृष्टि में भले ही अद्भुत हो, अद्भुत प्रमाणित नही हो सकेगी । "
"लेकिन फ़िर भी वह स्वान्तः-सुखाय तो हो ही सकती है । "
"हाँ, कवि या कलाकार अपनी सृष्टि को अपनी कल्पना की सर्वोत्तम प्रस्तुति के रूप में देखकर एक आत्मसंतुष्टि ज़रूर अनुभव कर सकता है । "
"अभी हमें इस बारे में बहुत सी बातें करनी थीं , मसलन, समयगत और समय से अछूती कविता, कविता और बौद्धिकता, कविता और यथार्थवाद, कविता और आदर्शवाद, कविता और प्रतिबद्धता इत्यादि - इत्यादि । **********************************************************************************