September 30, 2023

जीते रहने में!

कविता 30-09-2023

--

न जीते रहने में राहत है,

न मर जाने की चाहत है,

उलझन में, कशमकश में,

हृदय-मन दोनों आहत हैं।

कोई क्यों पूछे मुझसे,

किसे मैंने कभी पूछा,

किसी का हक मुझ पर क्या,

किसी पर मेरा क्या हक है?

लिखते रहना, पढ़ते रहना,

कहते रहना, सुनते रहना,

निहायत ग़ैर मौजूँ है,

शग़ल ये शौक नाहक है।

समझने की नहीं हैं ये,

न समझाने की ये बातें हैं,

उचटी हुई नींद में जैसे,

पागलपन की बातें हैं!

*** 




 


September 24, 2023

प्रश्न Question 42

Next to Question 41.

पिछले पोस्ट से आगे  --

प्रश्न 42 : यदि व्यक्तिगत भाग्य या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की अवधारणा ही त्रुटिपूर्ण है तो इसी प्रकार क्या भाग्य और स्वतन्त्रता के व्यक्तिगत होने का विचार भी उतना ही त्रुटिपूर्ण नहीं है?

"स्वतन्त्रता" अर्थात् "मुक्ति"!

बहुत पहले किसी ने पूछा था :

"मुक्ति" व्यक्तिगत नहीं हो सकती है, तो क्या सामूहिक होती होगी?

एक अनुमान से दूसरे और दूसरे से तीसरे अनुमान तक पहुँचना पलक झपकते हो जाता है। वास्तव में पलक का झपकना ही इस तथ्य से ध्यान हटा देता है कि विचार के ही सहारे विचार की सत्ता / यात्रा सातत्य है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत भाग्य के बारे में विचार प्रारंभ होते ही 'व्यक्ति' स्वयं भी विचारमात्र है, इस वास्तविकता पर से 'ध्यान' attention हट जाता है। जबकि 'ध्यान' / attention एक नित्य, स्वप्रमाणित, शाश्वत, सनातन और अकाट्य वास्तविकता है, जिसका, विचार के होने या न होने से कोई संबंध नहीं है। वास्तविकता का किसी विचारजनित 'काल' या 'समय' से भी कोई संबंध कैसे हो सकता है? विचार के अभाव में 'काल' या 'समय' के विषय में क्या कहा जा सकता है?

विचार का आगमन कहाँ से होता है, मनुष्य के लिए यह जान पाना तक बहुत कठिन है। प्रायः हर कोई यह दावा करता है कि यह उसके अपने विचार हैं। और कुछ समय बाद उसके विचार बदलने पर उन विचारों के भी उसके अपने होने का दावा वह किया करता है। जाहिर है कि कोई भी विचार किसी का न तो होता है, न हो सकता है।फिर भी विचारों के इस अराजक और अनियंत्रित क्रम में जो भी विचार उसके चेतन मन  (conscious mind) क4 सतह पर सबसे ऊपर होता है, उसे ही 'अपना' मान लिया जाता है। इस तरह तमाम विचारों के प्रवाह के बीच 'अपने उनसे स्वतंत्र' कुछ होने की धारणा अस्तित्व में आ जाती है। मजेदार सच्चाई यह है, कि 'अपने स्वतंत्र होने का यह आभास' विचारों के क्रम पर आधारित अनुमान ही तो होता है, जिसकी सत्यता किसी भी तरह से कभी  प्रमाणित नहीं हो सकती है। और फिर भी, यह भी एक  अकाट्य सत्य है कि विचार के अभाव में भी चेतना की विद्यमानता के रूप में हर किसी को अपने होने का बोध अनायास ही प्राप्त होता है, जो 'अनुभव' नहीं, 'अनुभव से भिन्न' एक वास्तविकता है। 'अनुभव होने' में, एक तो अनुभव का वह विषय होता है जिसका 'बोध' चेतना में होते ही उसे 'अनुभव' का 'विषय' मान लिया जाता है, और अपनी उस निर्वैयक्तिक चेतना को 'अनुभवकर्ता' होने की मान्यता प्राप्त हो जाती है। 

स्पष्ट है कि ऐसा प्रत्येक ही 'अनुभव' चेतना की पृष्ठभूमि में घटित होते ही 'अनुभव' अनायास ही जड विषय और उस चेतन 'अनुभवकर्ता' (विचार) में विभाजित हो जाता है, या होता हुआ प्रतीत होता है।

स्मृति ऐसे ही अनेक 'अनुभवों' और उनके अनेक और परस्पर भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले 'अनुभवकर्ताओं' के बीच चेतना के अखंड होने के तथ्य को पहले तो अनेक 'अनुभवकर्ताओं' के रूप में, और बाद में 'अपने' एक स्वतंत्र व्यक्ति / विचारकर्ता होने की मिथ्या धारणा में स्थापित / रूपान्तरित कर देती है। स्मृति स्वयं भी मूलतः तो एक यान्त्रिक कार्य और कार्यप्रणाली ही तो होती है।  

अतः इस प्रकार, चूँकि व्यक्ति की (यह आभासी) सत्ता ही विचार की स्मृति / और स्मृति के विचार पर आधारित एक कल्पना मात्र है तो भाग्य या स्वतन्त्रता का प्रश्न ही कहाँ है? व्यक्तिगत या सामूहिक भाग्य या स्वतन्त्रता का विचार भी इसीलिए अप्रासंगिक है। अब रही "मुक्ति", तो वह सामूहिक या व्यक्तिगत होने का प्रश्न ही हास्यास्पद है। मेघों का होना या न होना आकाश की वास्तविकता को प्रभावित नहीं करता। और आकाश के लिए भी अपने होने या न होने की घोषणा करने का कोई महत्व जरूरत या अर्थ नहीं है। जब मेघ विलुप्त हो चुके होते हैं तब उनके भी होने या न होने का प्रश्न नहीं रह जाता।

***


September 22, 2023

प्रश्न Question 41

Self-knowledge and Self-Awareness

--

आत्मज्ञान और  आत्म-साक्षात्कार

का क्या महत्व है?

यह पोस्ट सीधे ही 'उसके नोट्स' से ही यथावत् उद्धृत है।

"तो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत भाग्य जैसा कुछ कहीं नहीं होता। उस पत्थर फेंकनेवाले ने एक काम तो यह किया, या कहें कि उसके माध्यम से हुआ कि उसने न जाने किस प्रेरणा या शक्ति के दबाव में मूलतः अंग्रेजी और मराठी भाषा में प्रस्तुत एक पुस्तक :

 I AM THAT  सुखसंवाद

का अनुवाद हिन्दी भाषा में कर दिया, जिसे

चेतना, मुम्बई ने :

अहं ब्रह्मास्मि 

शीर्षक से प्रकाशित कर दिया।

उक्त पुस्तक की भूमिका या परिशिष्ट में कहीं यह उल्लेख है कि जब तक कोई भी मनुष्य आत्म-साक्षात्कार क्या है, इसे नहीं जान लेता तब तक वह उन अनेक, अज्ञात शक्तियों के हाथों में एक खिलौना ही होता है जो सतत उसे परिचालित करती रहती हैं और वह चाहे जितना भी प्रयास क्यों न कर ले, उन शक्तियों को स्वरूपतः कभी नहीं जान सकता, तब तक उसे उसके जीवन में कभी शान्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।

वह कभी नहीं जान सकता है कि क्या कहीं कोई ईश्वर है या नहीं, जो उसे शुभ अशुभ कर्मों को करने की प्रेरणा और उन कर्मों का शुभ अशुभ फल देता हो।

यद्यपि वह उन शक्तियों को "देवता" के रूप में मानकर उनकी उपासना और उनसे विभिन्न अभीप्सित वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए प्रार्थना भी कर सकता है, किन्तु उसे यह कभी नहीं पता चल सकता है कि उसे उनसे जो कुछ प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है वह उसकी उपासना का फल है या उसका कोई दूसरा कारण है, या यह भी, कि क्या कर्म और उसके फल के बीच कोई संबंध होता भी है कि नहीं।

हाँ, श्रीमद्भगवद्गीता में भी अध्याय पाँच के  कुछ श्लोकों 14, 15, 16, 17 में यही सब तो कहा गया है! 

तो फिर मनुष्य किस प्रकार से स्वतन्त्र है! 

प्रत्येक ही मनुष्य इसके लिए सदैव ही स्वतन्त्र है कि वह आत्मा के स्वरूप का अनुसन्धान कर आत्म-साक्षात्कार कर ले।

***

 



September 21, 2023

मिच्छामि दुक्कडम्

मिथ्या मे दुष्तकृतम् 

--

संवत्सरीय जैन सनातन धर्म की परंपरा के अनुसार उक्त वचन / निवेदन संपूर्ण अस्तित्व के समस्त भूतों के प्रति व्यक्त किए जानेवाले उद्गार हैं। इसे ही क्षमापन भी कहा जाता है। तात्पर्य यह कि हम किसी के भी प्रति वैरभाव न करें। क्योंकि वैरभाव ही हिंसा का एकमात्र कारण है।  वैरभाव अर्थात् द्वेषबुद्धि। ईर्ष्या भी, द्वेष का ही पर्याय है। ईर्ष्या का अर्थ है दूसरे की उन्नति से डाह करना, जबकि द्वेष का अर्थ है दूसरे से स्पर्धा करना।

उपनिषद् का शान्तिपाठ है :

सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

इसका भी यही आशय है कि हम / कोई भी किसी से भी द्वेष न करें। प्रमादवश भी हमसे किसी के प्रति ऐसा कोई अपराध, त्रुटि या कृत्य घटित हो जाता है तो उसके लिए हम न केवल उससे क्षमा माँग लें, बल्कि यदि उसके द्वारा हमारे प्रति कोई ऐसा कृत्य जाने अनजाने भी किया गया हो तो हम उसे क्षमा कर दें, उससे इसका प्रतिशोध लेने का विचार तक न करें।

पातञ्जल योगसूत्र के अनुसार जिसके हृदय में किसी के भी प्रति वैरभाव नहीं होता उसे अहिंसा की सिद्धि प्राप्त हो जाती है और उसके समीप आनेवाले हिंसक प्राणियों का परस्पर स्वाभाविक वैरभाव भी शान्त हो जाता है।

***

September 11, 2023

दक्षपुत्री अदिति

 Question   41  प्रश्न ४१

How Life came into Existence?

प्रश्न : "जीवन" का उद्गम कैसे हुआ? 

Answer उत्तर :

We are living in the age of expertise : दक्षता / दक्षयुग. 

This is what the humans could achieve  excellence through progress in the many fields of knowledge like the Mathematics, Science and the Technology.

अदिति, दक्षपुत्री भगवान् शिव की उपासना स्वामी अर्थात् पति के रूप में करती थी। तब देवताओं का जन्म नहीं हुआ था। इसलिए आधिदैविक अस्तित्व का देवलोक भी निष्प्राण और निर्जीवप्राय ही था। 

(स्पष्ट है कि जन्म और मृत्यु के नियन्ता यम अर्थात् काल नामक देवता का जन्म भी तब नहीं हुआ था। अतः प्रस्तुत कथा में 'उस समय का वर्णन' केवल औपचारिक और प्रयोजनपरक है। महाकाल अर्थात् भगवान् शिव शाश्वत, सनातन और नित्य-अनित्य इन तीनों रूपों में व्यक्त और अव्यक्त हैं। व्यक्त को ही लक्षण अथवा लिङ्ग कहा जाता है। अव्यक्त तो भगवान् शिव का वह स्वरूप है जिसे कि परम धाम कहते हैं और जिसका संकेत :

आब्रह्मास्तम्बपर्यन्तः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 

से श्रीमद्भगवद्गीता में पाया जाता है।)

दक्षकन्या का योगाग्नि में प्रवेश करना और उसका शिला / शैलपुत्री के रूप में हिमालय की पुत्री के रूप में प्रकट (manifest) होना।

शैलपुत्री उमा का भगवान् शिव को ही स्वामी अर्थात् पति के रूप में प्राप्त करने की कामना से तप करना और तब उससे पञ्चमहाभूतों का उद्भव / प्राकट्य / manifestation होना। 

शैलपुत्री उमा ही जो दक्षपुत्री अदिति के रूप में इन्द्र, अग्नि, वायु, जल, आदि देवताओं की और अदिति की बहन दिति के रूप में दैत्यों की भी माता है।

उमा के रूप में तपस्या करते हुए उसने पहले अन्न को और फिर जल ग्रहण करना तक छोड़ दिया।

तब तृण के रूप में शिला से जीवन प्रकट हुआ।

इसलिए उमा का एक नाम अपर्णा हुआ। अपर्णा के द्वारा तप किए जाने पर उसे निर्जला व्रत की प्राप्ति हुई तो उसे वरदान मिला कि अब तुम्हीं गौ के रूप में प्रत्यक्ष ही जीवन होगी। गौ ने तृण का सेवन करना प्रारंभ किया।

अदिति से देवताओं में जीवन का संचार हुआ, अतः उसे देवताओं की माता या स्कन्दमाता कहा गया। वैष्णवी नाम उसे विष्णु की माता होने से मिला और ब्रह्मस्वरूपा होने से उसे ब्रह्मचारिणी की संज्ञा प्राप्त हुई। 

तृण से अन्न हुआ, फिर अन्न से स्थूल भूतों का उद्भव हुआ :

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।१४।।

(अध्याय ३)

इस प्रकार "जीवन" व्यक्त रूप में प्रकट हुआ।

***