मिथ्या मे दुष्तकृतम्
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संवत्सरीय जैन सनातन धर्म की परंपरा के अनुसार उक्त वचन / निवेदन संपूर्ण अस्तित्व के समस्त भूतों के प्रति व्यक्त किए जानेवाले उद्गार हैं। इसे ही क्षमापन भी कहा जाता है। तात्पर्य यह कि हम किसी के भी प्रति वैरभाव न करें। क्योंकि वैरभाव ही हिंसा का एकमात्र कारण है। वैरभाव अर्थात् द्वेषबुद्धि। ईर्ष्या भी, द्वेष का ही पर्याय है। ईर्ष्या का अर्थ है दूसरे की उन्नति से डाह करना, जबकि द्वेष का अर्थ है दूसरे से स्पर्धा करना।
उपनिषद् का शान्तिपाठ है :
सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।
इसका भी यही आशय है कि हम / कोई भी किसी से भी द्वेष न करें। प्रमादवश भी हमसे किसी के प्रति ऐसा कोई अपराध, त्रुटि या कृत्य घटित हो जाता है तो उसके लिए हम न केवल उससे क्षमा माँग लें, बल्कि यदि उसके द्वारा हमारे प्रति कोई ऐसा कृत्य जाने अनजाने भी किया गया हो तो हम उसे क्षमा कर दें, उससे इसका प्रतिशोध लेने का विचार तक न करें।
पातञ्जल योगसूत्र के अनुसार जिसके हृदय में किसी के भी प्रति वैरभाव नहीं होता उसे अहिंसा की सिद्धि प्राप्त हो जाती है और उसके समीप आनेवाले हिंसक प्राणियों का परस्पर स्वाभाविक वैरभाव भी शान्त हो जाता है।
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