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प्रश्न 42 : यदि व्यक्तिगत भाग्य या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की अवधारणा ही त्रुटिपूर्ण है तो इसी प्रकार क्या भाग्य और स्वतन्त्रता के व्यक्तिगत होने का विचार भी उतना ही त्रुटिपूर्ण नहीं है?
"स्वतन्त्रता" अर्थात् "मुक्ति"!
बहुत पहले किसी ने पूछा था :
"मुक्ति" व्यक्तिगत नहीं हो सकती है, तो क्या सामूहिक होती होगी?
एक अनुमान से दूसरे और दूसरे से तीसरे अनुमान तक पहुँचना पलक झपकते हो जाता है। वास्तव में पलक का झपकना ही इस तथ्य से ध्यान हटा देता है कि विचार के ही सहारे विचार की सत्ता / यात्रा सातत्य है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और व्यक्तिगत भाग्य के बारे में विचार प्रारंभ होते ही 'व्यक्ति' स्वयं भी विचारमात्र है, इस वास्तविकता पर से 'ध्यान' attention हट जाता है। जबकि 'ध्यान' / attention एक नित्य, स्वप्रमाणित, शाश्वत, सनातन और अकाट्य वास्तविकता है, जिसका, विचार के होने या न होने से कोई संबंध नहीं है। वास्तविकता का किसी विचारजनित 'काल' या 'समय' से भी कोई संबंध कैसे हो सकता है? विचार के अभाव में 'काल' या 'समय' के विषय में क्या कहा जा सकता है?
विचार का आगमन कहाँ से होता है, मनुष्य के लिए यह जान पाना तक बहुत कठिन है। प्रायः हर कोई यह दावा करता है कि यह उसके अपने विचार हैं। और कुछ समय बाद उसके विचार बदलने पर उन विचारों के भी उसके अपने होने का दावा वह किया करता है। जाहिर है कि कोई भी विचार किसी का न तो होता है, न हो सकता है।फिर भी विचारों के इस अराजक और अनियंत्रित क्रम में जो भी विचार उसके चेतन मन (conscious mind) क4 सतह पर सबसे ऊपर होता है, उसे ही 'अपना' मान लिया जाता है। इस तरह तमाम विचारों के प्रवाह के बीच 'अपने उनसे स्वतंत्र' कुछ होने की धारणा अस्तित्व में आ जाती है। मजेदार सच्चाई यह है, कि 'अपने स्वतंत्र होने का यह आभास' विचारों के क्रम पर आधारित अनुमान ही तो होता है, जिसकी सत्यता किसी भी तरह से कभी प्रमाणित नहीं हो सकती है। और फिर भी, यह भी एक अकाट्य सत्य है कि विचार के अभाव में भी चेतना की विद्यमानता के रूप में हर किसी को अपने होने का बोध अनायास ही प्राप्त होता है, जो 'अनुभव' नहीं, 'अनुभव से भिन्न' एक वास्तविकता है। 'अनुभव होने' में, एक तो अनुभव का वह विषय होता है जिसका 'बोध' चेतना में होते ही उसे 'अनुभव' का 'विषय' मान लिया जाता है, और अपनी उस निर्वैयक्तिक चेतना को 'अनुभवकर्ता' होने की मान्यता प्राप्त हो जाती है।
स्पष्ट है कि ऐसा प्रत्येक ही 'अनुभव' चेतना की पृष्ठभूमि में घटित होते ही 'अनुभव' अनायास ही जड विषय और उस चेतन 'अनुभवकर्ता' (विचार) में विभाजित हो जाता है, या होता हुआ प्रतीत होता है।
स्मृति ऐसे ही अनेक 'अनुभवों' और उनके अनेक और परस्पर भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले 'अनुभवकर्ताओं' के बीच चेतना के अखंड होने के तथ्य को पहले तो अनेक 'अनुभवकर्ताओं' के रूप में, और बाद में 'अपने' एक स्वतंत्र व्यक्ति / विचारकर्ता होने की मिथ्या धारणा में स्थापित / रूपान्तरित कर देती है। स्मृति स्वयं भी मूलतः तो एक यान्त्रिक कार्य और कार्यप्रणाली ही तो होती है।
अतः इस प्रकार, चूँकि व्यक्ति की (यह आभासी) सत्ता ही विचार की स्मृति / और स्मृति के विचार पर आधारित एक कल्पना मात्र है तो भाग्य या स्वतन्त्रता का प्रश्न ही कहाँ है? व्यक्तिगत या सामूहिक भाग्य या स्वतन्त्रता का विचार भी इसीलिए अप्रासंगिक है। अब रही "मुक्ति", तो वह सामूहिक या व्यक्तिगत होने का प्रश्न ही हास्यास्पद है। मेघों का होना या न होना आकाश की वास्तविकता को प्रभावित नहीं करता। और आकाश के लिए भी अपने होने या न होने की घोषणा करने का कोई महत्व जरूरत या अर्थ नहीं है। जब मेघ विलुप्त हो चुके होते हैं तब उनके भी होने या न होने का प्रश्न नहीं रह जाता।
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