आज की कविता
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रोज़ लगता है नया गीत लिखूँ,
जैसे सुबह रोज़ बोलता है पंछी,
देखकर होता है अचरज हर रोज़,
कैसे गाता है रोज़ नया गीत कोई,
उन सुरों में जो कि नहीं थे कल,
उन सुरों में कि जो न होंगे कल,
कैसे हर फूल रोज़ खिलता है नया,
उस रंग-रूप में कि जो नहीं था कल,
उस रंग-रूप में जो न होगा फिर कल,
रोज़ बदलता है आकाश लिबास,
कैसे हर रोज़ बदल जाती है पहाड़ी,
वो जो देखती है एकटक, मेरे घर को,
यूँ तो अख़बार भी बदलता है रोज़,
अपना चेहरा, वो खबरें हर रोज़,
जिनकी बोसीदग़ी नहीं जाती,
वो ही बासी, वही ऊब भरी खबरें,
जिनको पढ़कर खुशी नहीं होती,
पढ़के बेचैनी मेरी रूह की नहीं जाती,
और बस और भी बढ़ जाती है,
रोज लगता है नया गीत लिखूँ!
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रोज़ लगता है नया गीत लिखूँ,
जैसे सुबह रोज़ बोलता है पंछी,
देखकर होता है अचरज हर रोज़,
कैसे गाता है रोज़ नया गीत कोई,
उन सुरों में जो कि नहीं थे कल,
उन सुरों में कि जो न होंगे कल,
कैसे हर फूल रोज़ खिलता है नया,
उस रंग-रूप में कि जो नहीं था कल,
उस रंग-रूप में जो न होगा फिर कल,
रोज़ बदलता है आकाश लिबास,
कैसे हर रोज़ बदल जाती है पहाड़ी,
वो जो देखती है एकटक, मेरे घर को,
यूँ तो अख़बार भी बदलता है रोज़,
अपना चेहरा, वो खबरें हर रोज़,
जिनकी बोसीदग़ी नहीं जाती,
वो ही बासी, वही ऊब भरी खबरें,
जिनको पढ़कर खुशी नहीं होती,
पढ़के बेचैनी मेरी रूह की नहीं जाती,
और बस और भी बढ़ जाती है,
रोज लगता है नया गीत लिखूँ!
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