वर्ष 2014 में लिखा एक पुराना ड्राफ्ट,
जिस पर अभी अभी दृष्टि पड़ी :
सत्यमेव जयते !
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दस रुपये के नोट पर बाँयें कोने पर तीन सिंहों की प्रतिमा के नीचे इस आर्ष-वाक्य को देखा, दाहिनी तरफ महात्मा गाँधी जी का मुस्कुराता चेहरा था। अख़बार में और मीडिया में नरेंद्र मोदी के 'रन फॉर यूनिटी' के लिए दिए गए आह्वान और समाचार हैं।
आदर्श शुक्ला का 'आज तक' पर प्रकाशित आलेख 'फेसबुक' पर 'शेयर' करता हूँ। माननीय सरदार पटेल का आर. एस. एस. (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) के तत्कालीन प्रमुख गोलवलकर जी के नाम लिखा ख़त है यह, जिसमें उन्होंने एक ओर आर. एस. एस. के कार्यों की खुलकर प्रशंसा की है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से महात्मा गाँधी की हत्या के लिए आर.एस.एस की निंदा भी है।
पत्र श्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने जिस स्थान से लिखा है, उस स्थान को ऊपर बाँये कोने में 'औरंगज़ेब रोड' के नाम से दर्शाया गया है। मैं नहीं कह सकता कि पत्र लिखते समय श्री पटेल का ध्यान इस ओर गया होगा या नहीं, पर यह भी लगता है कि अगर भूले-भटके भी गया होता, तो शायद इस पत्र की भाषा को मूलतः बदल देते। क्योंकि आर. एस. एस. के सिद्धान्त और विचारधारा में मूलतः हिंसा और प्रतिशोध के लिए कोई स्थान है, ऐसा नहीं लगता। श्री नाथूराम गोडसे ने, जिन पर कि महात्मा गाँधी की हत्या करने का अभियोग लगाया गया था, ने 1940 में ही आर. एस. एस. को छोड़ दिया था, एक अलग ही संगठन (शायद "राष्ट्र रक्षक दल") बना लिया था। मुझे लगता है इसे आर. एस. एस. से उनके मोहभंग तथा सैद्धांतिक मतभेद के रूप में भी देखा जा सकता है। लगता है कि श्री नाथूराम गोडसे को विषम परिस्थितियों में हिंसा से परहेज़ नहीं था। या अत्यन्त व्यथित होने पर ही उन्होंने बाध्य होकर इसका निर्णय ले लिया होगा। स्पष्ट है कि वे किंकर्तव्यविमूढ रहे होंगे। और यह भी सच है कि किसी भी श्रेष्ठ विचार / सिद्धांत (आदर्श / ideology) का आग्रह मनुष्य को अंततः कट्टर ही बनाता है। सत्य को देखने के लिए तमाम विचारों से मुक्त मन ही अत्यन्त आवश्यक उचित माध्यम होता है। मार्क्स या लेनिन, गीता या दूसरे धर्मग्रन्थ के सिद्धांतों का ही क्यों न हो। तथाकथित नये-पुराने धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों और ग्रन्थों का ही क्यों न हो, या वैचारिक विद्वतापूर्ण ग्रन्थों आदि का ही क्यों न हों, सभी के संबंध में यह अवश्य ही सत्य है।
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दस रुपये के नोट पर बाँयें कोने पर तीन सिंहों की प्रतिमा के नीचे इस आर्ष-वाक्य को देखा, दाहिनी तरफ महात्मा गाँधी जी का मुस्कुराता चेहरा था। अख़बार में और मीडिया में नरेंद्र मोदी के 'रन फॉर यूनिटी' के लिए दिए गए आह्वान और समाचार हैं।
आदर्श शुक्ला का 'आज तक' पर प्रकाशित आलेख 'फेसबुक' पर 'शेयर' करता हूँ। माननीय सरदार पटेल का आर. एस. एस. (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) के तत्कालीन प्रमुख गोलवलकर जी के नाम लिखा ख़त है यह, जिसमें उन्होंने एक ओर आर. एस. एस. के कार्यों की खुलकर प्रशंसा की है, वहीं अप्रत्यक्ष रूप से महात्मा गाँधी की हत्या के लिए आर.एस.एस की निंदा भी है।
पत्र श्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने जिस स्थान से लिखा है, उस स्थान को ऊपर बाँये कोने में 'औरंगज़ेब रोड' के नाम से दर्शाया गया है। मैं नहीं कह सकता कि पत्र लिखते समय श्री पटेल का ध्यान इस ओर गया होगा या नहीं, पर यह भी लगता है कि अगर भूले-भटके भी गया होता, तो शायद इस पत्र की भाषा को मूलतः बदल देते। क्योंकि आर. एस. एस. के सिद्धान्त और विचारधारा में मूलतः हिंसा और प्रतिशोध के लिए कोई स्थान है, ऐसा नहीं लगता। श्री नाथूराम गोडसे ने, जिन पर कि महात्मा गाँधी की हत्या करने का अभियोग लगाया गया था, ने 1940 में ही आर. एस. एस. को छोड़ दिया था, एक अलग ही संगठन (शायद "राष्ट्र रक्षक दल") बना लिया था। मुझे लगता है इसे आर. एस. एस. से उनके मोहभंग तथा सैद्धांतिक मतभेद के रूप में भी देखा जा सकता है। लगता है कि श्री नाथूराम गोडसे को विषम परिस्थितियों में हिंसा से परहेज़ नहीं था। या अत्यन्त व्यथित होने पर ही उन्होंने बाध्य होकर इसका निर्णय ले लिया होगा। स्पष्ट है कि वे किंकर्तव्यविमूढ रहे होंगे। और यह भी सच है कि किसी भी श्रेष्ठ विचार / सिद्धांत (आदर्श / ideology) का आग्रह मनुष्य को अंततः कट्टर ही बनाता है। सत्य को देखने के लिए तमाम विचारों से मुक्त मन ही अत्यन्त आवश्यक उचित माध्यम होता है। मार्क्स या लेनिन, गीता या दूसरे धर्मग्रन्थ के सिद्धांतों का ही क्यों न हो। तथाकथित नये-पुराने धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों और ग्रन्थों का ही क्यों न हो, या वैचारिक विद्वतापूर्ण ग्रन्थों आदि का ही क्यों न हों, सभी के संबंध में यह अवश्य ही सत्य है।
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