स्मृति, पहचान और अतीत
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सुखद और दुःखद स्मृतियाँ बरबस हर किसी व्यक्ति को भावुक, विह्वल और उद्वेलित कर देती हैं। कभी कभी तो मनुष्य चाहकर भी उनके प्रभाव से बच नहीं पाता। कभी कभी मनुष्य उनसे उत्पन्न हो रही यंत्रणाओं और पीड़ाओं से इतना अधिक त्रस्त हो जाता है कि उसे लगने लगता है कि मृत्यु होने पर ही उनसे छुटकारा मिल सकता है। यह एक अस्थायी मनःस्थिति ही तो होती है। और इस बारे में वह जितना अधिक सोच विचार करता है वह उतना ही अधिक उलझता चला जाता है।
मनोवैज्ञानिक सलाह देते हैं कि अतीत की ऐसी दुःखद घटनाओं को दुःस्वप्न समझकर भुला दिया जाना चाहिए। लेकिन यह भी सत्य है कि संसार में क्षण प्रतिक्षण कोई न कोई ऐसा कारण बन जाता है जो अतीत के घावों को कुरेद कर उसे हरा करता रहता है। और, क्या यह संभव है कि किसी स्थान, संबंध, परिचय आदि को हमेशा के लिए त्याग दिया जाए!
ध्यान से देखें तो स्मृति, पहचान और अतीत एक ही वस्तु या घटना के तीन अलग अलग नाम भर होते हैं।
मन या तो इन तीनों से प्रभावित हो जाता है, या तीनों ही से अप्रभावित रह सकता है।
इसलिए मन ही इन तीनों कोणों से बननेवाला त्रिभुज या उस त्रिभुज का चौथा कोण होता है।
क्या यह मन स्वयं ही स्वयं को जानता है?
या, क्या मन का एक हिस्सा मन के दूसरे हिस्से को?
मन सतत होती रहनेवाली प्रक्रिया है, जबकि इस मन को या इस प्रक्रिया को जाननेवाला तत्व कोई प्रक्रिया नहीं, बल्कि ऐसी एक स्थिर आधारभूत वास्तविकता होता है जो मन के सतत परिवर्तित होते रहने से नितान्त अछूती कोई नित्य वर्तमान वस्तु है।
इसलिए न तो मन को दो हिस्सों में बाँट जा सकता है, न ही उसका एक हिस्सा दूसरे को जानता या जान सकता है। मन को जाननेवाली यह वस्तु है जागरूकता।
जागरूकता की यह वास्तविकता हमारे मन के जागने, स्वप्न या गहरी स्वप्नरहित निद्रा में सोए होने की स्थिति में भी यथावत् विद्यमान रहती है।
अपना ध्यान इस सत्य पर देकर हमें मनरूपी माया से छुटकारा मिल सकता है।
यह ध्यान किसी प्रकार की नई या पुरानी कोई वैचारिक प्रक्रिया या चिन्तन न होकर इस विषय में हमारी गंभीरता और उत्सुकता का परिणाम होता है।
इसे ही पातञ्जल योगसूत्र के माध्यम से भी समझा जा सकता है जहाँ स्मृति को भी सुषुप्ति की ही तरह मन की एक विशिष्ट वृत्ति ही कहा गया है। और जब योगाभ्यास के माध्यम से वृत्तिमात्र का ही निरोध करने की बात कही जाती है तो इस प्रयत्न में मन को ही निरुद्ध किया जाता है जिसे मनोनिरोध या चित्तवृत्तिनिरोध भी कह सकते हैं। इस प्रकार, योगाभ्यास का प्रयत्न करने में चित्तवृत्ति के निरोध परिणाम, एकाग्रता परिणाम, समाधि-परिणाम, तीनों का ही आवश्यक और समान महत्व होता है। और इन तीनों के सम्मिलित प्रभाव को ही संयम कहा जाता है : त्रयमेकत्र संयमः।।
योग की दृष्टि व्यापक परिप्रेक्ष्य में अभ्यास के महत्व को रेखांकित करते है।
दूसरी ओर --
संवेगानामासन्नः।।
इस योगसूत्र की दृष्टि से आत्मानुसंधान करते हुए आत्मा के तत्व को जानने का यत्न किया जाता है और इसे ही साँख्यनिष्ठा कहा जाता है। किसी व्यक्ति की स्वाभाविक निष्ठा कर्म करने अर्थात् कर्म-योग के प्रति, तो किसी और की निष्ठा स्वाभाविक रूप से आत्मानुसंधान के प्रति हो सकती है।
दोनों ही प्रकार के व्यक्ति ईश्वर की मान्यता को सत्य या कल्पना मानते हुए भी अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार अंतिम सत्य की प्राप्ति कर लेते हैं।
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