कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 28
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18 वर्ष बाद, ……,
यह किसी फ़िल्म के शीर्षक जैसा लगता है ।
जया ललिता न्यायालय में दोषी क़रार दी गईं । उनके प्रशंसकों में से कितने इस सदमे को नहीं सह सके, कुछ की मृत्यु दिल के दौरे से, तो कुछ की आत्महत्या के प्रयास से हो गई । जया जी से मेरी पूरी सहानुभूति है, क्योंकि मेरी हर उस व्यक्ति से सहानुभूति है जिसे जेल भेज दिया जाता है और वहां अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता है । क्योंकि मेरा मानना है कि मूलतः कोई अपराधी होता ही नहीं, हाँ यह हो सकता है कि कोई बौद्धिक या मानसिक रूप से अपरिपक्व हो। और पैसे, पद, पहचान, प्रतिष्ठा से अभिभूत होने की हद तक प्रभावित हो। हो सकता है कि इसके मूल में भी असुरक्षा की या प्रतिद्वंद्विता की भावना छिपी हो, जो भी हो, यदि कोई मनुष्य समाज या औरों के लिए हानिप्रद या खतरनाक भी हो गया है, तो उसके ऐसा होने के लिए समाज ही उससे अधिक जवाबदार है। जिन कारणों से व्यक्ति विकृत या अपरिपक्व मानसिकता से ग्रस्त होता है, वे कारण समाज में ही होते हैं, और मनुष्य जब बच्चा होता है, तब उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इस सारी प्रक्रिया को ठीक समझ सके। इसलिए उससे उसके नैसर्गिक मानवीय अधिकार छीन लिए जाएँ, यह तो कोई हल नहीं है। और समाज के पास इसका भी कोई हल नहीं है कि दूसरे ऐसे लोग जो जयाजी उनके जैसे अन्य लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं उनके लिए कोई रास्ता बतला सकें। जब किसी अपराधी को सजा दी जाती है, तो निश्चित ही उसके निकट सम्बन्धियों को भी इसके परिणाम भुगतने होते हैं। क्या इसके लिए अपराधी को दोषी कहा जाना चाहिए?
मुद्दा यह है कि सभ्य समाज में अपराध के लिए दण्ड दिए जाने से वास्तव में कोई लक्ष्य नहीं प्राप्त होता। यह हमारा भूल भरा दृष्टिकोण है कि हम दंड देकर मनुष्य को अपराध करने से रोक सकते हैं। हाँ, यह अवश्य हो सकता है, और प्रायः देखा भी जाता है कि दंड के भय से लोग अधिक चालाक, अधिक दुष्ट, अधिक क्रूर और निर्मम हो जाते हैं। अपराध किसी भी क़िस्म का हो, एक रुग्णता है, जिसे रोकना उसके उपचार की तुलना में अधिक आवश्यक और पर्याप्त उपाय है।
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18 वर्ष बाद, ……,
यह किसी फ़िल्म के शीर्षक जैसा लगता है ।
जया ललिता न्यायालय में दोषी क़रार दी गईं । उनके प्रशंसकों में से कितने इस सदमे को नहीं सह सके, कुछ की मृत्यु दिल के दौरे से, तो कुछ की आत्महत्या के प्रयास से हो गई । जया जी से मेरी पूरी सहानुभूति है, क्योंकि मेरी हर उस व्यक्ति से सहानुभूति है जिसे जेल भेज दिया जाता है और वहां अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता है । क्योंकि मेरा मानना है कि मूलतः कोई अपराधी होता ही नहीं, हाँ यह हो सकता है कि कोई बौद्धिक या मानसिक रूप से अपरिपक्व हो। और पैसे, पद, पहचान, प्रतिष्ठा से अभिभूत होने की हद तक प्रभावित हो। हो सकता है कि इसके मूल में भी असुरक्षा की या प्रतिद्वंद्विता की भावना छिपी हो, जो भी हो, यदि कोई मनुष्य समाज या औरों के लिए हानिप्रद या खतरनाक भी हो गया है, तो उसके ऐसा होने के लिए समाज ही उससे अधिक जवाबदार है। जिन कारणों से व्यक्ति विकृत या अपरिपक्व मानसिकता से ग्रस्त होता है, वे कारण समाज में ही होते हैं, और मनुष्य जब बच्चा होता है, तब उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इस सारी प्रक्रिया को ठीक समझ सके। इसलिए उससे उसके नैसर्गिक मानवीय अधिकार छीन लिए जाएँ, यह तो कोई हल नहीं है। और समाज के पास इसका भी कोई हल नहीं है कि दूसरे ऐसे लोग जो जयाजी उनके जैसे अन्य लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं उनके लिए कोई रास्ता बतला सकें। जब किसी अपराधी को सजा दी जाती है, तो निश्चित ही उसके निकट सम्बन्धियों को भी इसके परिणाम भुगतने होते हैं। क्या इसके लिए अपराधी को दोषी कहा जाना चाहिए?
मुद्दा यह है कि सभ्य समाज में अपराध के लिए दण्ड दिए जाने से वास्तव में कोई लक्ष्य नहीं प्राप्त होता। यह हमारा भूल भरा दृष्टिकोण है कि हम दंड देकर मनुष्य को अपराध करने से रोक सकते हैं। हाँ, यह अवश्य हो सकता है, और प्रायः देखा भी जाता है कि दंड के भय से लोग अधिक चालाक, अधिक दुष्ट, अधिक क्रूर और निर्मम हो जाते हैं। अपराध किसी भी क़िस्म का हो, एक रुग्णता है, जिसे रोकना उसके उपचार की तुलना में अधिक आवश्यक और पर्याप्त उपाय है।
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