September 30, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 28

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 28
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18 वर्ष बाद, ……,
यह किसी फ़िल्म के शीर्षक जैसा लगता है ।
जया ललिता न्यायालय में दोषी क़रार दी गईं । उनके प्रशंसकों में से कितने इस सदमे को नहीं सह सके, कुछ की मृत्यु दिल के दौरे से, तो कुछ की आत्महत्या के प्रयास से हो गई । जया जी से मेरी पूरी सहानुभूति है, क्योंकि मेरी हर उस व्यक्ति से सहानुभूति है जिसे जेल भेज दिया जाता है और वहां अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता है । क्योंकि मेरा मानना है कि मूलतः कोई अपराधी होता ही नहीं, हाँ यह हो सकता है कि कोई बौद्धिक या मानसिक रूप से अपरिपक्व हो। और पैसे, पद, पहचान, प्रतिष्ठा से अभिभूत होने की हद तक प्रभावित हो।  हो सकता है कि इसके मूल में भी असुरक्षा की या प्रतिद्वंद्विता की भावना छिपी हो,  जो भी हो, यदि कोई मनुष्य समाज या औरों के लिए हानिप्रद या खतरनाक भी हो गया है, तो उसके ऐसा होने के लिए समाज ही उससे अधिक जवाबदार है।  जिन कारणों से  व्यक्ति विकृत या अपरिपक्व मानसिकता से ग्रस्त होता है, वे कारण समाज में ही होते हैं, और मनुष्य जब बच्चा होता है, तब उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इस सारी प्रक्रिया को ठीक  समझ सके।  इसलिए उससे उसके नैसर्गिक मानवीय अधिकार छीन लिए जाएँ, यह तो कोई हल नहीं है।  और समाज के पास इसका भी कोई हल नहीं है कि दूसरे ऐसे लोग जो जयाजी उनके जैसे अन्य लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं उनके लिए कोई रास्ता बतला सकें।  जब किसी अपराधी को सजा दी जाती है, तो निश्चित ही उसके निकट सम्बन्धियों को भी इसके परिणाम भुगतने होते हैं।  क्या इसके लिए अपराधी को दोषी कहा जाना चाहिए?
मुद्दा यह है कि सभ्य समाज में अपराध के लिए दण्ड दिए जाने से वास्तव में कोई लक्ष्य नहीं प्राप्त होता। यह हमारा भूल भरा दृष्टिकोण है कि हम दंड देकर मनुष्य को अपराध करने से रोक सकते हैं।  हाँ, यह अवश्य हो सकता है, और प्रायः देखा भी जाता है कि दंड के भय से लोग अधिक चालाक, अधिक दुष्ट, अधिक क्रूर और निर्मम हो जाते हैं।  अपराध किसी भी क़िस्म का हो, एक रुग्णता है, जिसे रोकना उसके उपचार की तुलना में अधिक आवश्यक और पर्याप्त उपाय है।
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September 27, 2014

जगत् : ऊसर भूमि

जगत् : ऊसर भूमि
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(मेरी मूल हिन्दी कविता और उसका मेरे द्वारा किया गया अंग्रेज़ी भाषान्तर)
(T.S.Eliot  से क्षमा-याचना सहित / With apologies from T.S.Eliot)




September 26, 2014

आज की कविता / फ़र्क / 26/09/2014

आज की कविता
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फ़र्क

© विनय वैद्य, उज्जैन 26/09/2014
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ऊसर में वो भी बोते हैं,
मैं भी ऊसर में बोता हूँ ।

वो उम्मीदों की फ़सलें बोएँ,
वो सिक्कों की फ़सलें बोएँ
मैं स्वेदकणों को बीज बनाकर,
सूखी धरती में बोता हूँ ।

वो खून से सींचें खेतों को,
नफ़रत की खादें डालें,
मैं अश्रुकणों को बून्द बून्द,
प्यासी धरती में बोता हूँ ।

उनके खेतों में उगता सोना,
कनक कनक से मोहित वे,
मैं कण कण प्यार उगाता हूँ,
कण कण धरती में बोता हूँ,

ऊसर में वो भी बोते हैं,
मैं भी ऊसर में बोता हूँ ।
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September 24, 2014

आज की कविता / 24/09/2014

आज की कविता / 24/09/2014
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कुछ मेंढक ज़हरीले होते हैं,
कुछ ज़हरीले मेंढक होते हैं,
कुछ मेंढक तो होते हैं शाकाहारी
तो कुछ शाकाहारी मेंढक होते हैं !
शाकाहारी हो या हो ज़हरीला,
ज़हरीला हो या शाकाहारी,
मेंढक तो आखिर मेंढक ही होता है,
उछलकूद करना है उसकी लाचारी !
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( © विनय वैद्य, उज्जैन,)

September 20, 2014

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 27 ~~

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 27 ~~
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1977 में विक्रम विश्वविद्यालय से गणित में M. Sc. करने के बाद रिसर्च करने की तीव्र अभिलाषा थी। किन्तु नौकरी करना अधिक जरूरी था। बहरहाल गणित में दिलचस्पी बनी रही।  संस्कृत और गणित दोनों अस्तित्व की अपनी भाषा है।  गीता पढ़ते हुए अध्याय 8 के प्रथम श्लोक पर आधुनिक गणित की धारा में कुछ कौंधा और प्रभु की कृपा से उसे व्यक्त भी कर पाया।  सोचा उसे इस ब्लॉग के पढ़नेवालों को भी अर्पित कर दूँ !

 

September 19, 2014

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 26 ~~

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 26 ~~
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परसों दोपहर या रात्रि में, एक स्वप्न देखा । एक स्नेही मित्र के साथ मैं जंगल में हूँ  बहुत कम वृक्ष आस-पास हैं, और जमीन मटमैली हल्की लाल-पीली सी है । अचानक देखता हूँ कि वे मित्र कहीं दिखाई नहीं दे रहे । थोड़ी दूर पर एक वृक्ष है जिस पर दो-तीन बड़ी शाखाएँ और जरा से पत्ते हैं, या शायद वो भी नहीं  । सोचता हूँ कि वे मित्र उस वृक्ष पर तो नहीं चढ़ गए हैं? उन्हें आवाज देता हूँ लेकिन मेरी आवाज में इतनी ताकत नहीं है शायद कि उन तक पहुँच सके । कुछ दूरी पर एक मनुष्य दिखलाई देता है, जो मेरे बड़े भाई जैसा प्रतीत होता है । मैं सोचता हूँ कि वह ग्रामीण सा, बूढ़ा सा व्यक्ति जो मेरे बड़े भाई जैसा प्रतीत हो रहा था, तो मेरा मित्र नहीं कोई और ही है । और स्वप्न टूट जाता है ।
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कल, और आज भी सुबह से इस स्वप्न के बारे में दो-तीन बार सोचा । उस मित्र को फोन करने का खयाल आता है, लेकिन चूँकि उसे वैसे ही बहुत जरूरी होने पर ही फोन करता हूँ, इसलिए वह भी जरा मुश्किल है । बस इन्तज़ार कर रहा हूँ कि क्या होता है ! वैसे मेरा अनुमान है कि शायद वह स्नेही मित्र दिवंगत हो चुका है । चूँकि इस उम्र में हूँ, कि मेरी उम्र के कितने ही दोस्त और परिचित हर हफ़्ते दस दिन में दिवंगत होते रहते हैं, इसलिए उस मित्र के लिए चिन्ता नहीं है, बस थोड़ा सा कौतूहल अवश्य है ।
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September 18, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -25

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -25
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16 मार्च 2014  के आसपास यह श्रंखला शुरू हुई थी।  ध्वंस तो सृजन की सहयोगी गतिविधि है।  लेकिन उसकी अभिव्यक्ति इस तारीख के बाद अधिक प्रखर हो उठी है। ट्विटर पर एक नए फॉलोवर बने हैं।  पता नहीं क्या अपेक्षा मुझसे होगी उन्हें ! बहरहाल उनका पेज देखा तो ऐसा लगा कि वे 'राष्ट्रवाद' के प्रबल समर्थक और सेकुलरिज्म के उतने ही प्रबल विरोधी होंगे।
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पिछले साल भर कई बार इन दोनों शब्दों पर चिंतन करता रहा।  गीता पर ब्लॉग्स लिखते समय भारत पर भी बहुत बार सोचा।  अध्याय 3 का श्लोक 38 जब भी पढ़ता हूँ, जे. कृष्णमूर्ति याद आते हैं !
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'धूमेनाव्रियते वह्निः यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा  तेनेदमावृतम्।।'
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संस्कृत में 'आदर्श' का मतलब होता है आईना। आदर्श पर हमेशा विचार की धूल चढ़ जाती है । आदर्श वस्तुतः निर्मल होता है।  इतना निर्मल कि दिखलाई तक नहीं देता। फिर किसी दूसरे को उस आदर्श को दिखलाना तो लगभग असंभव ही होता है।  और जब भी विचार के माध्यम से उस आदर्श की ओर इशारा भी किया जाता है , तो विचार की धूल उस पर लग जाती है, उसे कलंकित भी कर देती है।  हाँ यह हो सकता है कि इस धूल को सावधानी से साफ़ कर दिया जाए। राष्ट्रवाद का आदर्श भी इसका अपवाद नहीं है। राष्ट्रवाद का प्रचलित अर्थ है, अपने देश को श्रेष्ठ मानना उसके प्रति गौरव अनुभव करना।  किन्तु देश क्या है? स्वाभाविक है कि इसका तात्पर्य भूमि समझा जाए। अर्थात् 'जन्मभूमि' । इस दृष्टि से देखें तो अपने देश से बाहर जन्म लेने वाले जिनके माता-पिता इस देश के नागरिक हैं, क्या इस देश को अपना न कहें? स्पष्ट है कि देश न सिर्फ भौगोलिक बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक, सामाजिक और भाषाई इकाई भी है। और एक सच्चाई भी है।
वैदिक रूप से 'राष्ट्र' का तात्पर्य है संपूर्ण भूमि अर्थात पृथ्वी।  वैदिक दृष्टि से इस भूमि की अपनी चेतन सत्ता है। देवी अथर्वण में देवी अपने बारे में कहती है :
'अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् .. …'
दूसरी ओर राज्य एक और इकाई है, जिसकी भौगोलिक सीमाएँ समय के साथ बदलती रहती हैं।  किन्तु जहाँ साँस्कृतिक सीमाएँ समय के बदलने के साथ नहीं बदलतीं ऐसी एक और इकाई होती है जिसके आधार पर किसी समुदाय के 'देश' का अस्तित्व परिभाषित होता है।  स्पष्ट है कि एक ही 'देश' में अनेक भाषाई समुदाय हो सकते हैं, जिनकी साँस्कृतिक पहचान तक समान हो।
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आज 18  सितम्बर 2014 को सुबह समाचारों में सुना की स्कॉटलैंड में इस बारे में रेफरेंडम हो रहा है कि क्या
वह भौगोलिक क्षेत्र यू.के. में रहेगा या कि उससे अलग एक स्वतंत्र 'राष्ट्र' होगा?
तिब्बत के बारे में भारत की केंद्रीय सरकार की ढुलमुल नीति, कश्मीर के बारे में श्री जवाहरलाल नेहरू की इरादतन या गैर इरादतन भूल का ख़ामियाज़ा हम झेल रहे हैं। इस बारे में हमारी उदासीनता ही हमारे और संसार के विनाश का कारण है। यह ठीक है कि संसार की गति को कोई न तो दिशा दे सकता है, न कम या अधिक कर सकता है। बाँग्लादेश का जन्म इसका स्पष्ट प्रमाण है। चीन या दूसरी विस्तारवादी शक्तियाँ कितनी ही कोशिश कर लें, संसार के नक़्शे में राई-रत्ती का फ़र्क नहीं ला सकती। लेकिन यदि उन शक्तियों को इसका विश्वास है कि वे ऐसा कर सकती हैं तो यह उनकी ग़लतफ़हमी है।
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इस पोस्ट को यहीं पूर्ण करना चाहूँगा।  अभी काफी कुछ लिखना है, 'हिंदी' / 'हिन्दू' / 'भारत' / 'इण्डिया' / 'इंडिया' / 'इन्डिया' के बारे में।  वह सब अगली पोस्ट्स में।
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September 17, 2014

आज की कविता / 17/09/2014.

आज की कविता / 17/09/2014.
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© विनय वैद्य, उज्जैन,
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मन्दिर नहीं जानते 
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मन्दिर नहीं जानते,
प्रशंसा,
वे सिर्फ़ खड़े रहते हैं,
आशीर्वाद देने को,
चाहें आप उनमें विराजित प्रतिमा की पूजा करें,
या उसे तोड़ दें,
चाहे आप उसे किसी दर्शन, धर्म या सिद्धान्त का नाम देकर,
तलवार बना लें,
काट दें उन सब को,
जिनके हाथों में हैं,
ऐसी ही दूसरी तलवारें,
चाहें आप उस मन्दिर को ही तोड़कर,
नाम दे दें अपने धर्मस्थल का, 
और घोषित कर दें,
कि आपका धर्म ही एकमात्र ईश्वरीय धर्म है,
बाँट दें पूरे विश्व को,
सिर्फ़ दो मज़हबों में,
और जो आपके मज़हब को नहीं मानता,
उसे मिटा देना आपका परम धार्मिक कर्तव्य है,
हाँ एक तीसरा मज़हब भी इसमें आपका मददग़ार होता है,
जो या तो बुद्धिजीवी होता है,
प्रतिष्ठित,
या बस अवसरवादी,
जिसके कोई सिद्धान्त नहीं होते,
वह मन्दिर की सत्ता का भी मज़ाक उड़ाता है,
किन्तु आपके धर्म, और आपके ईश्वर पर उँगली नहीं उठाता,
क्योंकि उसे मन्दिर के होने न होने से कोई मतलब नहीं,
वह मन्दिर से तो नहीं, लेकिन आपकी तलवार से जरूर डरता है,
और वक़्त आने पर खुद ही रख देता है शीश,
आपके चरणों में, 
और जिसे मतलब है,
वह किसी मज़हब तक बँधा नहीं होता,
वह सिर्फ़ अपने मज़हब का पाबन्द होता है,
कि मज़हब मुक्ति है,
मज़हब स्वतन्त्रता है,
और यह तभी होती है,
जब आप दूसरों की मुक्ति का सम्मान करते हैं,
और इसे न तो आप किसी को दे सकते हैं,
न कोई और आपको दे सकता है,
लेकिन कोई इसे आपसे छीन भी नहीं सकता,
मुक्ति,
जो वह आपके आदर्शों और विश्वासों से विपरीत ही क्यों न हो ।
और तब आप निर्भय होते हैं,
आप मिटने से नहीं डरते,
क्योंकि मिटना तो जीवन की रीत है,
पर फ़िर भी, तब आप मिटाने से ज़रूर डरते हैं,
क्योंकि आप अस्तित्व का सम्मान करते हैं,
अपने, और सम्पूर्ण, -अथाह जीवन का,
जिसमें आपके होने-न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
क्योंकि आप उससे पृथक् नहीं हैं, 
क्योंकि यह अपने आपको ही मिटाने का सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तरीका है,
और तब आप समझ पाते हैं,
कि मन्दिर मिट क्यों जाते हैं, मिटाते क्यों नहीं?
मन्दिर जानते हैं अमर होना,
और देते हैं यही आशीर्वाद,
बिना कहे ।
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September 03, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -23,

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -23,
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कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!

अध्याय 4 श्लोक 18,

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
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(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो कर्म में अकर्म को तथा इसी प्रकार अकर्म में कर्म को देखता है, केवल वही मनुष्यों में अन्यों की तुलना में बुद्धिमान मनुष्य है, वही योग से युक्त और कृतकृत्य है ।
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श्रीमद्भग्वद्गीता को बचपन से पढ़ता रहा हूँ ।  नए पुराने कुछ आचार्यों विद्वानों की व्याख्याएँ भी पढ़ीं । किन्तु मुझे हमेशा से लगता रहा कि किसी ग्रन्थ को उसकी मूल भाषा में पढ़ने से जो (तात्पर्य) समझ में आता है, वह उसके अनुवाद या व्याख्याओं के अध्ययन से शायद ही समझा जा सकता हो । और संस्कृत के ग्रन्थों के पढ़ने का सबसे अच्छा एक तरीका यही है कि उनका उनके मूल-स्वरूप में ’पाठ’ किया जाए । शायद शुरु में यह ’रटना’ जान पड़े, लेकिन ’रटने’ का मतलब है आप बाध्यतावश यह कार्य कर रहे हैं । लेकिन यदि आप खेल-खेल में इसे करते रहें, तो जल्दी ही इससे जुड़ाव होने लगता है । और इस जुड़ाव को पैदा होने, पनपने में एक दो नहीं, बीस पच्चीस वर्ष या और अधिक समय भी लग सकता है । और फिर अचानक लगने लगता है कि इसे पढ़ना न सिर्फ़ अपना, बल्कि संसार के भी कल्याण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण एक कार्य है । क्योंकि तब आप और संसार दो पृथक् सत्ताएँ नहीं होते । शायद इसे ही आत्म-ज्ञान भी कह सकते हैं ।
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एक दृष्टि से यह अध्ययन एक ’कर्म’ है, वहीं यह ’अकर्म’ भी है । जैसे रोज सवेरा होता है, शाम होती है, या कहें सुबह और शाम के होने से हम ’रोज’ नामक वस्तु / समय को परिभाषित कर लेते हैं । ’समय’ जो इस रूप में दृश्य भी है और अदृश्य भी ! और सुबह और शाम का होना सूरज के उगने और डूबने से ही तो होता है ! हम सूरज पर उगने और डूबने का इल्ज़ाम कितने जल्दी लगा देते हैं ! फिर हम कह सकते हैं कि ठीक है, धरती के सूरज के चारों ओर चक्कर काटने से सूरज उगता या डूबता दिखलाई देता है ।
लेकिन क्या धरती इरादतन सूरज का चक्कर काटती होगी ? अभी तो हमें यह भी पक्का नहीं कि क्या धरती का कोई ऐसा दिल-दिमाग होता है या नहीं, जो इरादा कर सके । फिर हम कहते हैं कि यह तो प्रकृति (और विज्ञान) के नियमों से संचालित होता है । इसमें दो बातें स्पष्ट हैं । ’प्रकृति’ इस शब्द को कहने से हमें धरती, आकाश, सूरज या ऐसी किसी वस्तु का प्रमाण तो नहीं मिल जाता जिसे हम ’प्रकृति’ कह रहे हैं । दूसरी बात विज्ञान के नियमों के बारे में ! क्या विज्ञान के नियम उस ’समय’ (और ’स्थान’) की परिभाषा के आधार पर ही नहीं तय किए जाते जिसकी अपनी ही विश्वसनीयता अभी प्रमाणित नहीं हो सकी है?
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फिर भी समय और स्थान,”प्रकृति’ का दृश्य रूप है, ऐसा अनुमान लगाना शायद गलत न होगा । और इस ’प्रकृति’ को ’जाननेवाला’ भी एक तत्व इस ’प्रकृति’ के अस्तित्व को स्वीकार या अस्वीकार करने से पहले भी स्वतः प्रमाणित है ही । जैसे यदि हम कर्म / कार्य को स्थान और समय के आधार पर बाँटकर न देखें तो इसे परिभाषित तक नहीं कर सकते, वैसे ही यदि हम इस कर्म / प्रकृति को ’जाननेवाले’ तत्व को भी समय और स्थान के आधार पर न बाँटें, तो क्या इस तत्व को परिभाषित किया जा सकता है ? किन्तु क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि उनका अस्तित्व नहीं है? इन सबका समष्टि अस्तित्व तो स्वप्रमाणित तथ्य / सत्य है । क्या इस समष्टि अस्तित्व को हम ’कर्म’ / ’प्रकृति’ / ’चेतना’ या ईश्वर कह सकते हैं ? क्या इनके अतिरिक्त इनसे भिन्न इस आयोजन का कोई ’कर्ता’ उनसे अलग है?  क्या वही इस सारे आयोजन का / की सूत्रधार नहीं है? क्या वह कुछ करता है? क्या कभी कुछ होता है? यदि कभी कुछ होता या किया नहीं जाता तो कर्म का क्या प्रमाण? तो क्या कर्म और अकर्म एक ही सत्ता के दो पक्ष नहीं हुए?
कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!
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