February 16, 2014

~~ ध्वंस का उल्लास ~~

~~ ध्वंस का उल्लास  ~~
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© विनय कुमार वैद्य, उज्जैन / 15 /02 /2014   
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सुबह कुछ ब्लॉग्स लिखे । दोपहर ११ बजे भोजन बनाने जा रहा था कि मोबाइल बज उठा ।
"हैलो!"
"जी मैं,  बोल रही हूँ, ...’ ... पब्लिशर्स’ से, ... विनय कुमार वैद्य से,..."
"जी, नमस्ते मैडम! आपकी आवाज से तुरंत ही पहचान लिया मैंने, ..."
"हम ’... ... ... ...’  का नया एडीशन पब्लिश करने जा रहे हैं, ... उसमें आपसे संबंधित जानकारी में क्या-कुछ फेर-बदल करना चाहेंगे ... ? और उसमें आपका लिखा एक ’इन्ट्रॉडक्शन’ भी चाहिए. वो भी ऎड करना है ।"
"जी, ... वो मैं आपको ’मेल’ कर दूँगा!"
"जी थैंक्स, थैंक यू वेरी मच !"
"जी, ... नमस्ते !"
खाना बनाना शुरू करता हूँ, सब्ज़ी बन चुकी है, रोटियाँ सेंकना हैं ।
आजकल ’फ़ेसबुक’ ’डि-एक्टिवेट’ कर रखा है, दूसरा कार्य इतना बढ़ा लिया है कि वक़्त नहीं मिलता ।
दोपहर में उन्हें अपनी ’नई’ जानकारी ’मेल’ कर देता हूँ । ’इन्ट्रॉडक्शन’ लिखने की क़ोशिश करता हूँ, पर संतोषजनक नहीं हो पाता । दोपहर में ’इलेक्ट्रिक-ब्लैंकेट्’ ’ऑन्’ कर देता हूँ । छ्त पर धूप में बैठने की क़ोशिश करता हूँ, लेकिन ठंडी नम हवाएँ उठने को बाध्य कर देती हैं । धूप भी नहीं सी है ।
नीचे आकर ’इलेक्ट्रिक-ब्लैंकेट्’ ऑफ़् कर बिस्तर में घुस जाता हूँ । पाँच मिनट बाद बिस्तर की गर्मी और मैं एकाकार हो जाते हैं । नींद आ जाती है, जो दो घंटे बाद खुलती है । उठकर चाय बनाता हूँ, बाहर अपने ’वॉक’ पर धूप खिली है, आधे घंटे टहलकर, सब्ज़ी खरीदकर लौटता हूँ, शाम के लिए सब्ज़ी बनाता हूँ और बैठकर थोड़ी देर में एकाध ’ब्लॉग’ और ’इन्ट्रॉडक्शन’ लिखता हूँ । उन्हें भेज देता हूँ । गीता का एक अध्याय ’टाइपसेट’करता हूँ । ’ब्लॉग’ लिखना और रसोई बनाना कुछ हद तक एक जैसा लगता है मुझे । कुछ चीज़ें पहले से तैयार कर रखनी होती हैं । ’लव लाइक द क्लॉउड्स’ के लिए मोबाइल से खींची गई ’पिक्स’ कंप्यूटर में ’फ़ीड’ करता हूँ, मिनिमम् ’टचिंग’ और ’एडीटिंग’ करता हूँ । सूरज और बादलों की आँख-मिचौली में आज वे सब ’वैलेन्टाइन-डे’ के मूड में दिखलाई दे रहे थे । दर्जन भर ’पोज़’ ’कॅप्चर’ कर लिए !
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रात आठ बजे से पौने-नौ तक यही सब करता रहा । रोज की तरह पौने-नौ बजे खाना खाते हुए केजरीवाल के इस्तीफ़े की और दूसरी खबरें ’आकाशवाणी’ पर सुनता रहा ।
देह क्लान्त, ठंडक के कारण कुछ किया नहीं जा सकता था । फिर सोचा सोने से पहले ’यू-ट्यूब’ पर कोई पुराने गाने सुनूँ / देखूँ  । अचानक याद आई कुछ पुराने मराठी गानों की ।
’अमृताहुनी गोड नाम तुझे देवा, ..’ ’तुझे रूप चित्ती राहो, ..’ सुनता रहा ।
गोरा कुंभार की कहानी क्या है, ’सर्च’ किया पर नहीं मिली ।
बहरहाल ’लो-नेट्वर्क-स्पीड’ की वज़ह से इस गीत को फिर से शुरु से सुना, ...
महाराष्ट्र के एक संत गोरा कुंभार, जिनके गीत / भजन को सुधीर फड़के की आवाज मे सुनना और देखना एक अद्भुत् अनुभव था । बचपन में रेडिओ पर कई बार इसे सुना था, लेकिन आधा-अधूरा जिसे आज ’म्याँ देखिले डोळा, पंढरी चा सोहळा’ की तर्ज़ पर अनुभव कर रहा था ।
वे चाक पर घड़ा उभार रहे हैं, और गा रहे हैं :
"तुझे रूप चित्ती राहो, मुखी तुझं नाव, ...पांडुरंग, पांडुरंग,...पांडुरंग, 
देह प्रपञ्चाचा दास, ...."
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उनकी पत्नी दो मटके उठाकर पानी लेने के लिए निकल पड़ती हैं । उनका नन्हा बेटा थोड़ी दूर पर अपने-आपसे खेल रहा है । अचानक स्मृति तीस साल पीछे चली जाती है । मेरे एक मित्र हैं किरण देशमुख  । वे और उनका एक मित्र है यशवंत चौधरी । वे और यशवंत चौधरी (बाबा) वर्ष १९७६-७७ में फ्रीगंज में किराए के रूम में साथ रहते थे । किरण देशमुख और मैं एम.एस-सी. में साथ साथ पढ़ते थे, इस वज़ह से मैं बाबा को जानने लगा था ।
फ़िर मैं बैंक में नौकरी करने लगा और वर्ष १९८२ में पुनः इस शहर में स्थानांतरित होकर आ गया । 
मैंने जो मकान रहने के लिए किराए से लिया था, उसके सामनेवाले मकान में एक बुज़ुर्ग कपल, उनकी बेटी और उसका छोटा बच्चा रहते थे । गोरा कुंभार का वीडिओ ’यू-ट्यूब’ पर देखते हुए इस बच्चे को देखते ही उस बच्चे का स्मरण आया । एक दिन अचानक बाबा मिलने आया तो पता चला कि सामनेवाले पति-पत्नी उसके पैरेन्ट्स हैं । बाबा दो-चार दिन रहकर वापस मुंबई चला गया, जहाँ उसकी सर्विस थी । शायद वह बहन को लेने आया था जिसका ससुराल भी महाराष्ट्र में ही कहीं था ।
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गोरा कुंभार तन्मय होकर घड़ा ’घड़’ रहे हैं, मुझे वे कबीर जैसे लगते हैं लेकिन उनका चेहरा और रंग-रूप कबीर से काफ़ी अलग है । उनका बेटा भी कहीं आसपास खेल रहा है ।
गोरा भाव-विभोर होकर गा रहे हैं - " ... देह- प्रपञ्चाचा दास, ...."
मुझे बचपन में भी इन पंक्तियों का अर्थ नहीं पता था न कभी जानने की उत्सुकता हुई थी । लेकिन कल जब सुनने लगा, तो इसके अनेक अर्थ हृदय में गूँजने लगे । सीधा अर्थ जो मैंने ग्रहण किया वह यही था कि देह (शरीर) स्वयं ही ’प्रपञ्च’ और ’प्रपञ्च’ का दास है । गोरा का बेटा जो पास ही खेल रहा होता है, इस बीच बार बार फ़ोकस में आता है । 
एक घट की 'सृष्टि' पूर्ण कर गोरा उसे एक ओर रख देते हैं । उनके सामने रखे मिट्टी के ढेर में पड़े बड़े ढेलों को फोड़कर, मिट्टी को फ़ावड़े से खींच-खींचकर एक समान बारीक बनाकर उसमें पानी उँडेलते हैं । भजन के आनंद और उल्लास के बीच, मिट्टी-पानी के उस मिश्रण को गूँधने लग जाते हैं । इस बीच जब वे फ़ावड़े से मिट्टी खींच रहे होते हैं तो उनका बेटा कब अचानक उनके पीछे आकर उस ढेर में दब जाता है उन्हें पता तक नहीं चलता । पांडुरंग के नाम-स्मरण / ’कीर्तन’ में दीन-दुनिया की और अपनी देह तथा देह-प्रपञ्च की सुध-बुध खो बैठे हैं । उनकी पत्नी पानी से भरे घड़े लेकर लौटती है, तो किंचित् कौतूहल से पति को देखती है, उसके लिए गोरा की भाव-तरंग कोई नई बात नहीं रही होगी । फिर वह बच्चे को देखने के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाती है तो वह कहीं दिखलाई नहीं देता । फिर शायद, ...  हाँ उसे नज़र आती है एक झलक मिट्टी के उस ढेर में दबे अपने बच्चे की ।    
" ... देह-प्रपञ्चाचा दास, ...." गाते गाते गाने के साथ मिट्टी को पैरों से रौंदते हुए गोरा ईश्वरीय भावोन्माद में मत्त उछल रहे हैं, नृत्य कर रहे हैं और गीत समाप्त हो जाता है ।
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गोरा कुंभार की कथा को आधार बनाकर प्रस्तुत किया गया यह ध्वनिचित्र झकझोर कर रख देता है । मैं नहीं जानता कि यह भजन संत श्री तुकाराम महाराज  द्वारा सृजित था या स्वयं गोरा कुंभार ने इसे रचा होगा ।
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मेरे मोबाइल पर मैंने ’शिवाथर्वशीर्षम्’ अपनी आवाज़ में रेकॉर्ड कर रखा है । हालाँकि वीडिओ देखते समय मेरा मोबाइल चुप था, लेकिन शिवाथर्वशीर्षम् के मंत्र जरूर कानों में गूँज रहे थे । श्री दक्षिणामूर्ति और श्री नटराज की दो प्रतिमाएँ मेरे मनश्चक्षुओं के सामने थीं । दोनों प्रतिमाओं में भगवान् शिव ने एक शिशु-आकृति को अपने दाहिने चरण तले दबा रखा है । कौन है यह शिशु? 
निश्चित ही यह ’जीव-भाव’ ही है जो ’शिव’ की ही संतान है । सचमुच शिव ’पिता’ हैं, गुरु हैं, संहारकर्ता हैं, महाकाल हैं, रुद्र हैं, अक्षर हैं । 
रुद्र-अथर्वण (शिवाथर्वशीर्षम्) में कहा गया है :
अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान्-रुद्रो भोगायमानो, ...  यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ...।
यहाँ”सञ्जायते’ का अर्थ ’क्रिएशन’ नहीं है, और न ’संहार्यते’ का अर्थ है ’डिस्ट्रक्शन’!
अथर्वण के अनुसार ’अक्षर’ से ’काल’ का आगमन होता है । किस काल में? निश्चित ही ’अक्षर’ से काल का उद्भव होता है न कि काल से ’अक्षर’ का । इसलिए ’किस काल में’ जैसा प्रश्न ही अतिप्रश्न और असंगत है । 
अथर्वण पुनः इंगित करता है :
’कालाद् व्यापक उच्यते’ काल के उद्भव से ही रुद्र ’व्यापक’ हो उठते हैं । ’व्यापक’ का अर्थ हुआ ’स्पेस’ । इस प्रकार ’काल-स्थान’ ’टाइम-स्पेस’ और ’सापेक्षता का जो सिद्धान्त’ है, वह अथर्वण की प्रज्ञा के सामने औंधे मुँह गिरता है । यही वह शिशु-आकृति है जो भगवान् रुद्र के दाहिने पग के नीचे दबी कराहती है । 
शिव अथर्वण में इसी के तुरंत बाद ’सृष्टि-प्रक्रिया’ का विस्तृत लेकिन सारगर्भित उल्लेख है । ’ संहार्यते प्रजाः ...” वे अपनी ही संतान को पुनः अपने ही भीतर समेट लेते हैं । शिव करुणासागर हैं और अपने ही शिशु के ’संहार’ में उसका परम कल्याण है । वह शिशु, जो देह-प्रपञ्च और देह-प्रपञ्च का दास मात्र है ।
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मैं नहीं जानता कि इस ध्वनिचित्रमुद्रण को किसने निर्देशित किया किन्तु जिसने भी निर्देशित किया होगा ’थीम’ / कथ्य की सूक्ष्मता उसकी सूक्ष्म पकड़ से छूट न पाई ।
गोरा की आँखों में उद्दाम उल्लास, ’ध्वंस का चरम’ है । सचमुच ’ईश्वर’ हर और हरि भी है । सब केवल नटराज का नृत्य है । और ईश्वर की भक्ति के आवेश में एक विध्वंस भी अवश्य है जो उसकी करुणा की ही प्रकट अभिव्यक्ति है ।
रुद्र अथर्वण में देवगण रुद्र की स्तुति करते हुए कहते हैं :
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च कालस्तस्मै वै नमो नमः ।२०।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च यमस्तस्मै वै नमो नमः  ।२१।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च मृत्युस्तस्मै वै नमो नमः ।२२।        
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्चामृतं तस्मै वै नमो नमः ।२३।
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