September 05, 2013

आसाराम’ के बहाने, ...

आसाराम’ के बहाने, ...

      राजनीति और धर्म / अध्यात्म के क्षेत्र में  अधिकाँशतः वे ही लोग जाते और ’सफल’ भी होते हैं जो मूलतः महत्त्वाकांक्षी होते हैं । वे  औसत मनुष्य से प्रायः बहुत अधिक  बेईमान, दुष्ट और चालाक, धूर्त्त और कुटिल होते हैं । सामान्य आदमी तो बेचारा सिर्फ़ ’कन्फ़ूज़्ड’ और परिस्थितियों का मारा परिणाम / मोहरा मात्र होता है । परिस्थितियों के दबाव में अपनी अल्प-बुद्धि, नैतिकता की अपनी समझ के सहारे जीवन बिताता है । उसमें बेईमानी, दुष्टता, चालाकी, धूर्त्तता और कुटिलता भी होते हैं, लेकिन उसके भीतर सहज मौज़ूद मानवीय संवेदना उसे झकझोरती  रहती है, और  कुछ अंशों में ही सही, वह  इन सब  बुराइयों पर नियन्त्रण करता रहता है । किन्तु उसे ही जब तथाकथित ’धर्म’/ अध्यात्म, परंपरा (विवेकसम्मत या विवेकहीन) का कवच मिल जाता है, तो उसकी वह सहज मानवीय संवेदना भी नष्ट हो जाती है । फिर तो वह क्रूरता और गर्व के साथ उन परंपराओं, उस ’धर्म’ / ’अध्यात्म’ को सीढ़ी बनाकर अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को पूर्ण करने लगता है । लेकिन जिसमें यह महत्त्वाकाँक्षा शुरु से ही मौज़ूद होती है, उसे जल्दी ही समझ में आ जाता है कि भेड़िए की पोशाक में भेड़ों का शिकार करना अधिक आसान, फ़ायदेमन्द और सुरक्षित है । ऐसे लोग ’संत’, सामाजिक या सम्प्रदाय-विशेष के नेता होने का आवरण ओढ़ लेते हैं । फिर ’कॆरियर’ बनाने के लिए उस दिशा में बीस-पच्चीस साल श्रम भी करते हैं, और फिर ’संतश्री’, ’भगवान्’, ’आचार्य’, ’स्वामी’, ’महाराज’, ’गुरु’ या ’मौलाना’, ’फ़ादर, ’बापू’ जैसी कोई प्रतिष्ठित उपाधि लगाकर  धन , ऐश्वर्य और संपत्ति बटोरने लग जाते हैं । आम आदमी इतना ’प्रतिभाशाली’ नहीं होता इसलिए इनके शोषण का शिकार हो जाता है । सवाल यह है कि आखिर आम आदमी अपनी समस्याओं के ’हल’ के लिए इनके पास जाता ही क्यों है? क्या आम आदमी ’लालच’, भय’, और कल्पना / विवेक शक्ति से शून्य होता है? फिर वह कहता है; ’समाज मुझे बाध्य करता है ।’ तो आसाराम जैसों की कथा ऐसी कथा है जो कभी समाप्त नहीं होनेवाली । ’आसाराम’ तो एक उदाहरण है । सामाजिक स्तर पर यह अनवरत चलती रहेगी । मुझे इसके लिए दुःख है, उसे ही व्यक्त करने का मौका आपने मुझे दिया इसके लिए आभारी हूँ । मुझे नहीं लगता कि मैं इससे अधिक कुछ कर या कह सकूँगा । 
उपरोक्त ’नोट’  मैंने एक फ़ेसबुक-मित्र के अनुरोध पर लिखा था ।
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