September 20, 2013

डिब्बाबन्द आदमी ।

डिब्बाबन्द आदमी ।
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© विनय वैद्य 
(Vinay Kumar Vaidya, vinayvaidya.ujjain@gmail.com) 
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वह रेल के डिब्बे से उतरता है,
दफ़्तर जाकर अपना डिब्बा खोलता है ।
'डिब्बा' जिसे वह 'पोर्ट-फ़ोलिओ' कहता है ।
जिसमें उसका 'मोबाइल', 'नोट-बुक' भी होते हैं ।
तीन-चार घण्टों तक काम करने के बाद,
हाथ-मुंह धोकर फ़्रेश होता है,
फिर खोलता है, दूसरा 'डिब्बा' !
टिफ़िन का डिब्बा' ।
फ़िर कुछ घण्टे काम कर लौट जाता है घर,
हां, उसी डिब्बे में बैठकर,
जिसे रेल का डिब्बा कहते हैं ।
घर जाकर चाय पीते हुए देखता रहता है,
उस डिब्बे को,
जिसे उसकी बीवी देख रही होती है ।
बच्चे खोलते हैं पेप्सी या कोक का डिब्बा ।
बीच बीच में एक डिब्बा गाहे-बगाहे बज उठता है,
जिसे वह कान पर लगाता रहता है ।
वह बहुत व्यस्त रहता है,
बन्द रहता है अपने एक ऐसे डिब्बे में,
जो किसी को दिखलाई भी नहीं देता ।
उस डिब्बे को खोलेंगे आप,
तो हैरान रह जाएंगे!
एक बडा सा 'डिब्बा',
डिब्बे में एक और डिब्बा,
जिसमें फिर बहुत से डिब्बे,
हर डिब्बे में और भी कुछ डिब्बे ।
शायद ही कभी खोला हो उसने उन डिब्बों को !
लेकिन किसी दिन अवश्य खोलेगा वह ।
या फिर ऐसे ही जीते-जीते किसी रोज वह,
'अलजाइमर'  का शिकार हो जाएगा,
और बन्द हो जाएगा उस डिब्बे में,
जिसे 'ताबूत' कहते हैं ।
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ujjain/20/09/2013.

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