September 20, 2013

धर्म की प्रासंगिकता

धर्म की प्रासंगिकता
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इतिहास साक्षी है कि जिसे संस्कृत में 'धर्म' कहा गया है, उसका अनुवाद विदेशियों ने 'रिलीजन' religion किया । फिर सभी 'रिलीजन्स' की परस्पर तुलना करते हुए अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार बुद्धिजीवियों और परंपराओं के पक्षधरों ने उनके समान और असमान तत्वों  की विवेचना करते हुए अपने अपने 'मत' और 'विचार' व्यक्त किए । जबकि सच्चाई यह है कि 'धर्म' शब्द का अनुवाद करना ही उस शब्द के उस अर्थ के प्रति अन्याय है, जिसे ध्यान में रखते हुए जिसके लिए उक्त शब्द का आविष्कार discovery  वैदिक ऋषियों ने किया था । वैदिक ऋषियों ने जिस प्रकार संस्कृत भाषा का 'आविष्कार' किया, वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार से और युक्तिसंगत रीति से किया था । और 'वाणी' का उद्गम कैसे होता है, 'अर्थ' या तात्पर्य' से वह किस तरह घनिष्ठतः संबद्ध है, इसे उन्होंने खोजा, न कि नियोजित किया, जैसा कि अन्य सभी भाषाओं के बारे में होता है । अन्य सभी भाषाएं, वाणी के प्रचलन से जन्मीं और क्रमशः विकसित और परिवर्तित हुईं, और फिर प्रचलन के आधार पर (convention / कन्वेंशन) के आधार पर उनका व्याकरण बना । जबकि संस्कृत भाषा में ठीक इसके विपरीत हुआ । इस विषय में मैंने अपने blogs में काफ़ी लिखा है । बहरहाल, यहां सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं कि आज 'धर्म' शब्द का प्रचलित अर्थ 'मत-विशेष' हो गया है, जो संप्रदाय और परंपरा के अनुसार बदलता रहता है । और चूंकि संप्रदाय और परंपराएं स्थान और समय तथा भौतिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं इसलिए ऐसा कोई 'धर्म' नहीं हो सकता जिसका पालन सर्वत्र और सबके द्वारा किया जा सके ।  इसलिए वस्तुतः कोई धर्मभीरु भी नहीं हो सकता । फिर मनुष्य के लिए अपने आचरण के युक्त-अयुक्त होने का आधार क्या हो? इस बारे में हर मनुष्य सामान्यतः अपने विवेक से अनायास ही जानता है कि 'अधर्म' क्या है ! जैसे मनुष्य अपने को दुःखी नहीं करना चाहता, वैसे ही जिस कर्म या आचरण से दूसरों को दुःख / पीडा हो वह अधर्म है । और मैं सोचता हुं कि 'अधर्म' की इस परिभाषा से शायद ही कोई असहमत हो । लेकिन जब मनुष्य अपने या अपने विशिष्ट समुदाय के लिए सुख या लोभ, भय या ईर्ष्या से प्रेरित होकर दूसरों को दुःखी करने लगता है वहां से 'अधर्म' शुरु हो जाता है । और अगर कोई 'अधर्मभीरु' हो अर्थात अधर्म के आचरण से उसे डर लगता हो, तो वह सहज ही ऐसे ही कर्म और आचरण करेगा जो सामाजिक नैतिकता और शिष्टाचार से सुसंगत ही होंगे । इस प्रकार हम 'धर्म' शब्द के विभिन्न अर्थों से उत्पन्न विवाद से छूट जाएंगे । लेकिन जब तक हम 'धर्म-प्रदत्त' 'ईश्वर', 'आत्मा', 'परमात्मा', 'पाप-पुण्य', जन्म-पुनर्जन्म, और स्वर्ग-नरक, 'मुक्ति' आदि की धारणाओं में भटकते हैं, तब तक 'धर्मों' के बीच मतभेद रहेंगे ही । इस प्रकार के 'धर्म' सदा ही अप्रासंगिक रहे हैं, और शायद समस्त अनिष्ट का मूल हैं ।
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