July 26, 2013

उन दिनों -७७.

उन दिनों -७७.
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( © Vinay Vaidya, vinayvaidya111@gmail.com)
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      ओंकारेश्वर में  वर्ष 1991-92 के दौरान, जब मैं रहता था, मेरा चर्या-पथ, ओंकारेश्वर मन्दिर से खेड़ापति हनुमान मन्दिर, ॐकारमठ (चार सम्प्रदाय आश्रम) से होता हुआ श्री रामकृष्ण आश्रम की शाखा (मन्दिर) से ठीक पहले, बीच में स्थित एक शिव-मन्दिर से गुज़रता हुआ श्रीश्री माता आनन्दमयी तपोभूमी तक, और फ़िर आगे गायत्री-मन्दिर से आगे संगम तक, उसके बाद सिद्धनाथ महादेव होता हुआ पुनः ओंकारेश्वर मन्दिर तक होता था । बीच में एक बड़ा तीन मंजिला शिव-मन्दिर भी था, जिसमें शायद १०-१२ फ़ीट से भी अधिक ऊँचा और ५ फ़ीट घेरे वाला  स्फटिक का विशाल शिवलिंग था, जनश्रुति तथा दूसरे ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार भी, जिसे औरंगज़ेब ने खंडित कर दिया था । परिकम्मावासियों (नर्मदा की परिक्रमा करनेवाले तीर्थयात्रियों) के अनुसार औरंगज़ेब वैसे तो मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करने ही आया था, लेकिन उसने जब सुना कि इस स्फटिक के शिवलिंग में हर मनुष्य को अपने पिछले जन्म का रंग-रूप दिखलाई देता है, तो कौतूहलवश उसने उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा । वहाँ जब उसे एक ऐसे पशु का रंग-रूप और आकृति दिखलाई दी जिसे उसके धर्म में अत्यन्त अपवित्र माना जाता है, तो वह क्रोध से आग-बबूला हो उठा । और उसने मन्दिर और मूर्ति पर आक्रमण कर नष्ट कर दिया । हालाँकि अब भी यात्री और कुछ भक्त इस मन्दिर में पूजा-अर्चना, भक्ति-भावना, या बस कौतूहलवश जाते हैं । इस मन्दिर से कुछ पहले कावेरी के किनारे-किनारे चलते हुए एक और स्थल आता है, जो पुरातत्व विभाग के अनुसार बारहवीं शती में संन्यासियों के रहने के लिए निर्मित कोई मठ था । सामान्यतः उस ओर कोई शायद ही जाने का साहस करता हो । उसे देखकर मुझे वाराणसी (काशी) के  प्राचीन चार मंज़िला भवन का स्मरण हो आया जिसमें कभी एक दक्षिण भारतीय बालक ’विद्याप्राप्ति’ के लिए गुरु की तलाश में आ पहुँचा था । ’मुक्तिबोध’ की इस रचना ’ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ ने मुझे बचपन से मुग्ध कर रखा था । मुझे बहुत बाद में एक ’सत्य’ समझ में आया था कि कई बार हम उसे अनायास ही ’श्रेष्ठ’ समझ बैठते हैं, जिसे हम समझ नहीं पाते और उस भूलभुलैया में, जाने-अनजाने जीवन भर उलझे रहते हैं । मुक्तिबोध की यह कहानी शायद इसी ’सत्य’ का संदेश देती हो! जो भी हो, उस कहानी के कई ’निहितार्थ’ या निष्पन्नार्थ हो सकते हैं । बहरहाल जब मैंने उस भवन को देखा तो एक ख़याल उसे निकट से देखने का हुआ, फ़िर अपनी ’मर्यादा’ का ध्यान आया, और मैं कावेरी के बहाव की विपरीत जिस दिशा में जा रहा था, उस पर आगे बढ़ गया !अब बहुत साल बीत चुके हैं, लेकिन मेरा खयाल है कि उसके बाद सिद्धनाथ महादेव का वह छतविहीन मन्दिर रहा होगा, जिसमें सैंकड़ों मूर्तियाँ ढेर में, और कुछ पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से एक ’प्रदर्शनी’ के रूप में मन्दिर के द्वार के बाहर पंक्तिबद्ध सजाकर रखी हुई हैं ।
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