July 26, 2013

तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु - 3.

तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु - 3.
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(© Vinay Kumar Vaidya, Ujjain, 26-07-2013)

            संस्कृत में एक उपसर्ग प्रत्यय है ’सं’ । अब अगर संस्कृत को ’भाषा-विज्ञान’ के रूप में देखें, तो इस ’सं /’सन्’ उपसर्ग के प्रसंगानुसार भिन्न-भिन्न अर्थ हैं । इसे विभिन्न धातुओं से युक्त करने पर वे सारे अर्थ प्राप्त होते हैं । ’संस्कृत’ शब्द में ’सं’ के बाद आनेवाला वर्ण ’स्’ ’मित्रवत्’ आया है । अभी तो हम सिर्फ़ इतना देखें कि ’सं’ से जुड़कर ’मा’ > मीयते ’सीमा’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है । दूसरी ओर इसका अर्थ ’बीज’ होता है । इस ’सं’ से अंग्रेज़ी में ’semen, seminal, seminar, semantics, seminary, seed,.......’ की व्युत्पत्ति दृष्टव्य है । ’बीज> बीजो ’ से ’bio’ भी इसी प्रकार ’स्वनिम सादृश्य’ और ’रूपिम सादृश्य’ ( phonetic resemblance and figurative resemblance ) दोनों रीतियों से प्राप्त किया जा सकता है । ’अर्थ-साहचर्य’ से हम यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि इस प्रकार से अंग्रेज़ी और दूसरी भी बहुत सी भाषाओं के शब्दों का आगमन संस्कृत के मूल बीजाक्षरों से ही हुआ है । आयुर्वेद के ग्रन्थों में शरीर रचना-विज्ञान और शरीर क्रिया विज्ञान की मौलिक शब्दावलि को इस कसौटी पर देखें तो इसे ’सांख्यिकीय आधार’ पर भी ’परिकल्पना-परीक्षण’ ’testing of hypothesis’ की सहायता से बहुत विश्वसनीय रीति से जाँचा जा सकता है ।
इसलिए संस्कृत के ’भाषा-विज्ञान’ के रूप से हमें इतना कुछ प्राप्त होता है जो भाषा-मात्र की हमारी समझ को समृद्ध, स्पष्ट और परिपक्व भी करता है । यह जानना भी रोचक होगा कि मलयेशिया और इन्दोनेशिया में भाषा को ’बहासा’ * ही कहा जाता है,.... तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥
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॥ तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥
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