लडकियां  और खिड़कियाँ
  १  हमेशा मुझे आकर्षित करती हैं।
     वे, अच्छी या बुरी नहीं लगतीं,
     बस आकर्षित भर करती हैं, 
     मुग्ध, मोहित,  और, कभी कभी     ... स्तब्ध भी ! 
    उनमें कितनी समानताएं होती हैं, ... ... सोचता हूँ मैं !
   सुंदर, कुरूप, खिन्न,उदास, 
   खुश, शर्मीली, ,,, ,,,
   उनके चेहरों पर भाव ऐसी सहजता और गतिशीलता से आते और जाते रहते हैं जैसे,... ...
   ठीक है, मैं नहीं जानता  कि कैसे  ... !
   लेकिन यह जरूर है कि पिछले चेहरे से अगला चेहरा बिल्कुल ही अलग होता है ।
   जैसे किसी कलर फोटोग्राफ को ,
   ब्लैक एंड व्हाइट में देखा जाए,
   और उसे ही तत्काल बाद कलर में देखें ... !
   याद आता है, 'फार्बेंश्पील' ,
  -एक ब्लॉगर मित्र द्वारा भेजा गया इमेल गिफ्ट,
   जिसमें ऐसे ही अनेक स्लाइड्स क्रमशः ब्लैक एंड व्हाइट  तथा बाद में,
   कलर में, दिखलाई देते हैं।
   पर मैं बात कर रहा था लड़कियों की !
   मैं चाहता हूँ कि उन्हें परदों में देखूं !
   इसलिए नहीं कि वे बदसूरत हैं,
   -या कि वे बहुत खूबसूरत हैं,
    बल्कि बस सिर्फ़ इसलिए भर,
    क्योंकि वे  नाज़ुक, कोमल, और ताजा तरीन होती हैं,
    तेजस्वी !
     और मैं उनका तेज सह नहीं पाता ।
     ईर्ष्यावश नहीं ,   कमजोरी के कारण ! 
     मैं नहीं जानता कि वे कहाँ से पाती हैं ,
     जीवन का उत्स  !!
                                                              
                                                             ***************
 २  कमजोरी ?
     कौन सी कमजोरी ?
     पूछता हूँ, ख़ुद से मैं।
     खोलता हूँ एक खिड़की ,
     जो कि  भीतर  की ओर ही खुलती है।
     बरसों तक, तो यह भी नहीं समझ पाया था कि ,
     वह खिड़की तोड़ने पर भी  कभी बाहर की ओर  नहीं खुलती है ।
     हाँ, यह सच है ।
     कभी ख़याल ही नहीं आया था !
     किसी ने इशारा तक नहीं किया ।
     और बंद करता हूँ,
    बाहर की तरफ़ खुलनेवाली खिड़की।
     झांकता हूँ,
     भीतर की तरफ़ खुलनेवाली खिड़की से मैं !
                                                             **********************
 ३ वह वहाँ है
    -उतर जाता हूँ एक सुरंग से,
    अपने भीतर मैं ।
    मैं नहीं  जानता था कि इतनी  रौशनी होगी वहाँ !
    इतनी, कि उसने सबको लील लिया है ।
   काल को भी,  और आकाश को भी !
   न जाने  कितने समय बाद, चढ़कर उसी सुरंग के रास्ते,
   लौट आता हूँ ।
   फ़िर खोलता हूँ बाहर को खुलनेवाली एक दूसरी खिड़की !
   देखता हूँ, सब कुछ बदल गया है ।
   याद आती है निर्मल वर्मा की कहानी, 
   ''आदमी और लड़की'',
    टेबल पर, विज्ञान भैरव तंत्र रखा है,
     याद आता है,
          ''प्रारंभ में ताप पर ध्यान दो, और अंत में ज्वालाओं से बचो ।''
     खिड़की से बाहर देखता हूँ,
    कुछ लडकियां कॉलेज जा रही  हैं, और कुछ मजदूरी  करने के लिए, 
    कुछ और, पूजा के लिए मन्दिर में  ।
    एक छोटी बच्ची अपने-आप में मगन ख़ुद ही से खेल रही है ।
    अखबारवाला, अखबार देकर जा चुका है ।
     देखता हूँ, 
    -वहाँ, ग्लोबलाइजेशन है, औंधे मुंह गिरा हुआ,
     विज्ञापन हैं,,
     -काम शक्ति वर्द्धक औषधियों के ।
     प्रवचन हैं, निन्दाएं हैं, स्तुतियाँ और ''विचार'' हैं,
      विचारक हैं,
      और भी बहुत कुछ है,
     यौन शिक्षा और एड्स की बहस है,
     --- --- बाज़ार है ।
    लौ जल रही है, पतंगे भी जल रहे हैं,
    वे नहीं जानते कि कब तक ताप का ध्यान रखना है, और,
    कब लपट से बचना है !    
    वे रात भर शमा की प्रशंसा करते हैं,
    ताप में ही जल जाते हैं .
  
January 22, 2009
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वाह-वाह क्या साफगोई है
ReplyDeleteबहुत सुंदर...आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है.....आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे .....हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
ReplyDeleteचिटठा जगत में स्वागतम !
ReplyDeleteबहुत सुंदर...
ReplyDeleteबल्कि बस सिर्फ़ इसलिए भर,
ReplyDeleteक्योंकि वे नाज़ुक, कोमल, और ताजा तरीन होती हैं,
तेजस्वी !
और मैं उनका तेज सह नहीं पाता ।
ईर्ष्यावश नहीं , कमजोरी के कारण !
मैं नहीं जानता कि वे कहाँ से पाती हैं ,
जीवन का उत्स !!
-----------
लौ जल रही है, पतंगे भी जल रहे हैं,
वे नहीं जानते कि कब तक ताप का ध्यान रखना है, और,
कब लपट से बचना है !
वे रात भर शमा की प्रशंसा करते हैं,
ताप में ही जल जाते हैं .........................इन पक्तियों को बार बार दोहरान के बाद मुझे देविक स्तुति से कम नहीं लगा और दरअसल में उसी के सामने गुंजन करती ये पक्तियां ...प्रकृति भी """विनय'"" तुल्य इन्सान को ही ये सब प्रदान कर पाती है ...जो निर्मल रिधय से इस का आदर कर पाए शब्दों में उकेर पाए उसी प्रकृति के सामने ..अर्द्धांगिनी के साथ ही "देव" अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की ही सृष्टि करता है उसकी पहचान भी उसी से ,ये सत्य है जेसा की अतीत में देवी के लिए कहा गया है शंकर को मिली जगदीश्वर की एक मात्र पदवी है ...तुम्हारे पाणीग्रहण ..का ही फल है ..शाम्भवी..बहुत सुन्दर रिध्यंगम ...देवी की क्या विवेचना की जाये इस के सामने ?शुक्रिया सर मुझे इस पवन शब्द माल में जोड़ने का !!Nirmal paneri
बल्कि बस सिर्फ़ इसलिए भर,
ReplyDeleteक्योंकि वे नाज़ुक, कोमल, और ताजा तरीन होती हैं,
तेजस्वी !
और मैं उनका तेज सह नहीं पाता ।
ईर्ष्यावश नहीं , कमजोरी के कारण !
मैं नहीं जानता कि वे कहाँ से पाती हैं ,
जीवन का उत्स !!
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लौ जल रही है, पतंगे भी जल रहे हैं,
वे नहीं जानते कि कब तक ताप का ध्यान रखना है, और,
कब लपट से बचना है !
वे रात भर शमा की प्रशंसा करते हैं,
ताप में ही जल जाते हैं .........................इन पक्तियों को बार बार दोहरान के बाद मुझे देविक स्तुति से कम नहीं लगा और दरअसल में उसी के सामने गुंजन करती ये पक्तियां ...प्रकृति भी """विनय'"" तुल्य इन्सान को ही ये सब प्रदान कर पाती है ...जो निर्मल रिधय से इस का आदर कर पाए शब्दों में उकेर पाए उसी प्रकृति के सामने ..अर्द्धांगिनी के साथ ही "देव" अपने व्यक्तित्व को मिलाकर एक नये जीवन की ही सृष्टि करता है उसकी पहचान भी उसी से ,ये सत्य है जेसा की अतीत में देवी के लिए कहा गया है शंकर को मिली जगदीश्वर की एक मात्र पदवी है ...तुम्हारे पाणीग्रहण ..का ही फल है ..शाम्भवी..बहुत सुन्दर रिध्यंगम ...देवी की क्या विवेचना की जाये इस के सामने ?शुक्रिया सर मुझे इस पवन शब्द माल में जोड़ने का !!nirmal Paneri
जीवन का उत्स... मानो सब कह दिया ... बहुत अच्छा लगा पढना...._/\_
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