बीइंग लाइक-माइन्डेड
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पिछले बीस वर्षों के समय में समय का पहिया बहुत ही विचित्र गति से घूमता रहा है। दुनिया छोटी से छोटी होती गई है, जबकि मनुष्य से मनुष्य के बीच की दूरियाँ अधिक और बड़ी से बड़ी ही होती चली गई हैं ।
है न यह एक विडम्बना, एक बहुत अजीब विरोधाभास!
अगर कोविड 19 का आगमन न होता तो दुनिया वैसी ही मंथर गति से चलती रहती, जैसी कि वर्ष 2000 से पहले चला करती थी।
फिर भी हर मनुष्य अपने अपने ढंग से अपनी चिन्ताओं, भयों और समस्याओं का सामना कर रहा है। और हर किसी को यह भरोसा है, कि अन्ततः एक दिन सब ठीक हो जाएगा। हर कोई ही व्यक्तिगत, सामूहिक और परिस्थितियों के आधार पर नई नई घटनाओं के बारे में अपने तरीके से तात्कालिक या दीर्घकालिक दृष्टिकोण से अपने वर्तमान का मूल्याँकन करता है, लेकिन जब यथार्थ के तल पर अनुभव करता है कि जो नई स्थितियाँ उसके समक्ष आ रही हैं वे नितान्त अप्रत्याशित हैं, तो भौंचक्का होकर रह जाता है। जो समृद्ध हैं वे और अधिक समृद्ध होना चाहते हैं, जो निर्धन हैं वे आजीविका की चिन्ताओं में डूबे रहते हैं। और मध्यम वर्ग सुविधाओं और ज़रूरतों के बीच सामञ्जस्य नहीं कर पाता।
एक और महत्वपूर्ण जो बात हुई है वह है - तथाकथित 'लाइक-माइंडेड' लोगों द्वारा अपने अपने समूह / समुदाय बनाकर एक-दूसरे से अनेक और विभिन्न प्रकार के विषयों पर चर्चा, परिचर्चा करना। इन्टरनेट की मदद से अब यह और अधिक सुविधाजनक और आसान भी हो गया है। ऐसे कोई भी समूह किसी न किसी साहित्यिक, परंपरा, संस्कृति, धर्म, व्यापार-व्यवसाय, संगठन, खेल, कला, विज्ञान, तकनीक से लेकर भाषाई या राजनीतिक, आधार आदि पर बनते हैं, और किसी आदर्श, लक्ष्य, उद्देश्य, व आभासी, काल्पनिक या वास्तविक समस्याओं और विषयों पर चर्चाएँ करते हैं। कुछ समूह तो इस विषय में बहुत हद तक पूरी तरह सुनिश्चित होते हैं, क्योंकि वे किन्हीं ख़ास, तय धारणाओं से, निश्चयपूर्वक अत्यन्त दृढता से जुड़े होते हैं। जैसे साम्यवाद, पूँजीवाद, धर्म, मत-विशेष की विचारधारा के कट्टर अनुयायी। एक और मजे की बात यह भी है, कि उस मत-विशेष के संबंध में वे यद्यपि परस्पर सहमत होते भी हों, तो भी अपने लाभ और लोभ के अनुसार उसकी व्याख्या करने के प्रयास से प्रेरित होने के कारण, दूसरे विषयों पर उनकी मतभिन्नता, उनके बीच की द्वेष की भावना को नहीं मिटा पाती है।
उदाहरण के लिए, नास्तिक मत के अनुयायी, उस मत को अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर उसे अपने निहित स्वार्थ के अनुकूल बना लेते हैं। इसलिए रूसी साम्यवाद और चीनी साम्यवाद के बीच गहरे मतभेद हैं। यह केवल एक उदाहरण है। किन्तु केवल उस मत के संदर्भ में वे अवश्य ही परस्पर चर्चा करने का प्रयास करते हैं।
और अज्ञेयवाद (agnosticism) को माननेवाले भी इतना तो जानते ही हैं कि वे कुछ नहीं जानते हैं। किन्तु क्या वे भी अपने स्वयं के अस्तित्व को अस्वीकार और उससे अनभिज्ञ होने का दावा कर सकते हैं! क्या ऐसा कोई दावा हास्यास्पद और तर्क से विसंगत (irrational) नहीं होगा?
तात्पर्य यह कि किसी भी विशेष समूह के पारस्परिक चिन्तन का एक तय दायरा होता है। चर्चा की स्वतंत्रता का यह दायरा जितना संकुचित या विस्तीर्ण होता है, उसी सीमा तक उनके बीच वैचारिक आदान-प्रदान संभव होता है।
इसलिए वैचारिक स्वतंत्रता जैसा कुछ होता ही नहीं है।
हाँ यह तो अवश्य हो सकता है, और प्रायः यही होता भी है, कि अपने उस विशेष समूह की गतिविधियों के माध्यम से वे अपने आपके गतिशील (या प्रगतिशील) होने के भ्रम को निरंतर पुष्ट करते रहें।
साहित्यिक या कला समूहों के बारे में भी यही होता है। इसलिए अंततः सभी समूह अपरिहार्यतः अलग अलग खेमों में बँट जाते हैं।
क्या विचार और वैचारिकता पर अवलंबित चर्चाएँ कभी किसी ठोस निश्चय पर पहुँच सकती हैं?
समूह के हितों की दृष्टि से तो यह संभव प्रतीत होता है, किन्तु पूरे मानव-समुदाय के संदर्भ में यह लगभग असंभव ही है।
जब तक मन किसी आग्रह, पूर्वाग्रह या दुराग्रह से बँधा होता है, तब तक वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है। उन विषयों के बारे में, जो कि नितान्त व्यावहारिक हैं, अवश्य ही तकनीक और विज्ञान का उपयोग है, किन्तु जैसे ही तकनीक और विज्ञान किसी समूह या वर्ग विशेष के हितों से जुड़ जाते हैं, वे मनुष्य और मनुष्य के बीच द्वेष का कारण हो जाते हैं। इसलिए जब तक मानवमात्र के सन्दर्भ पर ध्यान नहीं दिया जाता, और मन आग्रहों, पूर्वाग्रहों से बँधा होता है, स्थायी समाधान नहीं प्राप्त होता।
एक अति विशिष्ट वर्ग होता है तथाकथित अध्यात्मवादियों का, जिन्हें अध्यात्म में रुचि होती है, उनकी रुचि इससे भी बढ़कर उनके जैसे ही 'लाइक-माइन्डेड' और लोगों में होती है। वे भी किसी संस्था से जुड़ जाते हैं, स्वयं ही गुरु या फिर किसी और तरह के आध्यात्मिक धार्मिक मार्गदर्शक, आचार्य आदि बन बैठते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि इस प्रकार का हर व्यक्ति ही लोगों का भावनात्मक शोषण करता हो, किन्तु चूँकि वह इतना सरल भी हो सकता है, कि लोग उसकी सरलता का दुरुपयोग करने लगते हैं, इस ओर भी उसका ध्यान नहीं जा पाता। बल्कि ऐसे लोग ही उसे गुरु आदि कहकर महिमामंडित करते हैं, और उसकी विनम्रता को उसकी कमज़ोरी समझ लेते हैं, और वह नम्रता और संकोच के कारण उनकी उपेक्षा या अवहेलना भी नहीं कर पाता।
उसके अपने आग्रह भी हो सकते हैं, उसमें महत्वाकाँक्षाएँ आदि हो सकती हैं, किन्तु ऐसी चारित्रिक दुर्बलता होने या न होने का प्रमाण और कोई कैसे तय कर सकता है! किन्तु इस प्रकार वह जाने-अनजाने ही उनकी नासमझियों का शिकार हो जाता है।
स्वयं को वह गुरु स्वीकार कर ले, तो उसे अहंकारी समझा जाने लगता है और यदि स्वीकार न करे तो इसे उसकी हुई ओढ़ी हुई, दिखावटी विनम्रता समझ लिया जाता है। अगर वह लोगों से बातचीत करने का इच्छुक न हो तो लोग उसे अहंकारी समझ लेते हैं। यदि वह पैसे और संपत्ति आदि न रखे तो उसे अकर्मण्य आलसी कहा जा सकता है। यदि वह सामाजिक तौर तरीकों का निर्वाह न करे तो भी लोग उसे नापसंद करने लगते हैं। यद्यपि उसे इस सबसे कोई मतलब नहीं होता, लेकिन उसे तब दूसरों से लगाव भी नहीं होता। इसलिए किसी से चर्चा या विवाद भी नहीं करता है, और किसी को उपदेश देना तो उसके लिए संभव ही नहीं होता क्योंकि वह किसी भी दूसरे में कोई दोष या कमी नहीं देखता। वस्तुतः तो वह न तो संसार से अपने को भिन्न समझता है, न संसार को अपने आपसे।
विद्वान या अनपढ़, बौद्धिकता भावनात्मकता या कलात्मकता की अभिरुचियों से युक्त भी हो सकता है, किन्तु वह किन्हीं भी वैचारिक मान्यताओं से बँधा नहीं होता। क्योंकि उसे पता होता है कि बौद्धिकता, विद्वत्ता, भाषा और वैचारिक नीति-निपुणता के माध्यम से समाज में प्रतिष्ठा और मान-सम्मान, और सत्ता का सुख भी प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु इस सबके प्रति उसे कोई रुचि ही नहीं होती।
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