यदा-यदा हि
20 जनवरी 2009 को गूगल पर प्रयोग के लिए यह ब्लॉग शुरू किया था।
रामलला के जन्म-स्थल को ध्वस्त कर आततायी अधर्म ने कोई भवन वहाँ खड़ा किया था।
बाबर का धर्म आततायी था / है या नहीं, इस बारे में कुछ कहने का अधिकार मुझे नहीं है और न मैं इस बारे में ठीक से जानता हूँ। न ही किसी की धार्मिक भावनाओं पर आघात करना मैं चाहूँगा। किन्तु बाबर का कृत्य अवश्य ही अधर्म का ही ज्वलंत उदाहरण है यह कहना अनुचित न होगा।
किसी भी धर्म-स्थल को ध्वस्त करना क्या अधर्म ही नहीं है?
गीता में अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय 18 श्लोक 47 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से, अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त हो तो भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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बाबर के अनुयायी भी इससे इंकार नहीं कर सकते।
बाबर का 'धर्म' जो भी रहा हो, बाबर का यह कृत्य धर्म कैसे कहा जा सकता है ?
इसलिए बाबर का धर्म माननेवाले यह भी मानेंगे कि इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने का समय आ गया है।
और इस बात के लिए सभी मिल-बैठकर सौहार्द्र से बातचीत कर परस्पर सहमति और प्रसन्नता से अयोध्या में श्रीराम के मंदिर को बनाने के लिए, रामलला के वचन को पूरा होने देने के लिए अवसर प्रदान करने का श्रेय भी ले सकते हैं।
इसके लिए सरकार के द्वारा कानून बनाए जाने की माँग करने का मतलब है सरकार को इसका श्रेय देना।
लेकिन सरकार किन्हीं भी कारणों से निर्णय लेने में असमर्थ दिखाई देती है।
उस स्थान की अक्षय स्मृति धर्म के मानस-पटल पर आज भी पत्थर की लकीर से भी अधिक अमिट अक्षरों में अंकित है।
रामलला भला कैसे भूल सकते हैं ?
उन्होंने जो 'वचन' गीता में दिया था, उसे पूरा करना उनका ही दायित्व है किंतु हम भारतवासी अपना कर्तव्य क्यों भूलें?
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श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के you-tube पर दिए गए इस उद्बोधन को पढ़कर साहस हुआ कि 'अयोध्या' के बारे में यह पोस्ट प्रस्तुत करूँ। वैसे मैं भी उन्हीं की तरह, किसी भी राजनीतिक विचारधारा / पार्टी से सर्वथा असम्बद्ध हूँ।
यहाँ यह लिंक इसीलिए दे रहा हूँ कि सभी पढ़नेवाले उनके विचारों से अवगत हो सकें।
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20 जनवरी 2009 को गूगल पर प्रयोग के लिए यह ब्लॉग शुरू किया था।
रामलला के जन्म-स्थल को ध्वस्त कर आततायी अधर्म ने कोई भवन वहाँ खड़ा किया था।
बाबर का धर्म आततायी था / है या नहीं, इस बारे में कुछ कहने का अधिकार मुझे नहीं है और न मैं इस बारे में ठीक से जानता हूँ। न ही किसी की धार्मिक भावनाओं पर आघात करना मैं चाहूँगा। किन्तु बाबर का कृत्य अवश्य ही अधर्म का ही ज्वलंत उदाहरण है यह कहना अनुचित न होगा।
किसी भी धर्म-स्थल को ध्वस्त करना क्या अधर्म ही नहीं है?
गीता में अध्याय 3 श्लोक 35 तथा अध्याय 18 श्लोक 47 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
अध्याय 3, श्लोक 35,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
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(श्रेयान्-स्वधर्मः विगुणः परधर्मात्-स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भयावहः ॥
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से, अपने अल्प या विपरीत गुणवाले धर्म का आचरण उत्तम है, क्योंकि जहाँ एक ओर अपने धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी कल्याणप्रद होता है, वहीं दूसरे के धर्म का आचरण भय का ही कारण होता है ।
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अध्याय 18, श्लोक 47,
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श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥
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(श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् सु-अनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतम् कर्म कुर्वन् न आप्नोति किल्बिषम् ॥)
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भावार्थ :
अच्छी प्रकार से आचरण किए गए दूसरे के धर्म की तुलना में अपना स्वाभाविक धर्म, अल्पगुणयुक्त हो तो भी श्रेष्ठ है, क्योंकि अपने स्वधर्मरूप कर्म का भली प्रकार से आचरण करते हुए मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।
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बाबर के अनुयायी भी इससे इंकार नहीं कर सकते।
बाबर का 'धर्म' जो भी रहा हो, बाबर का यह कृत्य धर्म कैसे कहा जा सकता है ?
इसलिए बाबर का धर्म माननेवाले यह भी मानेंगे कि इस ऐतिहासिक भूल को सुधारने का समय आ गया है।
और इस बात के लिए सभी मिल-बैठकर सौहार्द्र से बातचीत कर परस्पर सहमति और प्रसन्नता से अयोध्या में श्रीराम के मंदिर को बनाने के लिए, रामलला के वचन को पूरा होने देने के लिए अवसर प्रदान करने का श्रेय भी ले सकते हैं।
इसके लिए सरकार के द्वारा कानून बनाए जाने की माँग करने का मतलब है सरकार को इसका श्रेय देना।
लेकिन सरकार किन्हीं भी कारणों से निर्णय लेने में असमर्थ दिखाई देती है।
उस स्थान की अक्षय स्मृति धर्म के मानस-पटल पर आज भी पत्थर की लकीर से भी अधिक अमिट अक्षरों में अंकित है।
रामलला भला कैसे भूल सकते हैं ?
उन्होंने जो 'वचन' गीता में दिया था, उसे पूरा करना उनका ही दायित्व है किंतु हम भारतवासी अपना कर्तव्य क्यों भूलें?
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श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के you-tube पर दिए गए इस उद्बोधन को पढ़कर साहस हुआ कि 'अयोध्या' के बारे में यह पोस्ट प्रस्तुत करूँ। वैसे मैं भी उन्हीं की तरह, किसी भी राजनीतिक विचारधारा / पार्टी से सर्वथा असम्बद्ध हूँ।
यहाँ यह लिंक इसीलिए दे रहा हूँ कि सभी पढ़नेवाले उनके विचारों से अवगत हो सकें।
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