प्रसंगवश
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"Saffronization / भगवाकरण" इस शब्द का प्रयोग हिन्दूवादी-संगठनों के विरोधी अपने राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए इस प्रकार करते हैं जिससे लगता है जैसे कि "Saffronization / भगवाकरण" के पक्षधर हिन्दुत्ववादी दृष्टिकोण देश पर और जनता पर बलपूर्वक लादना चाहते हों।
काश्मीर की वर्त्तमान स्थिति जो नेहरूजी के समय से बिगड़ते-बिगड़ते यहाँ तक आ चुकी है कि अलगाववादी ताकतों ने काश्मीरियत के मुद्दे को भुलाकर भारत को तोड़ने के लक्ष्य को मूल मुद्दा बना दिया है।
किंतु काश्मीर और भारत कैसे एक दूसरे से अभिन्न हैं इसे समझने के लिए यदि हम आदिशंकराचार्य रचित "आनन्दलहरी" के प्रथम तीन श्लोकों को स्मरण करें तो "Saffronization / भगवाकरण" का वास्तविक अर्थ समझना आसान हो जाता है और तब भारत का "Saffronization / भगवाकरण" किया जाना संभवतः हमारे लिए गर्व का विषय होगा।
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आनन्दलहरी (श्रीशङ्कराचार्यकृता)
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भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि ।
न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपति-
स्तदान्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः ॥१
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपिपदै-
विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः ।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः
कथङ्कारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे ॥२
मुक्घे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता ।
स्फुरत्काञ्चीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम् ॥३
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प्रस्तुत स्तवन माता पार्वती की स्तुति में रचा गया है। विचारणीय है कि श्रीशंकराचार्य जिनका जन्म कालडी नामक स्थान पर, दक्षिण भारत के वर्त्तमान केरल राज्य में हुआ था। तथापि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का ऐतिहासिक प्रमाण इससे बढ़कर क्या हो सकता है कि उन्होंने भारत राष्ट्र को एक सूत्र में बांधते हुए सनातन धर्म के न सिर्फ चार मठों की स्थापना की, बल्कि अनेक संस्कृत रचनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति और दर्शन को पुनरुज्जीवित किया और सशक्त तथा दृढ आधार प्रदान किया।
नगपतिकिशोरी पार्वती का नाम है जो हिमालय की पुत्री हैं।
"ललाटे काश्मीरं" में उन्होंने न केवल माता पार्वती के ललाट पर राजित केसर / केशर को प्रतीकार्थक रूप में भारत माता के मस्तक के रूप में चित्रित किया, बल्कि काश्मीर का भारत के लिए क्या महत्त्व है यह भी दर्शाया।
काश्मीर की संस्कृति और इतिहास को भारत के सन्दर्भ में देखें तो लल्लेश्वरी या लल्ल-दय्द (1320-1392) को कैसे भुलाया जा सकता है जो ललिता अर्थात् पार्वती के संस्कृत नाम का काश्मीरीकरण / Saffronization है।
इस प्रकार माता पार्वती का ही एक रूप इस भक्त-कवियित्री के रूप में धरा पर अवतरित हुआ ऐसा सोचना अनुचित न होगा। 'दय्द' संस्कृत 'दुहिता' अर्थात् 'पुत्री' का ही पर्याय है और जहाँ पार्वती / ललिता हिमालयपुत्री है, वहीं लल्ला भी हिमालयपुत्री ही है इसमें संदेह नहीं।
क्या तब भारत का "Saffronization / काश्मीरीकरण" किया जाना प्रशंसनीय नहीं होगा?
लेकिन राजनीतिज्ञ सत्ता के लिए वोट, वोटों के लिए तुष्टिकरण, और तुष्टिकरण के लिए "Saffronization / काश्मीरीकरण" को "भगवाकरण" कहकर हिंदुत्व का मज़ाक तो उड़ाते ही हैं, भारत और हिंदुत्व के प्रति अपने विद्वेष का प्रदर्शन भी करते हैं।
समय आ गया है कि "Saffronization / काश्मीरीकरण" को एक तमग़े / ताम्रक की तरह गर्व से अपने सीने पर टांका जाये। यह स्वाभिमान की बात है न कि उपहास, अपमान या निंदा की।
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"Saffronization / भगवाकरण" इस शब्द का प्रयोग हिन्दूवादी-संगठनों के विरोधी अपने राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए इस प्रकार करते हैं जिससे लगता है जैसे कि "Saffronization / भगवाकरण" के पक्षधर हिन्दुत्ववादी दृष्टिकोण देश पर और जनता पर बलपूर्वक लादना चाहते हों।
काश्मीर की वर्त्तमान स्थिति जो नेहरूजी के समय से बिगड़ते-बिगड़ते यहाँ तक आ चुकी है कि अलगाववादी ताकतों ने काश्मीरियत के मुद्दे को भुलाकर भारत को तोड़ने के लक्ष्य को मूल मुद्दा बना दिया है।
किंतु काश्मीर और भारत कैसे एक दूसरे से अभिन्न हैं इसे समझने के लिए यदि हम आदिशंकराचार्य रचित "आनन्दलहरी" के प्रथम तीन श्लोकों को स्मरण करें तो "Saffronization / भगवाकरण" का वास्तविक अर्थ समझना आसान हो जाता है और तब भारत का "Saffronization / भगवाकरण" किया जाना संभवतः हमारे लिए गर्व का विषय होगा।
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आनन्दलहरी (श्रीशङ्कराचार्यकृता)
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भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पञ्चभिरपि ।
न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपति-
स्तदान्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः ॥१
घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपिपदै-
विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः ।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृङ्मात्रविषयः
कथङ्कारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे ॥२
मुक्घे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता ।
स्फुरत्काञ्चीशाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम् ॥३
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प्रस्तुत स्तवन माता पार्वती की स्तुति में रचा गया है। विचारणीय है कि श्रीशंकराचार्य जिनका जन्म कालडी नामक स्थान पर, दक्षिण भारत के वर्त्तमान केरल राज्य में हुआ था। तथापि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का ऐतिहासिक प्रमाण इससे बढ़कर क्या हो सकता है कि उन्होंने भारत राष्ट्र को एक सूत्र में बांधते हुए सनातन धर्म के न सिर्फ चार मठों की स्थापना की, बल्कि अनेक संस्कृत रचनाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति और दर्शन को पुनरुज्जीवित किया और सशक्त तथा दृढ आधार प्रदान किया।
नगपतिकिशोरी पार्वती का नाम है जो हिमालय की पुत्री हैं।
"ललाटे काश्मीरं" में उन्होंने न केवल माता पार्वती के ललाट पर राजित केसर / केशर को प्रतीकार्थक रूप में भारत माता के मस्तक के रूप में चित्रित किया, बल्कि काश्मीर का भारत के लिए क्या महत्त्व है यह भी दर्शाया।
काश्मीर की संस्कृति और इतिहास को भारत के सन्दर्भ में देखें तो लल्लेश्वरी या लल्ल-दय्द (1320-1392) को कैसे भुलाया जा सकता है जो ललिता अर्थात् पार्वती के संस्कृत नाम का काश्मीरीकरण / Saffronization है।
इस प्रकार माता पार्वती का ही एक रूप इस भक्त-कवियित्री के रूप में धरा पर अवतरित हुआ ऐसा सोचना अनुचित न होगा। 'दय्द' संस्कृत 'दुहिता' अर्थात् 'पुत्री' का ही पर्याय है और जहाँ पार्वती / ललिता हिमालयपुत्री है, वहीं लल्ला भी हिमालयपुत्री ही है इसमें संदेह नहीं।
क्या तब भारत का "Saffronization / काश्मीरीकरण" किया जाना प्रशंसनीय नहीं होगा?
लेकिन राजनीतिज्ञ सत्ता के लिए वोट, वोटों के लिए तुष्टिकरण, और तुष्टिकरण के लिए "Saffronization / काश्मीरीकरण" को "भगवाकरण" कहकर हिंदुत्व का मज़ाक तो उड़ाते ही हैं, भारत और हिंदुत्व के प्रति अपने विद्वेष का प्रदर्शन भी करते हैं।
समय आ गया है कि "Saffronization / काश्मीरीकरण" को एक तमग़े / ताम्रक की तरह गर्व से अपने सीने पर टांका जाये। यह स्वाभिमान की बात है न कि उपहास, अपमान या निंदा की।
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