May 31, 2015

आज की कविता : वर्तमान

आज की कविता
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वर्तमान
एक खिड़की अँधेरी सी,
एक खिड़की उजली सी,
खिड़की के भीतर,
के भीतर की खिड़की...
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May 26, 2015

आज की संस्कृत रचना

आज की संस्कृत रचना
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युधि स्थिरो यो युधिष्ठिरः
कृष्णो तु कार्ष्णमेव च ।
अर्जुनो हि ऋजुताम् याति
अर्जति लभते जयम् ॥
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युधिष्ठिर तो युद्ध से अप्रभावित हैं,
और श्रीकृष्ण सदा पार्श्व में, पर्दे के पीछे से सूत्र संचालन करते हैं,
केवल अर्जुन ही हैं जो सरल भाव से अपने प्राप्त हुए कर्तव्य को पूरा करते हैं और अन्त में विजय प्राप्त करते हैं ।
इसलिए गीता का उपदेश युधिष्ठिर को नहीं अर्जुन को ही दिया गया । वे ही सर्वाधिक प्रासंगिक हैं ।
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May 18, 2015

इस बारे में

इस बारे में  ?
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बहुत समय से इस बारे में सोचता रहा हूँ ।
अनेक बार कुछ लिखा भी,  लेकिन अभी तक उसे 'पब्लिश' करने से कतराता ही रहा।
लगता है, अभी भी यह 'पोस्ट' शायद  'ड्राफ़्ट' ही रहेगी।
मेरी आखिरी 'पोस्ट' जिसे इससे पहले लिखा था, मेरी एक संस्कृत रचना थी जिसे मैंने कोई शीर्षक नहीं दिया था।  उस रचना पर एक पाठक की 'प्रतिक्रिया' 'God bless you' के रूप में प्राप्त हुई थी । नाम का उल्लेख किए बिना बतलाना चाहूँगा कि उसने अपना परिचय एक 'Jesuit' के रूप में दिया था।
वर्ष 1970 में मैंने ग्यारहवीं उत्तीर्ण किया था और मेरे बड़े भाई द्वारा दिए गए 'सत्यार्थ प्रकाश' को पढ़ रहा था। यद्यपि उस ग्रन्थ की भाषा थोड़ी कठिन और अपरिचित सी लगती थी लेकिन उसकी विषय-वस्तु एक हद तक  रोचक भी थी।  वहीं से मुझे भारत में मौजूद बहुत से पंथों सम्प्रदायों और 'धर्मों' के बारे में पढ़ने को मिला। 'वेद' की महानता और स्वामीजी का अपना दृष्टिकोण मुझे प्रभावित जरूर करते थे लेकिन मुझे लगता था कि 'पुराणों' के प्रति उनके मन में सम्मान नहीं था।  'भागवत' की तो वे और कठोर आलोचना करते थे। और यह तो मानना ही होगा कि पंडे-पुजारियों ने 'धर्म' का जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उससे यह कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि महर्षि दयानंद सरस्वती (सत्यार्थ प्रकाश के रचयिता) के मन में 'भागवत' और 'पुराणों', रामायण और महाभारत की ऐसी प्रतिमा क्यों बनी होगी कि  वे इनके कट्टर विरोधी बन गए।
वर्ष 1983 में मुझे प्रथम बार 'I AM THAT' (जिसका हिंदी अनुवाद मैंने किया, जो 'अहं ब्रह्मास्मि' शीर्षक से वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ)  और श्री निसर्गदत्त महाराज से आध्यात्मिक जिज्ञासुओं की इस बातचीत के बारे में पता चला, और जब मैंने इसे पढ़ना प्रारम्भ किया, तो उसके 'संकलनकर्ता' मॉरिस फ्रीडमन  की प्रतिभा के बारे में पढ़कर जितना विस्मयमुग्ध हुआ उतना शायद और कभी नहीं हुआ।
'यहूदी' (Jew)  परंपरा के बारे में मुझे बचपन से ही उत्सुकता रही है और मेरा ख़याल है कि इस 'जाति' में जितने प्रतिभाशाली और विश्वविख्यात व्यक्ति हुए हैं उतने शायद ही किसी अन्य जाति में हुए होंगे। Albert  Einstein, Yehudi Manuhin, Sigmund Freud, जैसे लोग बिरले ही होते हैं, और इनके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे हमेशा रही।  किन्तु उनके 'धर्म' के बारे में सदैव से विश्वसनीय जानकारी न मिल पाने से उनके बारे में प्रामाणिकता से कुछ लिखना मुझे हमेशा अनुचित प्रतीत होता रहा।
किन्तु जब मैंने वेदों में 'यह्व' (ऋग्वेद मण्डल 10) में विस्तार से पढ़ा तो मुझे इस बारे में विश्वसनीय ऐसा कुछ मिला जिससे 'Jew', 'Catholic' और 'Christianity' तथा 'Islam' की पारस्परिक अवस्थिति (stance) को मैं सूत्रबद्ध कर सकता हूँ।  मेरा कोई दावा नहीं है कि मेरी विवेचना त्रुटिरहित है, किन्तु मेरे अपने लिए तो अवश्य ही संतोषजनक है। लेकिन फिर भी उसे यहाँ व्यक्त करने से किसी की 'धार्मिक भावनाओं' को चोट लग सकती है इसलिए संयम रखते हुए उस बारे में कुछ नहीं लिखूंगा।
किन्तु जब ईसाई (कैथोलिक / प्रोटेस्टेंट / और दूसरे विभिन्न प्रकार के) मतावलम्बी मुझसे संपर्क करना चाहते हैं तो मुझे अवश्य ही दुविधा होती है, क्योंकि मुझे उस परम्परा से वैर नहीं तो ऐसा कोई लगाव भी नहीं है, और 'श्रद्धा' तो कतई नहीं है।
इसलिए जब चर्चों के द्वारा अन्य धर्मावलम्बियों को अपने मत में दीक्षित करने के बारे में पढ़ता हूँ, जब उनके बाल-यौन-शोषण के (सु?)समाचार दृष्टिगत होते हैं तो भी बस उपेक्षा ही करता हूँ।  लेकिन जब बारे में पढ़ता हूँ कि कैसे उन उन ईसाई 'मठों' में फँसे हुए कुछ अभागे बुरी तरह त्रस्त हैं और त्राण के लिए इधर उधर हाथ-पैर पटक रहे हैं, तो कभी कभी लगता है कि उनमें से यदि कोई मेरी ओर आशाभरी दृष्टि से देखता है तो मुझे उसकी सहायता करना चाहिए।  दूसरी ओर जब मुझे पता चलता है कि मैं ही अपनी खयाली दुनिया में ऊटपटाँग कुछ सोच रहा था, और वास्तव में मुझसे 'संपर्क' करनेवाला किसी भी चर्च से जुड़ा वह 'ईसाई' तो मुझे ही अपने 'मत' / 'विशवास' में दीक्षित करने के ध्येय से मुझसे संपर्क करना चाहता है, तो मुझे अपनी मूर्खता पर हँसी आ जाती है।
इस 'Jesuit' से जब  'God bless you' की प्रतिक्रिया मिली तो मैंने सोच लिया -
 '… और नहीं बस और नहीं, … ग़म के प्याले और नही …  "
और यह सब लिखते लिखते नज़र जाती है इस खबर पर   
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May 15, 2015

आज की संस्कृत रचना

आज की संस्कृत रचना
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यत्वाऽपि न शक्नोति त्यक्तुम् काकः कर्कशम् ।
कोकिला तु अयत्नेनैव भाषते मधुरस्वरम् ॥
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yatvā:'pi na śaknoti tyaktum kākaḥ karkaśam |
kokilā tu ayatnenaiva bhāṣate madhurasvaram ||
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Even if tries so, a crow can't get rid of rough tone,
(In comparison,)
A koel (kokila) sings in sweet tones without any effort!
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May 14, 2015

आज की कविता / एक दिन

आज की कविता
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एक दिन
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और,
एक दिन प्रियतम ने मुझसे कहा,
इससे पहले,
कि तुम मुझे खोज पाते,
मैं तुम्हें खोज चुका था !
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(मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी मेरी कविता
And one day,
My beloved said unto me,
"I found out you,
Before you could find out,
me!"
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का हिन्दी अनुवाद)
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माटी कहे इन्सान से!

आज की कविता
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माटी कहे इन्सान से!
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शहर की मिट्टी, ख़ाक गर्द, धूल,
गाँव की मिट्टी, साँस, भभूति, फूल!
शहर की मिट्टी, मिट्टी में मिल जाती,
गाँव की मिट्टी, नेह में मुस्कुराती ।
शहर की मिट्टी, आँधी तूफ़ान बवण्डर,
गाँव की मिट्टी, प्यार का समन्दर,
शहर की मिट्टी, धूप में जलती सड़क,
गाँव की मिट्टी, भोर की उजली महक !
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May 05, 2015

शेक्सपीयर, सॉनेट् 147 / SONNET 147

Shakespere / Sonnet 147.
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I admit I never read Him.
Yesterday I was 'searching' for "As black as dark" because I was thinking of writing a poem including / starting with this very line.
And then in 'Search' I found this Sonnet, namely -147.
I read this several times, and because my way of understanding literature is first understanding the same in my own way and comprehending it in many aspects. Sometimes when I feel I am really 'connected', I translate the same in Hindi / Sanskrit. And in the same vein I translated this one.
Dedicated to those who can understand and love Hindi.
And I don't think this needs any 'introduction'. In my view, an artist, a painter, composer, and a man of letters needs no introduction.
The one who really appreciates 'Art' in any form could readily find oneself in tune with the 'composition'.
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SONNET 147


My love is as a fever, longing still,
For that which longer nurseth the disease,
Feeding on that which doth preserve the ill,
The uncertain sickly appetite to please.
My reason, the physician to my love,
Angry that his prescriptions are not kept,
Hath left me, and I desperate now approve,
Desire is death, which physic did except.
Past cure I am, now reason is past care,
And frantic-mad with evermore unrest;
My thoughts and my discourse as madmen's are,
At random from the truth vainly express'd;
For I have sworn thee fair and thought thee bright,
Who art as black as hell, as dark as night.
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शेक्सपीयर,
सॉनेट् 147.
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मेरा प्रेम एक ज्वर है, अभी तक तरसता हुआ,
उसके लिए जो देर तक पालता है रोग को,
और उससे पोषित, जो यद्यपि रोगी की रक्षा करता है,
इष्ट को प्रसन्न करने की उस रुग्ण, अनिश्चित क्षुधातुरता से ।
मेरे प्रेम का चिकित्सक, मेरा युक्तिसंगत तर्क,
नाराज है, कि उसकी सलाहों पर ध्यान नहीं दिया जाता,
छोड़ दिया है उसने मुझे, और मेरा हताश आग्रह है,
कि इच्छा मृत्यु है, जिसे मान्य नहीं करता, मेरा चिकित्सक !
उपचार से परे हो चुका मैं, चिन्ता से परे हुआ तर्क,
और लगातार बढ़ता जा रहा है, -विक्षिप्त-पागलपन;
मानों मेरे ख़याल और चिन्तन किसी पागल के हों,
व्यर्थ में व्यक्त किए जा रहे यथार्थ से विभ्रमित;
क्योंकि मैंने तुम्हें निर्मल समझा, सोचा था तुम्हें उज्ज्वल,
यद्यपि तुम, जो कि हो नरक जैसी घोर, रात्रि जैसी गूढ़ ।
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May 04, 2015

आज की कविता / 04/05/2015

आज की कविता
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हवा में हर तरफ़ ज़हर है,
कभी जो गाँव था शहर है ।
शीत की, उमस की या गर्मी की,
ग़म की गुस्से की नफ़रत की लहर है ।
आप भी हाथ धो लिया कीजै,
बहती गंगा की ही, नहर है ।
रात गहरी हुई तो ये सोचा,
बीत जाएगी फ़िर सहर है ।
और बीते न बीत पाती हो,
समझ लो वक़्त का क़हर है ।
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