September 28, 2013

मत पूछो

मत पूछो,
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सौजन्य और © भानुश्री पानेरी

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मत पूछो इस दुनिया में,
किसने क्या-क्या बांटा है,
किसने मंदिर मस्जिद में,
ऊपरवाले को बांटा है ।
जाने क्यूं और किस हक से
टुकडे कर देश को बांटा है ।
ये तेरा ये मेरा ये है उसका,
अपने लालच या फ़िर डर से,
हमने सब कुछ बांटा है ।
जिस आंगन खेले दो भाई,
गुल्ली-डंडा, बचपन में,
दीवार खडी है उस आंगन,
जाने कब किसने बांटा है ।
साल के बांटे छः छः माह,
पिता माता को देखेंगे हम,
माता-पिता ईश्वर को भी,
दो हिस्सों में बांटा है ।
आम अमरूद इमली जामुन,
फल खाए थे बचपन में,
बडे हुए तो भूल गए और,
उन पेडों को भी बांटा है ।
मेघ न जानें कम-ज्यादा,
करते वर्षा उदार होकर,
मिलनेवाले उस जल को भी,
मनुज मनुज ने बांटा है ।
सांसें लेते थे स्वच्छ हवा में,
उसमें भी अब जहर घुला,
अब तो दम भी घुटने लगा,
हवा का रुख भी बांटा है ।
मत पूछो, 
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September 20, 2013

धर्म की प्रासंगिकता

धर्म की प्रासंगिकता
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इतिहास साक्षी है कि जिसे संस्कृत में 'धर्म' कहा गया है, उसका अनुवाद विदेशियों ने 'रिलीजन' religion किया । फिर सभी 'रिलीजन्स' की परस्पर तुलना करते हुए अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार बुद्धिजीवियों और परंपराओं के पक्षधरों ने उनके समान और असमान तत्वों  की विवेचना करते हुए अपने अपने 'मत' और 'विचार' व्यक्त किए । जबकि सच्चाई यह है कि 'धर्म' शब्द का अनुवाद करना ही उस शब्द के उस अर्थ के प्रति अन्याय है, जिसे ध्यान में रखते हुए जिसके लिए उक्त शब्द का आविष्कार discovery  वैदिक ऋषियों ने किया था । वैदिक ऋषियों ने जिस प्रकार संस्कृत भाषा का 'आविष्कार' किया, वह बिल्कुल वैज्ञानिक आधार से और युक्तिसंगत रीति से किया था । और 'वाणी' का उद्गम कैसे होता है, 'अर्थ' या तात्पर्य' से वह किस तरह घनिष्ठतः संबद्ध है, इसे उन्होंने खोजा, न कि नियोजित किया, जैसा कि अन्य सभी भाषाओं के बारे में होता है । अन्य सभी भाषाएं, वाणी के प्रचलन से जन्मीं और क्रमशः विकसित और परिवर्तित हुईं, और फिर प्रचलन के आधार पर (convention / कन्वेंशन) के आधार पर उनका व्याकरण बना । जबकि संस्कृत भाषा में ठीक इसके विपरीत हुआ । इस विषय में मैंने अपने blogs में काफ़ी लिखा है । बहरहाल, यहां सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं कि आज 'धर्म' शब्द का प्रचलित अर्थ 'मत-विशेष' हो गया है, जो संप्रदाय और परंपरा के अनुसार बदलता रहता है । और चूंकि संप्रदाय और परंपराएं स्थान और समय तथा भौतिक परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं इसलिए ऐसा कोई 'धर्म' नहीं हो सकता जिसका पालन सर्वत्र और सबके द्वारा किया जा सके ।  इसलिए वस्तुतः कोई धर्मभीरु भी नहीं हो सकता । फिर मनुष्य के लिए अपने आचरण के युक्त-अयुक्त होने का आधार क्या हो? इस बारे में हर मनुष्य सामान्यतः अपने विवेक से अनायास ही जानता है कि 'अधर्म' क्या है ! जैसे मनुष्य अपने को दुःखी नहीं करना चाहता, वैसे ही जिस कर्म या आचरण से दूसरों को दुःख / पीडा हो वह अधर्म है । और मैं सोचता हुं कि 'अधर्म' की इस परिभाषा से शायद ही कोई असहमत हो । लेकिन जब मनुष्य अपने या अपने विशिष्ट समुदाय के लिए सुख या लोभ, भय या ईर्ष्या से प्रेरित होकर दूसरों को दुःखी करने लगता है वहां से 'अधर्म' शुरु हो जाता है । और अगर कोई 'अधर्मभीरु' हो अर्थात अधर्म के आचरण से उसे डर लगता हो, तो वह सहज ही ऐसे ही कर्म और आचरण करेगा जो सामाजिक नैतिकता और शिष्टाचार से सुसंगत ही होंगे । इस प्रकार हम 'धर्म' शब्द के विभिन्न अर्थों से उत्पन्न विवाद से छूट जाएंगे । लेकिन जब तक हम 'धर्म-प्रदत्त' 'ईश्वर', 'आत्मा', 'परमात्मा', 'पाप-पुण्य', जन्म-पुनर्जन्म, और स्वर्ग-नरक, 'मुक्ति' आदि की धारणाओं में भटकते हैं, तब तक 'धर्मों' के बीच मतभेद रहेंगे ही । इस प्रकार के 'धर्म' सदा ही अप्रासंगिक रहे हैं, और शायद समस्त अनिष्ट का मूल हैं ।
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डिब्बाबन्द आदमी ।

डिब्बाबन्द आदमी ।
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© विनय वैद्य 
(Vinay Kumar Vaidya, vinayvaidya.ujjain@gmail.com) 
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वह रेल के डिब्बे से उतरता है,
दफ़्तर जाकर अपना डिब्बा खोलता है ।
'डिब्बा' जिसे वह 'पोर्ट-फ़ोलिओ' कहता है ।
जिसमें उसका 'मोबाइल', 'नोट-बुक' भी होते हैं ।
तीन-चार घण्टों तक काम करने के बाद,
हाथ-मुंह धोकर फ़्रेश होता है,
फिर खोलता है, दूसरा 'डिब्बा' !
टिफ़िन का डिब्बा' ।
फ़िर कुछ घण्टे काम कर लौट जाता है घर,
हां, उसी डिब्बे में बैठकर,
जिसे रेल का डिब्बा कहते हैं ।
घर जाकर चाय पीते हुए देखता रहता है,
उस डिब्बे को,
जिसे उसकी बीवी देख रही होती है ।
बच्चे खोलते हैं पेप्सी या कोक का डिब्बा ।
बीच बीच में एक डिब्बा गाहे-बगाहे बज उठता है,
जिसे वह कान पर लगाता रहता है ।
वह बहुत व्यस्त रहता है,
बन्द रहता है अपने एक ऐसे डिब्बे में,
जो किसी को दिखलाई भी नहीं देता ।
उस डिब्बे को खोलेंगे आप,
तो हैरान रह जाएंगे!
एक बडा सा 'डिब्बा',
डिब्बे में एक और डिब्बा,
जिसमें फिर बहुत से डिब्बे,
हर डिब्बे में और भी कुछ डिब्बे ।
शायद ही कभी खोला हो उसने उन डिब्बों को !
लेकिन किसी दिन अवश्य खोलेगा वह ।
या फिर ऐसे ही जीते-जीते किसी रोज वह,
'अलजाइमर'  का शिकार हो जाएगा,
और बन्द हो जाएगा उस डिब्बे में,
जिसे 'ताबूत' कहते हैं ।
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ujjain/20/09/2013.

September 05, 2013

... तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || ...





आसाराम’ के बहाने, ...

आसाराम’ के बहाने, ...

      राजनीति और धर्म / अध्यात्म के क्षेत्र में  अधिकाँशतः वे ही लोग जाते और ’सफल’ भी होते हैं जो मूलतः महत्त्वाकांक्षी होते हैं । वे  औसत मनुष्य से प्रायः बहुत अधिक  बेईमान, दुष्ट और चालाक, धूर्त्त और कुटिल होते हैं । सामान्य आदमी तो बेचारा सिर्फ़ ’कन्फ़ूज़्ड’ और परिस्थितियों का मारा परिणाम / मोहरा मात्र होता है । परिस्थितियों के दबाव में अपनी अल्प-बुद्धि, नैतिकता की अपनी समझ के सहारे जीवन बिताता है । उसमें बेईमानी, दुष्टता, चालाकी, धूर्त्तता और कुटिलता भी होते हैं, लेकिन उसके भीतर सहज मौज़ूद मानवीय संवेदना उसे झकझोरती  रहती है, और  कुछ अंशों में ही सही, वह  इन सब  बुराइयों पर नियन्त्रण करता रहता है । किन्तु उसे ही जब तथाकथित ’धर्म’/ अध्यात्म, परंपरा (विवेकसम्मत या विवेकहीन) का कवच मिल जाता है, तो उसकी वह सहज मानवीय संवेदना भी नष्ट हो जाती है । फिर तो वह क्रूरता और गर्व के साथ उन परंपराओं, उस ’धर्म’ / ’अध्यात्म’ को सीढ़ी बनाकर अपनी महत्त्वाकाँक्षाओं को पूर्ण करने लगता है । लेकिन जिसमें यह महत्त्वाकाँक्षा शुरु से ही मौज़ूद होती है, उसे जल्दी ही समझ में आ जाता है कि भेड़िए की पोशाक में भेड़ों का शिकार करना अधिक आसान, फ़ायदेमन्द और सुरक्षित है । ऐसे लोग ’संत’, सामाजिक या सम्प्रदाय-विशेष के नेता होने का आवरण ओढ़ लेते हैं । फिर ’कॆरियर’ बनाने के लिए उस दिशा में बीस-पच्चीस साल श्रम भी करते हैं, और फिर ’संतश्री’, ’भगवान्’, ’आचार्य’, ’स्वामी’, ’महाराज’, ’गुरु’ या ’मौलाना’, ’फ़ादर, ’बापू’ जैसी कोई प्रतिष्ठित उपाधि लगाकर  धन , ऐश्वर्य और संपत्ति बटोरने लग जाते हैं । आम आदमी इतना ’प्रतिभाशाली’ नहीं होता इसलिए इनके शोषण का शिकार हो जाता है । सवाल यह है कि आखिर आम आदमी अपनी समस्याओं के ’हल’ के लिए इनके पास जाता ही क्यों है? क्या आम आदमी ’लालच’, भय’, और कल्पना / विवेक शक्ति से शून्य होता है? फिर वह कहता है; ’समाज मुझे बाध्य करता है ।’ तो आसाराम जैसों की कथा ऐसी कथा है जो कभी समाप्त नहीं होनेवाली । ’आसाराम’ तो एक उदाहरण है । सामाजिक स्तर पर यह अनवरत चलती रहेगी । मुझे इसके लिए दुःख है, उसे ही व्यक्त करने का मौका आपने मुझे दिया इसके लिए आभारी हूँ । मुझे नहीं लगता कि मैं इससे अधिक कुछ कर या कह सकूँगा । 
उपरोक्त ’नोट’  मैंने एक फ़ेसबुक-मित्र के अनुरोध पर लिखा था ।
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