August 29, 2013

~~बैंगन को समर्पित ~~



~~~ बैंगन को समर्पित ~~~
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इस बैंगन में बड़े-बड़े गुन!
कच्चा बैंगन, पका बैंगन, 
रसोई में जब पका बैंगन 
जाग उठी खुशबू से भूख,
थाली पर जब सजा बैंगन
कच्चा बैंगन गोल बैंगन,
लुढ़क जाता सुडौल बैंगन,
बना जब उसका भुर्ता तो,
सब बोल पड़े, वाह बैंगन !
उसे ही जब पेड़ पर देखा,
देखा जिसने कहा बैंगन,
ये पककर हो गया पीला,
नहीं खाएँगे अब बैंगन !
गुनी बैंगन बेगुन बैंगन,
बेचारा बेगुनाह बैंगन,
वक़्त बेवक़्त का मारा,
बैंगनी या पीला बैंगन !!
मौसम के बदलने पर,
बदल देता है रंग अपना,
नेताओं से कब मिला तू?
बता मुझको ज़रा बैंगन !

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सुन सुन सुन, ...............
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© विनय वैद्य.vinayvaidya.ujjain@gmail.com

August 11, 2013

फ़िर एक बार ॥ नाग-लोक ॥

फ़िर एक बार,


फ़िर एक बार 
~~~~~~~~~~ ॥ नाग-लोक ॥~~~~~~~~~~~
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© विनय कुमार वैद्य, द्वारा सर्वप्रथम
vinaysv.blogspot.com पर,
15 नवंबर 2010 को प्रकाशित ।
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वे अनेक थे,
हर एक-दो साल में केंचुल बदल लिया करते थे ।
अकसर तब,
जब केंचुल उनकी आँखों पर चढ़ने लगती थी ।
कभी-कभी वे बाहर आ जाते थे ।
-जब उनके बिलों में गरमी या उमस बढ़ जाती थी,
या जब बारिश में पानी भरने लगता था ।
और कभी कभी अपने अन्धेरों से बाहर इसलिये भी आ जाते थे,
क्योंकि बाहर शिकार मिल सकता था ।
अकसर तो वे एक दूसरे को ही खा जाया करते थे,
और कोई नहीं जानता था कि कौन कब किसका ग्रास बन जाएगा ।
खुले में आने पर वे कभी किसी जानवर या मनुष्य के पैरों तले दब जाते, 
तो बरबस उन्हें काट भी लेते थे ।
इसलिये सभी को खतरनाक समझा जाता था ।
अन्धेरों से आलोकित उनके लोक में,
उनकी अपनी-अपनी 'व्यवस्थाएँ' थीं !
उनके अपने ’दर्शन’ थे, ’नैतिकताएँ’ थीं,
’मान्यताएँ’, और ’आदर्श’ भी थे ।
’राष्ट्र’ और ’भाषाएँ’ थीं,
जिनके अपने अपने ’संस्करण’ थे ।
और इस पूरे समग्र ’प्रसंग’ को वे,
'सभ्यता', ’धर्म’ तथा ’संस्कृति’ कहते थे ।
सब अनेक समूहों में......।
अकसर तो यही होता था, कि किसी एक 
'सभ्यता, ’दर्शन’,’धर्म’, ’भाषा’, या ’सँस्कृति’ का अनुयायी,
किसी दूसरे के समूह में,
या उसके विरोधी समूह में भी होता ही था,
और अकसर नहीं,
बेशक होता ही था । 
और फ़िर अन्धेरे भी इस सबसे अछूते कैसे हो सकते थे ?
उनके अपने रंग थे, अपने स्पर्श, अपने स्वाद,
और अपनी ध्वनियाँ ।
वे वहाँ थे -
उनकी भावनाओं में,
उनके विचारों में,
उनकी संवेदनाओं में ,
उनकी संवेदनशीलताओं में ।
उन अँधेरों के अपने विन्यास थे,
’विचार’,
राजनीतिक विचार,
’प्रतिबद्धताएँ’
और यह सब उनका अपना ’लोक’ था,
-अपनी दुनिया,
जिसे वे लगातार बदलना चाहते थे,
एक ’बेहतर दुनिया’ में तब्दील करना चाहते थे ।
इसलिये उनके पास हमेशा एक ’कल’ होता था,
एक बीता हुआ,
एक आगामी ।
उनके आज में वे दोनों आलिंगनबद्ध होते ।
’विचार’ अपने रास्ते तय करते थे,
अन्धेरों से अन्धेरों तक,
अकसर वे एक से दूसरे अंधेरों में चले जाते थे,
और भूल जाते थे कि यह ’निषिद्ध’ क्षेत्र है उनके लिये,
’वर्जित’ ।
फ़िर वे केंचुल छोड़ देते थे ।
’नये’ अन्धेरे के अभ्यस्त होने तक वे लेटे रहते थे,
एक अद्भुत्‌ अहसास में ।
लाल, रेशमी, गर्म, मादक सुगंधवाले,
मीठी ध्वनिवाले अंधेरे से निकलकर,
हरे-भरे, मखमली, शीतल, कोमल सुगंधवाले अंधेरे तक
पहुँचने का सफ़र,
एक ऐसा समय होता था,
जब ’समय’ नहीं होता था ।
और वे जानते थे,
कि ऐसा भी कोई वक़्त हुआ करता है !
लेकिन उस वक़्त में अपनी मरज़ी से आना-जाना,
मुमकिन नहीं था,
उनके लिए । 

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August 08, 2013

एक सवाल

~~~~~~~~ एक सवाल ~~~~~~~~~
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© विनय कुमार वैद्य, उज्जैन (म.प्र.)  

इशरते-क़तरा हो दरिया हो जाना,
इशरते-दरिया भला फ़िर क्या होगा?
दर्द का हद से गुज़रना हो दवा हो जाना,
जो दवा खुद दर्द हो, उसकी दवा फ़िर क्या होगा?
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August 02, 2013

’धर्म’/'अधर्म'

’धर्म’/'अधर्म'
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   हमने परंपराओं  को ’धर्म’ का नाम दे रखा है । और इस प्रकार ’धर्म’ का जो अभिप्राय  इस शब्द का प्रथमतः आविष्कार और प्रयोग करनेवाले ऋषियों का था उससे बिल्कुल भिन्न अर्थ प्रचलित हो गया है । मनुष्य के साथ जो भयंकर दुर्घटनाएँ हुई हैं, उनमें  से संस्कृत ग्रन्थों  का  त्रुटिपूर्ण अनुवाद सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना है । ’धर्मों’  के  जिस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन  में शिकागो में स्वामी विवेकानन्द गए थे, वहीं से इसकी शुरुआत हुई । क्योंकि इस प्रकार से पाश्चात्य राजनीति से प्रेरित परंपराओं पर ’धर्म’ की मुहर लग गई । मेरा मानना है कि वेदों और वेदान्त का किसी अन्य भाषा में अनुवाद संभव ही नहीं है । वेदों और सनातन धर्म की यह दृष्टि है कि ’धर्म’ का प्रचार, या रक्षा नहीं की जा सकती । हाँ अपने धर्म का पालन और पात्र मनुष्यों को ही उसकी शिक्षा अवश्य ही दी जा सकती है । ’धर्म’ सनातन है, और मनुष्य मात्र को आश्रम  और वर्ण तथा (अनाश्रमी और अवर्ण को भी) अनायास प्राप्त होता है । इसलिए स्वामीजी की शिकागो वक्तृता इस दृष्टि से भूल न भी हो तो अवाँछित अवश्य थी । इसके बाद अनेक स्वामी, और ’आध्यात्मिक’ व्यक्ति विदेशों में ’धर्म’ और ’अध्यात्म’ का प्रचार करने गए । किन्तु इस देश में हमने अपने को हिन्दू या अहिन्दू इन दो धर्मों में बँट लिया । मेरी दृष्टि से इनमें से ’धर्म’ कोई भी नहीं है । क्या हमारे बुद्धिजीवी  ’धर्म’ क्या है इस बारे में एकमत हैं । यदि उसी पर मत-वैभिन्य हो तो फ़िर ’हिन्दू’ या अहिन्दू (ग़ैर-हिन्दू) पर किस आधार पर चर्चा की जा सकती है ?
   संक्षेपतः, जो परंपरा ’राजनीति’ से प्रेरित होती है वह अधर्म है, क्योंकि ’धर्म’ को बलपूर्वक लादना सबसे बड़ा अधर्म है । इसलिए यदि हम तथाकथित ’धर्मों’ के इतिहास को जानें-समझें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि ’धर्म-निरपेक्षता’ और ’सर्व-धर्म-समभाव’ कितने खोखले और कोरे राजनीतिक हेतु के साधक शब्द हैं ।
   सनातन धर्म से ही उद्भूत बौद्ध और जैन धर्म भी हैं, जो अहिंसा को ही धर्म मानते हैं, और वे अनाश्रमी और अवर्ण मनुष्यों के लिए हैं । इस प्रकार वास्तविक धर्म मनुष्यमात्र की निजी स्वतन्त्रता का सम्मान करता है, और उसके ’असहिष्णु या कट्टर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । स्पष्ट है की 'अनाश्रमी' या 'अवर्ण' शब्द निन्दात्मक नहीं है, क्योंकि शैव दर्शन पर आधारित कुछ परंपराएँ वैदिक न होते हुए भी सनातन धर्म में स्वीकार्य हैं   
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महत्त्वाकांक्षा और आत्मविश्वास !



जब कोई मूर्ख मनुष्य महत्त्वाकांक्षा से ग्रस्त होता है तो वह न सिर्फ़ उसके लिए बल्कि पूरे संसार के लिए घातक हो जाता है । इतिहास बार बार इस सत्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, लेकिन हम मूर्खतावश उनमें से कुछ को ’प्रतिभाशाली’ और महान् मान बैठते हैं । ’युद्ध’ को वीरता मानकर कुछ महत्त्वाकांक्षी कमज़ोर पर आक्रमण कर ’विजयी’ कहलाते हैं । दूसरी ओर  ऐसे ’आक्रान्ता’ विजेताओं से मोहित होकर कुछ दूसरे महत्त्वाकांक्षी मूर्ख उनके इतिहास को सिर्फ़ नज़रअन्दाज़ ही नहीं करते बल्कि उन्हें गौरवान्वित भी करते हैं । इसलिए ज़रूरी है कि ’धर्म’ नामक वस्तु के इतिहास की पड़ताल की जाए ताकि ’धर्म’ नामक वस्तु के मिथ्या प्रकार  से हमारा मोहभंग हो ! सादर ! 

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