May 30, 2013
May 28, 2013
उन दिनों -७६.
उन दिनों -७६.
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_( © Vinay Vaidya, vinayvaidya111@gmail.com)_____________________________________
’फ़ेसबुक’ पर मेरी एक मित्र है ’श्रुति शर्मा’ । हर हफ़्ते एक बार ’चैट’ करती हैं । हर बुधवार या गुरुवार को, जब भी मैं मिल जाऊँ ! और अगर न मिल पाऊँ तो गुरुवार की रात्रि में उनका ’प्रणाम और शुभ रात्रि’ का एक ’एस.एम.एस.’ आ जाता है । उस हफ़्ते न तो मैं बुधवार को उससे मिल पाया, न गुरुवार को । गुरुवार की रात्रि में उसका ’एस.एम.एस.’ भी नहीं आया । ’फ़ेसबुक’ जब भी खोली, उसे ’ऑफ़लाइन’ पाया । उसका मेरा कोई ’कॉमन-फ़्रैन्ड’ भी नहीं है । वह कभी मेरी किसी पोस्ट पर न तो ’लाइक’ की प्रतिक्रिया देती है, न कोई ’कमेंट’ ।
पूरा हफ़्ता उसकी फ़िक्र में बीत गया था । नहीं, उसने अकॉउन्ट ’डि-एक्टिवेट’ भी नहीं किया था । उसका मोबाइल भी ’स्विच्ड-ऑफ़’ था । वह शायद नर्मदा के तट पर स्थित किसी जगह रहती है, ऐसा उसने कभी बताया था । जब उसका ’प्रोफ़ाइल’ चेक किया तो पाया कि वे हुबली (कर्नाटक) में रहती हैं, उनका जन्म नेमावर ( निमाड़, मालवा, मध्यप्रदेश) में हुआ, शिक्षा जबलपुर / होशंगाबाद में हुई, और इसलिये उसे नर्मदा से लगाव तो विरासत में ही मिला था । उसके नाना हरदा-हंडिया में खेती करते थे । यह सब अतिरिक्त जानकारी उससे मुझे ’चैट’ से ही मिली थी ।
--
कल उसने सूचना दी कि उसकी माताजी नहीं रहीं । किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थीं और दो तीन साल पहले ही रिटायर हुईं थीं । अर्थात् मैं उनसे लगभग तीन चार वर्ष छोटा हूँ । श्रुति भी शायद किसी इन्स्टीट्यूट में असिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर है । ७ और ११ वर्ष की आयु के दो बच्चों की माँ । उसके पति किसी कम्पनी में कार्य करते हैं । उच्च-मध्यवर्गीय एक परिवार । इस बीच हम फोन पर बातें करते रहे । बीच बीच में उसके पति और बच्चों की आवाज़ें, टीवी और दूसरे मोबाइल्स तथा ऐसे अन्य उपकरणों की ध्वनियों का हस्तक्षेप ज़ारी था । दस बारह मिनट तक हम बस एक दूसरे की साँसों की आवाज़ें सुनकर समझ रहे थे कि अभी फोन लाइन पर है । फ़िर उसने फ़ोन रख दिया । मैं नहीं समझ सका कि वह मुझे लेकर इतनी भावुक क्यों थी ।
--
’बहुत बातें करते हो कौस्तुभ संवेदनशीलता की’
मेरे भीतर से किसी ने कहा ।
ज़ाहिर है वह मैं ही था । एक संभ्रमित मैं । मेरा ही प्रतिरूप, ऑल्टर-ईगो!
अक्सर मुझे दोनों ही आरोपों का सामना करना पड़ता है । मेरी परिचित या रिश्ते में कुछ लगनेवाली महिलाएँ प्रायः मुझ पर दोनों ही क़िस्म के आरोप लगाती रही हैं । कभी यह कि मैं तो निष्ठुर हूँ, भावना और संवेदना से शून्य । अच्छा हुआ मैंने शादी नहीं की नहीं तो उस औरत का जीवन बहुत दूभर हो जाता! कभी वे ही मेरी प्रशंसा करती; नहीं कौस्तुभ सचमुच बहुत महान् है, अपने ऊपर संयम रख लेता है । कभी वे मुझे संदेह की नज़रों से भी देखती रही हैं । 'implications are many, ...' - की दृष्टि से । जिसे कहें, अनेक निहितार्थ हो सकते हैं जिसके । वे यह तो महसूस करती हैं कि मैं किसी व्यसन से ग्रस्त नहीं हूँ, मैं शायद बीमार हूँ, लेकिन वे इस बारे में ठीक ठीक कुछ नहीं जानतीं । और इसलिए रहस्य का एक सुरक्षा कवच मेरे इर्द-गिर्द आवरण की तरह मुझे छिपाए रखता है । एक अविवाहित पचपन पार आयु का ’मैं’
लोगों में ’अनफ़िट’ हूँ, ऐसा सिर्फ़ मैं ही नहीं, लोग भी महसूस करते हैं । इस स्थिति में श्रुति जैसे कुछ लोगों का मुझसे सम्पर्क बनाए रखना जहाँ एक भावनात्मक तसल्ली देता है, वहीं एक डर भी मन में बनाए रखता है कि तसल्ली का यह चीनी मिट्टी का ख़ूबसूरत फ़ूलदान किसी धक्के से कहीं दरक न जाए!
--
’हैलो !’
’हैलो!’
’प्रणाम !’
’कैसी हो बेटे!’
’ठीक हूँ, ...आप?’
’मैं भी ठीक हूँ ।’
’ममा को गए अभी दो हफ़्ते हुए हैं, लेकिन अभी भी लोगों का आना-जाना, मिलना जारी है ।’
वह कुछ शिकायत भरे स्वरों में बोली । उसकी शिकायत मुझसे तो शायद ही रही हो, मुझे लगा उन मित्रों परिचितों और रिश्तेदारों से रही होगी, जो कर्त्तव्य या औपचारिकतावश उसके घर मिलने आते-जाते रहे होंगे ।
’यू नो..., ममा आख़िरी वक्त में मेरे ही पास थीं । मामा बरसों पहले गुज़र चुके थे, मामी और उनका बेटा ज़रूर आये थे, लेकिन कल चले भी गए ।’
’हाँ...,’
’आख़री दिन से दो दिन पहले भी आपको याद किया था ममा ने ।’
वह मुझे क्यों याद करने लगीं? एक कौतूहल उठा मन में, जो कुछ ही पलों में उत्कण्ठा बन गया ।
’वो आपके ब्लॉग पढ़ती थीं, और उनके अनुरोध पर ही मैंने आपसे ’दोस्ती’ की थी ।’
यह मेरे लिए नई जानकारी थी । मुझसे तीन चार वर्ष बड़ी एक महिला मेरी प्रशंसक थी, लेकिन उन्होंने कभी मुझसे बात तक नहीं की ! न किसी और माध्यम से कभी सम्पर्क ही किया था ।
’मुझे बहुत दुःख है श्रुति, लेकिन तुमने मुझे पहले कभी इस बारे में नहीं बतलाया !’
’आपके बारे में उन्हें कुछ अन्य लोगों से भी मालूम था । आपके रिश्तेदारों, परिचितों के माध्यम से, और आपका एक ’एन्लार्ज़्ड’ फ़ोटोग्राफ आज भी उनके पूजाघर में तथा ड्रॉइंग-रूम में लगा हुआ है । हाँ वे कभी उसकी पूजा करती हों, ऐसा ख़याल नही ।’
’अरे मैं उनसे वैसे भी छोटा हूँ, उनके आशीर्वाद ही काफी हैं मेरे लिए!’
’यही तो, ... यही शब्द आपके लिए उनके मुँह से निकलते हुए सुने थे मैंने एक-दो बार!’
याददाश्त को टटोलता हूँ तो कुछ याद नहीं आता ।
’आपके एक परिचित थे गर्गजी, ...’
अचानक उसके मुँह से गर्गजी का नाम सुनकर मैं स्तब्ध रह गया ।
’मतलब?’
’वही, आपने जिनके बारे में अपने ब्लॉग्स में बहुत-कुछ लिखा है !’
’अरे! तुम जानती हो उन्हें?’
’नहीं, मैं तो नहीं, ममा ज़रूर उन्हें जानती थीं, और उनके साथ आपके घर भी आ चुकी थीं ।’
’कहाँ हैं आजकल वो?’
’आपको नहीं मालूम? उन्हें तो गुज़रे हुए पाँच-छः साल हो गए !’
’...’
’हैलो!’
’बाद में बात करेंगे, अभी बहुत मुश्किल है, ... ’
मैंने जैसे-तैसे अपने को सँभालते हुए कहा ।
--
वह अवश्य जानती होगी कि मेरे लिए यह समाचार कितना कठोर सदमा हो सकता था, लेकिन फ़िर भी उसने मुझे इतनी सहजता से गर्गजी के चले जाने के बारे में बतलाया । वह वैसे तो अत्यन्त आदरपूर्वक मुझसे बातें करती थी, लेकिन फ़िर भी उसकी वाणी में हमेशा एक ऐसी निस्पृहता भी झलकती थी कि मैं नहीं समझ सका कि वह मुझे लेकर अचानक इतनी भावुक क्यों हो उठी थी । शायद मैंने ही उसे गलत समझा हो!
--
दो-तीन दिनों बाद फ़िर उसका फ़ोन आया तो मैं बस बैठा हुआ था । हफ़्ते में दो तीन फ़ोन आते हैं, उनमें से भी अक्सर उसी के । इसलिए ख़याल था कि उसने ही किया होगा । लेकिन यह तो कोई दूसरा ही नंबर था ।
--
’हैलो!’
"कौस्तुभ बोल रहे हैं?’
’जी!’
’मैं विजयवर्गीय बोल रहा हूँ ।’
’जी कहिए!’
’बस एक सूचना देना थी, आपको हम हर माह कुछ पैसे भेजते थे!’
’जी!’
’लेकिन अब इस माह से यह संभव न हो सकेगा!’
’जी!’
’आपको तो पता ही होगा कि जयश्री शर्मा नहीं रहीं!’
’कौन जयश्री शर्मा?’
’वही महिला, जो आपके लिए पैसे भिजवाया करती थीं ।’
’जी, अच्छा !’
उधर से फ़ोन ऑफ़ हो गया । मुझे कोई पिछले तीन चार साल से इस संस्था से क़रीब पच्चीस सौ रुपये प्रतिमाह प्राप्त होते थे । वर्ना तो पिछले कुछ वर्षों से मित्र और शुभचिन्तकों के ही सहारे जैसे-तैसे गुज़ारा हो रहा था । यह सच है कि मैंने उनका कुछ अनुवाद कार्य किया था, जिसके लिए उन्होंने मुझे पहले ही से पर्याप्त पारिश्रमिक दे दिया था । फ़िर मैं अभी तक इस भ्रम में था कि संस्था ही मुझे हर माह ये पैसे सहायता के रूप में भेज रही थी । लेकिन ये महिला जयश्री कब से और क्यों मुझे पैसे भिजवाने लगी? वह भी बिना मुझे बतलाए! वैसे मैं अकेला हूँ इसलिए आर्थिक कठिनाई से बहुत चिन्तित नहीं होता । फ़िर अभी ऐसी कोई तात्कालिक समस्या थी भी नहीं कि चिन्ता की जाए । सोच ही रहा था कि श्रुति का कॉल आ गया ।
--
’हैलो!’
’हैलो अंकल, मैं श्रुति बोल रही हूँ, कैसे हैं आप?’
’ठीक हूँ ।’
’आपको पता ही होगा कि ममा आपको कुछ पैसे भिजवाती रही हैं, पिछले कुछ सालों से!’
अचानक ध्यान आया, विजयवर्गीय ने इन्हीं का जिक्र किया था शायद ।
’हाँ, लेकिन बस अभी दो मिनट पहले ही मुझे इस बात का पता चला।’
’अरे!’
’हाँ, मैं एक संस्था के लिए अनुवाद का काम करता था । उनसे मेरे कोई व्यावसायिक संबंध नहीं थे, फ़िर भी वे मुझे सम्मानजनक पारिश्रमिक दिया करते थे । हालाँकि पिछले तीन-चार साल से मैंने उनका कोई कार्य भी नहीं किया, लेकिन फ़िर भी वे मुझे लगभग दो हज़ार रुपये हर माह भेजते रहे हैं । फ़िर पच्चीस सौ भेजने लगे । चूँकि मुझे ज़रूरत थी इसलिए मैं लेने से मना नहीं कर पाया ।’
’हाँ, ममा को आपकी आर्थिक स्थिति का पता था, और अभी भी उन्होंने आपके लिए एक ड्रॉफ़्ट बना रखा है आपके नाम से । मैं चाहती हूँ कि आपको भिजवा दूँ ।’
’क्यों?’
’उन्हें जब पता चला कि अब वे कुछ दिनों की मेहमान हैं तो मुझे बतलाया था इस बारे में । और, ...’
’और? ... और क्या?’
’वास्तव में आपको पता है ममा को पेन्शन मिलती थी, पापा तो कुछ छोड़कर गए नहीं थे, ममा को जितनी पेंशन मिलती थी वह भी खर्च नहीं होती थी । इसलिए वे ज़रूरतमन्दों को सहायता कर देती थीं । लेकिन ममा के लिए आप उन ज़रूरतमन्दों से बहुत अलग थे । ममा आपकी पूजा ही नहीं करती थीं, बल्कि शायद ... दिल से आपको बहुत चाहती भी थीं ।’
उसने कुछ हिचकिचाहट के साथ कहा ।
’मतलब?’
’मतलब तो वही जानें, मैं क्या कह सकती हूँ?’
’शायद मुझे छोटा भाई समझती हों ।’
मैंने बात को सम्हालने की क़ोशिश की ।
’अंकल, क्या हर भावनात्मक लगाव को किसी रिश्ते का नाम दिया जाना ज़रूरी है?’
’हाँ, तुम ठीक कहती हो, शायद वो मेरी प्रशंसक थीं, या पिछले जन्म में मेरी कोई रही हों, माँ, बहन, मौसी, या शायद ...’
’शायद प्रिया ही रही हों!’
’लेकिन इस जन्म में मेरे लिए तो वे एक पूज्य देवी के समान हैं, ...! निर्मल वर्मा ने एक स्थान पर लिखा था, ईश्वर अपनी कृपा में सर्वाधिक अदृश्य होता है । मुझे लगता है कि तुम्हारी ममा मेरे लिए ऐसी ही ईश्वर थीं।’
’हाँ । लेकिन आपको पता है, जब उन्हें मालूम हुआ कि अब उनका वक़्त नज़दीक है, तो एक दिन पूछने लगी; मैं अगर कौस्तुभ से शादी करना चाहूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा?’
’अरे!’
’हाँ, आप तो जानते ही हैं कि एक स्त्री दूसरी को जितना अच्छी तरह जान सकती है, पुरुष इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता, और फ़िर वह तो मेरी माँ थीं!’
’मतलब?’
’मतलब यही कि उन्हें आपकी चिन्ता थी, और वे सोचती थीं कि उनकी मृत्यु के बाद पता नहीं हम लोग या कोई और आपकी चिन्ता करेगा या नहीं ।’
’लेकिन, मुझसे शादी करने से इसका क्या संबंध हो सकता था?’
’वे सोचती थीं कि उनकी मृत्यु के बाद आपको हमेशा उनकी पेंशन का अपना हिस्सा मिलता रहेगा । ता-उम्र ।’
’ओफ़् ...!’
’श्रुति,...’
’जी, ...’
’निर्मल वर्मा ने लिखा था, ईश्वर अपनी कृपा में सर्वाधिक अदृश्य होता है, लेकिन मैं सोचता हूँ क्या वह सर्वाधिक कठोर भी हो सकता है?’
’मतलब?’
’मतलब यही कि तुम्हारी ममा ने मुझे जैसा जितना दिव्य अलौकिक स्नेह दिया क्या उसके बाद वे इतनी कठोर हो सकती थीं कि मुझे यह भी नहीं बतलातीं कि उन्हें जल्दी ही जाना था?’
उधर से हिचकी और सिसकी के स्वर सुनाई दिए, और फ़ोन ’कट’ गया ।
अभी दो तीन दिनों से ’सर’ के दुःख का बोझ शायद कम था जो यह एक नया और आ पड़ा ।
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_( © Vinay Vaidya, vinayvaidya111@gmail.com)_____________________________________
’फ़ेसबुक’ पर मेरी एक मित्र है ’श्रुति शर्मा’ । हर हफ़्ते एक बार ’चैट’ करती हैं । हर बुधवार या गुरुवार को, जब भी मैं मिल जाऊँ ! और अगर न मिल पाऊँ तो गुरुवार की रात्रि में उनका ’प्रणाम और शुभ रात्रि’ का एक ’एस.एम.एस.’ आ जाता है । उस हफ़्ते न तो मैं बुधवार को उससे मिल पाया, न गुरुवार को । गुरुवार की रात्रि में उसका ’एस.एम.एस.’ भी नहीं आया । ’फ़ेसबुक’ जब भी खोली, उसे ’ऑफ़लाइन’ पाया । उसका मेरा कोई ’कॉमन-फ़्रैन्ड’ भी नहीं है । वह कभी मेरी किसी पोस्ट पर न तो ’लाइक’ की प्रतिक्रिया देती है, न कोई ’कमेंट’ ।
पूरा हफ़्ता उसकी फ़िक्र में बीत गया था । नहीं, उसने अकॉउन्ट ’डि-एक्टिवेट’ भी नहीं किया था । उसका मोबाइल भी ’स्विच्ड-ऑफ़’ था । वह शायद नर्मदा के तट पर स्थित किसी जगह रहती है, ऐसा उसने कभी बताया था । जब उसका ’प्रोफ़ाइल’ चेक किया तो पाया कि वे हुबली (कर्नाटक) में रहती हैं, उनका जन्म नेमावर ( निमाड़, मालवा, मध्यप्रदेश) में हुआ, शिक्षा जबलपुर / होशंगाबाद में हुई, और इसलिये उसे नर्मदा से लगाव तो विरासत में ही मिला था । उसके नाना हरदा-हंडिया में खेती करते थे । यह सब अतिरिक्त जानकारी उससे मुझे ’चैट’ से ही मिली थी ।
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कल उसने सूचना दी कि उसकी माताजी नहीं रहीं । किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थीं और दो तीन साल पहले ही रिटायर हुईं थीं । अर्थात् मैं उनसे लगभग तीन चार वर्ष छोटा हूँ । श्रुति भी शायद किसी इन्स्टीट्यूट में असिस्टेन्ट प्रोफ़ेसर है । ७ और ११ वर्ष की आयु के दो बच्चों की माँ । उसके पति किसी कम्पनी में कार्य करते हैं । उच्च-मध्यवर्गीय एक परिवार । इस बीच हम फोन पर बातें करते रहे । बीच बीच में उसके पति और बच्चों की आवाज़ें, टीवी और दूसरे मोबाइल्स तथा ऐसे अन्य उपकरणों की ध्वनियों का हस्तक्षेप ज़ारी था । दस बारह मिनट तक हम बस एक दूसरे की साँसों की आवाज़ें सुनकर समझ रहे थे कि अभी फोन लाइन पर है । फ़िर उसने फ़ोन रख दिया । मैं नहीं समझ सका कि वह मुझे लेकर इतनी भावुक क्यों थी ।
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’बहुत बातें करते हो कौस्तुभ संवेदनशीलता की’
मेरे भीतर से किसी ने कहा ।
ज़ाहिर है वह मैं ही था । एक संभ्रमित मैं । मेरा ही प्रतिरूप, ऑल्टर-ईगो!
अक्सर मुझे दोनों ही आरोपों का सामना करना पड़ता है । मेरी परिचित या रिश्ते में कुछ लगनेवाली महिलाएँ प्रायः मुझ पर दोनों ही क़िस्म के आरोप लगाती रही हैं । कभी यह कि मैं तो निष्ठुर हूँ, भावना और संवेदना से शून्य । अच्छा हुआ मैंने शादी नहीं की नहीं तो उस औरत का जीवन बहुत दूभर हो जाता! कभी वे ही मेरी प्रशंसा करती; नहीं कौस्तुभ सचमुच बहुत महान् है, अपने ऊपर संयम रख लेता है । कभी वे मुझे संदेह की नज़रों से भी देखती रही हैं । 'implications are many, ...' - की दृष्टि से । जिसे कहें, अनेक निहितार्थ हो सकते हैं जिसके । वे यह तो महसूस करती हैं कि मैं किसी व्यसन से ग्रस्त नहीं हूँ, मैं शायद बीमार हूँ, लेकिन वे इस बारे में ठीक ठीक कुछ नहीं जानतीं । और इसलिए रहस्य का एक सुरक्षा कवच मेरे इर्द-गिर्द आवरण की तरह मुझे छिपाए रखता है । एक अविवाहित पचपन पार आयु का ’मैं’
लोगों में ’अनफ़िट’ हूँ, ऐसा सिर्फ़ मैं ही नहीं, लोग भी महसूस करते हैं । इस स्थिति में श्रुति जैसे कुछ लोगों का मुझसे सम्पर्क बनाए रखना जहाँ एक भावनात्मक तसल्ली देता है, वहीं एक डर भी मन में बनाए रखता है कि तसल्ली का यह चीनी मिट्टी का ख़ूबसूरत फ़ूलदान किसी धक्के से कहीं दरक न जाए!
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’हैलो !’
’हैलो!’
’प्रणाम !’
’कैसी हो बेटे!’
’ठीक हूँ, ...आप?’
’मैं भी ठीक हूँ ।’
’ममा को गए अभी दो हफ़्ते हुए हैं, लेकिन अभी भी लोगों का आना-जाना, मिलना जारी है ।’
वह कुछ शिकायत भरे स्वरों में बोली । उसकी शिकायत मुझसे तो शायद ही रही हो, मुझे लगा उन मित्रों परिचितों और रिश्तेदारों से रही होगी, जो कर्त्तव्य या औपचारिकतावश उसके घर मिलने आते-जाते रहे होंगे ।
’यू नो..., ममा आख़िरी वक्त में मेरे ही पास थीं । मामा बरसों पहले गुज़र चुके थे, मामी और उनका बेटा ज़रूर आये थे, लेकिन कल चले भी गए ।’
’हाँ...,’
’आख़री दिन से दो दिन पहले भी आपको याद किया था ममा ने ।’
वह मुझे क्यों याद करने लगीं? एक कौतूहल उठा मन में, जो कुछ ही पलों में उत्कण्ठा बन गया ।
’वो आपके ब्लॉग पढ़ती थीं, और उनके अनुरोध पर ही मैंने आपसे ’दोस्ती’ की थी ।’
यह मेरे लिए नई जानकारी थी । मुझसे तीन चार वर्ष बड़ी एक महिला मेरी प्रशंसक थी, लेकिन उन्होंने कभी मुझसे बात तक नहीं की ! न किसी और माध्यम से कभी सम्पर्क ही किया था ।
’मुझे बहुत दुःख है श्रुति, लेकिन तुमने मुझे पहले कभी इस बारे में नहीं बतलाया !’
’आपके बारे में उन्हें कुछ अन्य लोगों से भी मालूम था । आपके रिश्तेदारों, परिचितों के माध्यम से, और आपका एक ’एन्लार्ज़्ड’ फ़ोटोग्राफ आज भी उनके पूजाघर में तथा ड्रॉइंग-रूम में लगा हुआ है । हाँ वे कभी उसकी पूजा करती हों, ऐसा ख़याल नही ।’
’अरे मैं उनसे वैसे भी छोटा हूँ, उनके आशीर्वाद ही काफी हैं मेरे लिए!’
’यही तो, ... यही शब्द आपके लिए उनके मुँह से निकलते हुए सुने थे मैंने एक-दो बार!’
याददाश्त को टटोलता हूँ तो कुछ याद नहीं आता ।
’आपके एक परिचित थे गर्गजी, ...’
अचानक उसके मुँह से गर्गजी का नाम सुनकर मैं स्तब्ध रह गया ।
’मतलब?’
’वही, आपने जिनके बारे में अपने ब्लॉग्स में बहुत-कुछ लिखा है !’
’अरे! तुम जानती हो उन्हें?’
’नहीं, मैं तो नहीं, ममा ज़रूर उन्हें जानती थीं, और उनके साथ आपके घर भी आ चुकी थीं ।’
’कहाँ हैं आजकल वो?’
’आपको नहीं मालूम? उन्हें तो गुज़रे हुए पाँच-छः साल हो गए !’
’...’
’हैलो!’
’बाद में बात करेंगे, अभी बहुत मुश्किल है, ... ’
मैंने जैसे-तैसे अपने को सँभालते हुए कहा ।
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वह अवश्य जानती होगी कि मेरे लिए यह समाचार कितना कठोर सदमा हो सकता था, लेकिन फ़िर भी उसने मुझे इतनी सहजता से गर्गजी के चले जाने के बारे में बतलाया । वह वैसे तो अत्यन्त आदरपूर्वक मुझसे बातें करती थी, लेकिन फ़िर भी उसकी वाणी में हमेशा एक ऐसी निस्पृहता भी झलकती थी कि मैं नहीं समझ सका कि वह मुझे लेकर अचानक इतनी भावुक क्यों हो उठी थी । शायद मैंने ही उसे गलत समझा हो!
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दो-तीन दिनों बाद फ़िर उसका फ़ोन आया तो मैं बस बैठा हुआ था । हफ़्ते में दो तीन फ़ोन आते हैं, उनमें से भी अक्सर उसी के । इसलिए ख़याल था कि उसने ही किया होगा । लेकिन यह तो कोई दूसरा ही नंबर था ।
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’हैलो!’
"कौस्तुभ बोल रहे हैं?’
’जी!’
’मैं विजयवर्गीय बोल रहा हूँ ।’
’जी कहिए!’
’बस एक सूचना देना थी, आपको हम हर माह कुछ पैसे भेजते थे!’
’जी!’
’लेकिन अब इस माह से यह संभव न हो सकेगा!’
’जी!’
’आपको तो पता ही होगा कि जयश्री शर्मा नहीं रहीं!’
’कौन जयश्री शर्मा?’
’वही महिला, जो आपके लिए पैसे भिजवाया करती थीं ।’
’जी, अच्छा !’
उधर से फ़ोन ऑफ़ हो गया । मुझे कोई पिछले तीन चार साल से इस संस्था से क़रीब पच्चीस सौ रुपये प्रतिमाह प्राप्त होते थे । वर्ना तो पिछले कुछ वर्षों से मित्र और शुभचिन्तकों के ही सहारे जैसे-तैसे गुज़ारा हो रहा था । यह सच है कि मैंने उनका कुछ अनुवाद कार्य किया था, जिसके लिए उन्होंने मुझे पहले ही से पर्याप्त पारिश्रमिक दे दिया था । फ़िर मैं अभी तक इस भ्रम में था कि संस्था ही मुझे हर माह ये पैसे सहायता के रूप में भेज रही थी । लेकिन ये महिला जयश्री कब से और क्यों मुझे पैसे भिजवाने लगी? वह भी बिना मुझे बतलाए! वैसे मैं अकेला हूँ इसलिए आर्थिक कठिनाई से बहुत चिन्तित नहीं होता । फ़िर अभी ऐसी कोई तात्कालिक समस्या थी भी नहीं कि चिन्ता की जाए । सोच ही रहा था कि श्रुति का कॉल आ गया ।
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’हैलो!’
’हैलो अंकल, मैं श्रुति बोल रही हूँ, कैसे हैं आप?’
’ठीक हूँ ।’
’आपको पता ही होगा कि ममा आपको कुछ पैसे भिजवाती रही हैं, पिछले कुछ सालों से!’
अचानक ध्यान आया, विजयवर्गीय ने इन्हीं का जिक्र किया था शायद ।
’हाँ, लेकिन बस अभी दो मिनट पहले ही मुझे इस बात का पता चला।’
’अरे!’
’हाँ, मैं एक संस्था के लिए अनुवाद का काम करता था । उनसे मेरे कोई व्यावसायिक संबंध नहीं थे, फ़िर भी वे मुझे सम्मानजनक पारिश्रमिक दिया करते थे । हालाँकि पिछले तीन-चार साल से मैंने उनका कोई कार्य भी नहीं किया, लेकिन फ़िर भी वे मुझे लगभग दो हज़ार रुपये हर माह भेजते रहे हैं । फ़िर पच्चीस सौ भेजने लगे । चूँकि मुझे ज़रूरत थी इसलिए मैं लेने से मना नहीं कर पाया ।’
’हाँ, ममा को आपकी आर्थिक स्थिति का पता था, और अभी भी उन्होंने आपके लिए एक ड्रॉफ़्ट बना रखा है आपके नाम से । मैं चाहती हूँ कि आपको भिजवा दूँ ।’
’क्यों?’
’उन्हें जब पता चला कि अब वे कुछ दिनों की मेहमान हैं तो मुझे बतलाया था इस बारे में । और, ...’
’और? ... और क्या?’
’वास्तव में आपको पता है ममा को पेन्शन मिलती थी, पापा तो कुछ छोड़कर गए नहीं थे, ममा को जितनी पेंशन मिलती थी वह भी खर्च नहीं होती थी । इसलिए वे ज़रूरतमन्दों को सहायता कर देती थीं । लेकिन ममा के लिए आप उन ज़रूरतमन्दों से बहुत अलग थे । ममा आपकी पूजा ही नहीं करती थीं, बल्कि शायद ... दिल से आपको बहुत चाहती भी थीं ।’
उसने कुछ हिचकिचाहट के साथ कहा ।
’मतलब?’
’मतलब तो वही जानें, मैं क्या कह सकती हूँ?’
’शायद मुझे छोटा भाई समझती हों ।’
मैंने बात को सम्हालने की क़ोशिश की ।
’अंकल, क्या हर भावनात्मक लगाव को किसी रिश्ते का नाम दिया जाना ज़रूरी है?’
’हाँ, तुम ठीक कहती हो, शायद वो मेरी प्रशंसक थीं, या पिछले जन्म में मेरी कोई रही हों, माँ, बहन, मौसी, या शायद ...’
’शायद प्रिया ही रही हों!’
’लेकिन इस जन्म में मेरे लिए तो वे एक पूज्य देवी के समान हैं, ...! निर्मल वर्मा ने एक स्थान पर लिखा था, ईश्वर अपनी कृपा में सर्वाधिक अदृश्य होता है । मुझे लगता है कि तुम्हारी ममा मेरे लिए ऐसी ही ईश्वर थीं।’
’हाँ । लेकिन आपको पता है, जब उन्हें मालूम हुआ कि अब उनका वक़्त नज़दीक है, तो एक दिन पूछने लगी; मैं अगर कौस्तुभ से शादी करना चाहूँ तो तुम्हें कैसा लगेगा?’
’अरे!’
’हाँ, आप तो जानते ही हैं कि एक स्त्री दूसरी को जितना अच्छी तरह जान सकती है, पुरुष इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता, और फ़िर वह तो मेरी माँ थीं!’
’मतलब?’
’मतलब यही कि उन्हें आपकी चिन्ता थी, और वे सोचती थीं कि उनकी मृत्यु के बाद पता नहीं हम लोग या कोई और आपकी चिन्ता करेगा या नहीं ।’
’लेकिन, मुझसे शादी करने से इसका क्या संबंध हो सकता था?’
’वे सोचती थीं कि उनकी मृत्यु के बाद आपको हमेशा उनकी पेंशन का अपना हिस्सा मिलता रहेगा । ता-उम्र ।’
’ओफ़् ...!’
’श्रुति,...’
’जी, ...’
’निर्मल वर्मा ने लिखा था, ईश्वर अपनी कृपा में सर्वाधिक अदृश्य होता है, लेकिन मैं सोचता हूँ क्या वह सर्वाधिक कठोर भी हो सकता है?’
’मतलब?’
’मतलब यही कि तुम्हारी ममा ने मुझे जैसा जितना दिव्य अलौकिक स्नेह दिया क्या उसके बाद वे इतनी कठोर हो सकती थीं कि मुझे यह भी नहीं बतलातीं कि उन्हें जल्दी ही जाना था?’
उधर से हिचकी और सिसकी के स्वर सुनाई दिए, और फ़ोन ’कट’ गया ।
अभी दो तीन दिनों से ’सर’ के दुःख का बोझ शायद कम था जो यह एक नया और आ पड़ा ।
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May 24, 2013
May 23, 2013
May 22, 2013
-- उन दिनों -७५. --
उन दिनों -७५.
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अविज्नान के बारे में अक्तूबर ’१२ में अचानक पता चला । फ़ेसबुक पर ।
उसका आई. डी. देखकर उसकी याद आई, लेकिन यह कल्पना नहीं थी, कि यह उसका ख़ुद का ही निजी यूज़र अकाउन्ट होगा ।
हैरत की बात यह कि पिछले साल भर से उसका आई डी नज़रों के सामने से कितनी ही बार गुज़रा, लेकिन जर्मन भाषा में होने के कारण दिलचस्पी नहीं हुई । कितने ही जर्मन दोस्त हैं मेरे फ़ेसबुक पर । लेकिन आज अचानक जब उज्जैन पर लिखे उसके वृत्तान्त पर दृष्टि पड़ी तो एकदम विस्मित हो उठा । ना जाने किस वेष में बाबा, ...!
और उसी वक्त बिजली का चले जाना दु:खी कर गया । मेरा यू.पी.एस. बिजली जाते ही बन्द हो जाता था । बिजली गई तो सबसे पहले यू.पी.एस. को अलग कर दुकान पर दे आया । रिपेयर या रिप्लेस करने के लिये । सोच रहा था, अब न जाने कब तक ऐसे ही रहना होगा । शाम को ही मेकेनिक उसे दुरुस्त कर वापस लगा गया तो सबसे पहले उसकी वॉल के दर्शन किए । उसके आई.डी. से भले ही उसके बारे में अनुमान करना कठिन था, लेकिन उसके फोटोज़ में उज्जैन के बहुत से फ़ोटो देख कर देर तक रोमाँचित होता रहा । वहाँ रवि, नलिनी, अपर्णा, ’गरगजी’ (सर) सभी तो थे ! और था वह अश्वत्थ भी, त्रिवेणी संगम पर ! वह इतना बढ़ चुका था कि मेरा पास का अश्वत्थ उसके सामने बच्चा लगता । पता नहीं कब तक आँखों से अश्रुधारा बहती रही । फ़िर उसका आई. डी. ’नोट’ किया । नहीं, अभी उसे ’मेसेज’ नहीं करूँगा । दरअसल मैं उसे चौंकाना नहीं चाहता था ।
काफ़ी देर तक सोचने के बाद मैंने उसके बहुत से ’पिक्स’ ’कॉपी’ कर ’सेव’ कर लिए । फ़िर उसकी दूसरी चीज़ें देखने लगा । उसकी जर्मन कुछ कुछ समझ में आती थी । लेकिन बहुत समय से जर्मन के टॅच में न रहने के कारण कठिनाई हो रही थी । आख़िर थक कर सिस्टम बन्द कर सो गया । लेकिन नींद कहाँ थी आँखों में!
ऊपर छत पर गया, बहुत ठण्डी हवा में चहलकदमी करता रहा । घर के सामने प्रहरी सा खड़ा नीम चुप था । वह सोता नहीं । अश्वत्थ तो फ़िर भी सो जाया करता है । नीम शायद स्वप्न देखता है । मुझे समझ में आया कि अश्वत्थ जहाँ शिव और नारायण है, वहीं नीम ’स्कन्द’ है । फ़िर तो कोई वृक्ष ’गणेश’ भी होगा! मैं अनुमान नहीं कर सका । फ़िर सोचा, हाँ नीम तो ’स्कन्द’ अवश्य है, क्योंकि नीम गन्धकयुक्त है, गन्धक ’मंगल’ का कारक है, और ’मंगल’ कुमार है ! और ’कुमार’ स्कन्द !! फ़िर ध्यान आया कि सफ़ेद अर्क (आँकड़ा) गणेश है । वे सब मेरे आसपास हैं । सारे वृक्षों में वे अपने चेहरे छिपाए हैं और भक्तों के सामने आते ही ही चेहरे से पर्दा हटा देते हैं । शर्त बस इतनी है कि भक्त उन्हें पहचानने के लिए उत्कण्ठित हो । दर्शन की अभीप्सा रखता हो । वे भक्त पर हावी नहीं होते । इतना ही सच यह भी है उनकी इच्छा न हो तब तक भक्त के मन में उनके स्वरूप को जानने की जिज्ञासा भी नहीं पैदा होती । वे निर्लिप्त अपने इष्ट के ध्यान में मग्न रहते हैं । सफ़ेद अर्क की जड गणेश ही तो हैं ! इसलिये अर्कपुष्प शिव को अर्पित किया जाता है, अर्थात अपनी बुद्धि, तथा उसके पर्याय चित्त, अहं तथा मन भी शिव को समर्पित कर देना ही सच्ची भक्ति है । ॐ गं गणेशाय नमः ।
सोचते सोचते छत पर वॉकिंग करता रहा । मन थोड़ा शान्त हुआ तो नीचे आकर सो गया ।
सुबह मोबाइल का अलार्म बजा तो पानी भरने के लिए ’मोटर’ चालू करना पहला सबसे ज़रूरी काम था । उसके बाद ’फ़्रेश’ होकर अख़बार पढ़ता रहा । इन दिनों दुनिया जिन हादसों से गुज़र रही है, उनका जायजा लिया और फ़िर दूसरे जरूरी काम किए । नौ बजे के क़रीब कंप्यूटर ऑन किए दो मिनट हुए थे कि लाइट चली गई । कंप्यूटर बन्द किया और दूसरे ज़रूरी कामों में लग गया ।
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फ़िर लम्बे समय तक दूसरी परेशानियों में फँसा रहा । धीरे धीरे उन सब की ’लिंक’ मिली । अपर्णा, नलिनी, रवि, और ’शिव’ की । सोचना तक मुश्किल था कि शिव ’फ़ेस-बुक’ पर होंगे ! और ’शिव’ के साथ साथ वह माता शेराँवाली, वह माँ भवानी ’महाकाली’ जिनके बारे में 'Silent Dialogues’ में थोड़ा सा ही ज़िक्र कर पाया था । हिम्मत नहीं हो रही थी पुराने सिलसिलों को आगे बढ़ाने की । और ख़ुशी की बात यह थी कि सभी अपनी अपनी दुनिया में इतने व्यस्त, शायद मशग़ूल भी थे कि मुझे ’सर्च’ करने का ख़याल शायद ही किसी को आया होगा ! और चूँकि पब्लिक प्रोफ़ाइल में मेरा आई.डी. जिस नाम से है, उस नाम के ढेरों अन्य यूज़र्स ’फ़ेसबुक’ पर हैं, शायद इसलिये कभी ’सर्च’ किया भी होगा तो मुझे नहीं देख पाए होंगे । लेकिन हैरत इस बात की थी कि ’सर’ के बारे में बस एक दो फोटोज़ के अलावा कहीं कुछ न मिल सका ।
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फ़िर एक दिन हिम्मत कर ’नलिनी’ को एक ’मेसेज’ किया । बहुत दिनों तक इन्तज़ार करने के बाद भी जवाब नहीं आया । बस यूँ ही दिन गुज़रते रहे ।
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गर्मियाँ बीत रही हैं । आकाश में दिन भर तेज़ धूप के समय अपने कमरे में बस पड़ा रहता हूँ । शाम को छत पर घूमते हुए कुछ राहत मिलती है, और अब जब ’उन दिनों’ का क्रम आगे बढ़ाया है तो अपर्णा और ’सर’ की याद आती है । अपर्णा शायद विदेश चली गई थी, पति के साथ । ’सर’ अकेले भोपाल में रहते होंगे । पिछले किसी ब्लॉग-पोस्ट में मैंने इसका उल्लेख नहीं किया था । तब वे किसी दूसरे शहर में रहा करते थे । और आज नीलम की भी याद आ रही थी, अभी दो दिन पहले ही ’सर’ और नलिनी की बातचीत (उन दिनों -३८) को ’फ़ेसबुक’ पर ’शेयर’ किया था शायद इसलिए! सोचकर अचरज होता है कि ये सब लोग कैसे स्मृति में स्थिर छायाचित्रों की तरह आज भी अकस्मात् सामने आते ही ऐसे लगते हैं मानों अभी हाथ बढ़ाकर उन्हें छू लूँगा !
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( © Vinay Vaidya, vinayvaidya111@gmail.com)
May 21, 2013
May 13, 2013
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