कॉपी-राईट : विनय वैद्य,
३१-१०-२०११.
© Vinay Vaidya १.वृन्दा
तुलसी मेरे आँगन की !
अब बढ़ चली है ।
हाँ कभी-कभी जाने-अनजाने,
छीन लेता हूँ मैं,
उसके हिस्से की धूप !
उठ आए हैं,
उन्नत हरितश्रँग,
प्रतीक्षा में हैं,
मञ्जरियाँ,
नयनपट खुलने की,
जब होगा मिलन,
भीतर बाहर के नीलाम्बर का ।
और मैं अकिञ्चन्,
अनायास भागी बनूँगा,
अहैतुक दुर्लभ्य कृपा-प्रसाद का,
जब अर्पित करूँगा,
एक तुलसीपत्र,
एक मञ्जरि,
श्रीचरणों में ।
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२. हरिप्रिया
हरि-तुल्य सी,
तुलसी अतुल-सी !
जीवन में, मृत्यु में,
पवित्रता में, पावनता में,
पतितपावनी हरि सी ।
जिसके सतीत्व के बल को
श्रीधर भी नहीं हरा सके थे,
मारने हेतु, जालन्धर को,
पहले छल से हरा था,
तुम्हारा सतीत्व,
हरि की माया तो हरि ही जानें,
जालन्धर-वध से,
जालन्धर तो धन्य हुआ ही,
लेकिन हो गए वे भी समर्पित,
तुम्हें ही,
निरन्तर प्रतीक्षा में ठहरे रहते हैं,
शालिग्राम,
शापग्रस्त अहल्या से !
कब कोई भक्त,
तुम्हारी पावन रज उन्हें समर्पित करे,
और वे तर जाएँ !!
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३. वृन्दोपनिषद्
वृन्दा / हरिप्रिया / मोक्षदा / तुलसी
अगहन शुक्ल एकादशी,
मोक्षदा,
मेरे आँगन की तुलसी,
लद गई है मञ्जरियों से,
मञ्जरियाँ,
कुछ नईँ नन्हीँ नन्हीँ,
कुछ लजाती किशोरियाँ,
कुछ अलसाईँ अँगड़ाई लेतीं,
नवतरुणियाँ,
और कुछ गतयौवनाएँ,
गरिमामयी प्रौढाएँ,
महिमामयी वृद्धाएँ,
सूखती भूमिसात् होती हुईँ सीताएँ,
देखता हूँ,
बीज नन्हें,
हर बीज में छिपे असंख्य वृन्दावन,
वृन्दावन में रास खेलते,
अनगिनत बालगोपाल,
राधाकृष्ण से ।
उठाकर कुछ बीज,
रख लेता हूँ हथेली पर,
देखता हूँ असंख्य,
सृष्टियाँ, हर एक में,
जैसी देखी होंगी कभी,
यशोदा ने,
कन्हैया के मुख में,
जब उसे चोरी छिपे,
मिट्टी खाते हुए पकड़ा होगा,
और डपट कर कहा होगा,
"कान्हा ! मुँह खोलो !!"
और उसने मुँह खोलकर दिखाया होगा ।
वह नन्हा सा बीज क्षण भर में,
खींच ले जाता है उन बीते दिनों में,
जब मैं पिता को गीतापाठ करते सुनता था ।
"अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत
अव्यक्त निधनान्येव, तत्र का परिदेवना ॥"
(२/२८)
हथेली पर रखे बीज वृन्द स्वरों में गाते हैं, :
"ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥"
मानों कह रहे हों,
वह पूर्ण है,
जिससे यह तुलसी जन्मी,
यह पूर्ण है, जो प्रारंभ है,
किसी तुलसीवन का,
पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है,
अव्यक्त से व्यक्त,
पूर्ण से पूर्ण के प्रकट होने के,
अनन्तर भी,
पूर्ण यथावत् ही रहता है,
अक्षुण्ण,
व्यक्त और अव्यक्त भी ।
फ़िर नई तुलसी,
फ़िर नईं मञ्जरियाँ,
यह है नया उपनिषद्,
जिसे कहते हैं वे सब,
वृन्दोपनिषद् ॥
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