November 20, 2025

SIX DIMENSIONS

त्वं स्कन्दः!

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ॐ गं गणपतये नमः।।

एकदा नैमिष्यारण्ये ...

2 x 2 x 2 x 10 x 10 x 10 x 10 = 88000 

ऋषयः ... 

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं रुद्रो त्वं स्कन्दस्त्वं यमस्त्वं वरुणः!

सपने, स्मृति, संसार, समय, संबंध और जन्म-मृत्यु 

निमिषमात्र में घटित और अघटित होते हैं।

यही हैं षडानन भगवान् स्कन्द के छः मुख, और

स्कन्दावतार !

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November 18, 2025

Tradition and Religion.

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

सनातन धर्म के सर्वाधिक सुप्रसिद्ध और प्रचलित ग्रंथ का आरंभ राजा धृतराष्ट्र द्वारा सञ्जय से पूछे गए गीता के प्रथम अध्याय के इस प्रश्न से होता है -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता ययुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

धर्म शब्द की उत्पत्ति धार्यते / धारयति  के अर्थ में प्रयुक्त  होनेवाली "धृ" धातु से होती है, जबकि कर्म शब्द की उत्पत्ति करोति / कुरुते के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाली "कृ" धातु से होती है। धर्म आत्मा अर्थात् (व्यक्त या अव्यक्त) अस्तित्व का स्वभाव है जबकि कर्म (व्यक्त या अव्यक्त)  प्रकृति का स्वभाव है।

गीता के अध्याय ३ के श्लोक २७ के अनुसार -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

"कृ" और "धृ" दोनों उभयपदी धातुएँ हैं अर्थात् इनका प्रयोग अपने-आप से या अपने लिए होनेवाले स्वाभाविक कार्य को व्यक्त करने के लिए होता है - जिसे 'किया' नहीं जाता! न तो आत्मा और न ही प्रकृति कुछ करती या कर सकती है।

अध्याय ४ के इस श्लोक १३ से, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण के इन शब्दों से यही स्पष्ट होता है -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

यदि आत्मा को जीवात्मा (मध्यम या अन्य पुरुष) तथा परमात्मा (उत्तम पुरुष) को एक दूसरे से भिन्न इन दो रूपों में स्वीकार किया जाए तो भी दोनों ही अकर्ता हैं अर्थात् कर्म करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। समस्त कर्म प्रकृति के गुणों की ही पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया का व्यक्त या अव्यक्त प्रकार हैं, जो कि पुनः उनके बारे में सोचने पर ही अस्तित्वमान प्रतीत होते हैं। और इसीलिए अपने आप पर या किसी और पर उनके घटित होने और कर्ता होना आरोपित कर भूल या प्रमाद से इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाता है। 

इसी तरह मनुते / मनोति / मन्यते अर्थात् मानने के अर्थ में 'मन्' धातु को भी 'मन' (संज्ञा) और 'सोचने' दोनों ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है,  जबकि 'मन' सोचता नहीं, बल्कि 'सोचना' 'सोचने का कर्म' ही 'मन' है।

अध्याय ३ से उद्धृत उपरोक्त श्लोक २७ में 'मन्यते' पद का अभिप्राय यही है - मानता है / माना जाता है। अर्थात् प्रमादवश, अहंकारविमूढात्मा मानता है / माना जाता है। इसलिए 'सोचना' ऐसा कल्पित कर्म है जो कि प्रकृति के गुणों की पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया है। यही पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित पाँच क्लेश  -

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।३।।

(साधनपाद)

अंतिम अध्याय कैवल्यपाद के अंतिम सूत्र -

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा चितिशक्तेरिति।।३४।।

से स्पष्ट होता है कि प्रकृति के इन गुणों और उनकी एक दूसरे से होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया का विलय हो जाना ही समस्त क्लेशो का निवारण है और इसे ही

कैवल्यम्

की संज्ञा प्रदान की गई है।

निष्कर्ष यह :

धर्म स्वभाव है,

कर्म, कृति या कृत्य Tradition / Religion है।

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चलते चलते -

"कृ" धातु से ही "कृमि" शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसे कीट के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। अंग्रेजी भाषा का  worm / vermicelli / vermilion / crime इसी कृमि शब्द के सजात, सज्ञात / cognate  हैं।

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November 14, 2025

P A R O D Y .

परो धीः

ध्यान से देखने पर अंग्रेजी के कुछ शब्द जैसे :

parody, prosody, comedy, tragedy, malady,

में वे मूल संस्कृत शब्द प्रतिध्वनित होते हैं जिनका उच्चारण और अर्थ उनकी उससे मिलता जुलता है

परोधी  -Parody - परो धीः (या परा धी)

प्रसादी(य) -Prosody 

कौमुदी -Comedy

त्रासदी -Tragedy

मलादीय -Malady

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November 08, 2025

The Last Barrier.

Three Spiritual Giants.

तीन दिव्य महामानव

श्री रमण महर्षि, श्री रामकृष्ण परमहंस और,

श्री श्री माता आनन्दमयी.

एक जिज्ञासु ने श्री निसर्गदत्त महाराज के इस बारे में प्रश्न किया : साधना-काल में कुछ ऐसी अनुभूतियाँ भी आती हैं जब हमें ईश्वर का दर्शन / साक्षात्कार हो रहा होता है।

श्री निसर्गदत्त महाराज ने उत्तर देते हुए कहा -

In such cases,

It's not that you experience the God, 

It's rather a state when / where -

The God is experiencing you!

मुझे नहीं पता कि अगर मेरा कोई व्यक्तिगत जीवन है तो उसे कौन किस भविष्य की दिशा में ले जा रहा है! शायद ही किसी को पता होता है। मनुष्य अपने भविष्य के बारे में कितनी ही योजनाएँ बना ले, बहुत बाद में अवश्य ही पता चल जाता है कि अगर कोई विधाता कहीं है तो वह कुछ और तय कर रहा होता है। यह सब किसी अदृश्य विधान से, सर्वथा अकल्पित और अत्यन्त अप्रत्याशित ही होता है। शायद यह एक ही नहीं बल्कि अनेक जन्म जन्मान्तरों से सतत और अनायास होता चला जाता है, और हम चाहते या न चाहते हुए भी उस दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। और जब उम्र हो जाती है तब यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि यह सब कैसे हुआ। हम उस "समय" को भी पल भर में एक दीर्घ अवधि के रूप में कल्पित कर लेते हैं। फिर लगता है -हाँ, इसके साथ कुछ और भी अनेक दुःखद और सुखद बातें हुई। पूरा पैटर्न तो बहुत बाद में डिकोड हो पाता है। वह भी अपनी दृष्टि के अनुसार, न कि औरों की दृष्टि के अनुसार। ठीक ठीक क्या हुआ, जब यह तक कोई भी न तो जान सकता है, न उस सबको किसी क्रम में क्रमबद्ध ही कर सकता है, तो क्यों और कैसे हुआ यह जान पाना असंभव ही है। जिसे हम इतिहास कहते हैं वह ऐसी ही असंख्य स्मृतियों का बस एक आधा-अधूरा लेखा-जोखा ही तो होता है। किन्तु तब इस अद्भुत् क्षण में हम उस तमाम इतिहास में किसी सूत्र की कल्पना कर सब कुछ उस सूत्र में बाँध लेते हैं। इसी सूत्र का वह एक सिरा था जब मैं भगवान की भक्ति करने लगा था। बस जैसे किसी को पतंग उड़ाने का,  शतरंज खेलने का या नदी में तैरने का शौक होता है। बस ऐसा ही कुछ शौक मुझे विज्ञान, गणित, साहित्य और भाषाएँ पढ़ने का भी था। हम किसी भी कार्य को इसलिए नहीं करते कि उसके माध्यम से हमें पैसे मिलें और उससे हम रोजमर्रा की जरूरी चीजें खरीदे, बल्कि इसलिए हम कोई कार्य करते हैं कि उससे हमें तत्काल ही सुख प्राप्त होता  है। यह सुख एक नशे की तरह भी हो सकता है। फिर भूल से हम सोचने लगते हैं कि किस कार्य को करने से मुझे सुख मिलेगा। जब हमें लगता है कि बिना कुछ किए भी हमें कोई सुख मिल सकता है, तो यह नहीं समझ पाते हैं कि वह सुख हमारे लिए अत्यन्त विनाशकारी होगा। इसलिए अल्पबुद्धि मनुष्य किसी भी नशे से, काम-सुख से, या श्रम से प्राप्त होनेवाले किसी आभासी सुख के पीछे भागने लगता है। यहाँ तक कि उसका ध्यान उसके संभावित महाभयंकर विनाशकारी परिणाम की ओर तक नहीं जा पाता। और ऐसा ही तब भी होता है जब कोई भगवान की भक्ति के भावावेश से इतना अभिभूत हो जाता है कि उसे संसार की और स्वयं अपने आपके भी भविष्य की चिन्ता या विचार नहीं रह जाता। यह स्थिति भी अवश्य ही एक प्रकार का उन्माद या पागलपन जैसा कुछ होता है। यह तो नहीं कहा जा सकता है कि इस प्रकार के उन्माद से, मनुष्य के पागल की तरह होने से उसे कुछ अद्भुत् अनुभूतियाँ होने लगती हैं, या फिर ऐसी कुछ अनुभूतियाँ होने के कारण ही वह पागल की तरह व्यवहार करने लगता है। किन्तु अपनी उस ऐसी प्रसुप्त और प्रच्छन्न संभावना का भान होते ही "समय" रूपी कल्पना वैसे ही विलीन हो जाती है जैसे सुबह होते होते अंधेरा दूर हो जाता है, ऐसा हम ही कहते हैं, लेकिन वह न दूर था, न पास न यहाँ से कहीं और दूर कहीं चला जाता है।

"समय" ऐसा ही कल्पित अंधेरा होता है। "समय" गौण है जबकि संवेदन / perception गुण है। संवेदन, मेरा या आपका नहीं, बल्कि अस्तित्व का गुण है, और संवेदन के विषय और विषयी के रूप में विभाजित होते ही "मैं" और "यह" की तरह से प्रतीत होने लगता है। "मैं" को ही "यह" का संवेदन होता है, और, "यह" के रूप में जिसे भी संवेदित किया जाता है, वह आत्यन्तिक रूप से और समग्रतः भी  "मैं" का ही विस्तार होता है जिसमें समस्त ज्ञात, अज्ञात और ज्ञातव्य, श्रोतव्य और श्रुत अन्तर्निहित होता है।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

(गीता अध्याय २)

उस समय, उस क्षण, जब बुद्धि इस मोहकलिल का अतिक्रमण कर जाती है तब यह दशा प्रकट होती है।

इस प्रकार की यह दशा दो स्थितियों में प्रकट हो सकती है। जिनमें एक स्थिति तो ईश्वर-साक्षात्कार और दूसरी स्थिति आत्म-साक्षात्कार की हो सकती है।

"This happens quite imperceptibly with some, They have attained this, though need to be convinced about this... "

(Sri Nisargadatta Maharaj)

वे उस दशा को ईश्वर-साक्षात्कार कह सकते हैं जिसमें उन्हें उस दिव्य ईश्वरीय तत्व का साक्षात्कार हो जाता है जो इन्द्रियों, मन और बुद्धि का विषय नहीं है किन्तु जिसे वे सबमें व्याप्त और जिसमें वे सबकी व्याप्ति पहचान लेते हैं। और शायद वे उसे कोई ऐसा नाम भी दे सकते हैं जिसे उन्होंने कभी अपने आसपास सुना होता है। उस दिव्य-सत्ता से अपने स्वयं की अभिन्नता का भान उनके लिए सहज और स्वाभाविक होता है, न कि अपनी स्मृति की उपज। किन्तु वे औपचारिक रूप से अभी भी उनके उस "मैं" रूपी खोल में बंद होते हैं जिससे वे उस ईश्वर से अटूट बंधन में बंधे होते हैं। और किसी समय इसके बाद यह पृथक् "मैं" नामक प्रतीत हो रही खोल स्वयं ही इस शरीर के साथ या उससे पहले ही टूट और बिखरकर नष्ट या विलीन हो जाना है।

संभवतः इस "मैं" के रहते हुए ही उस ईश्वर-साक्षात्कार से ही कोई कोई परम धन्य और कृतकृत्य हो सकता है, या फिर भी उसमें इस "मैं" की वास्तविकता, और इसके स्वरूप को जानने की रुचि जागृत या शेष रह जाती हो।

एक विशिष्ट उदाहरण भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस का हो सकता है। ईश्वर-साक्षात्कार के रूप में उन्हें पहले ही आत्म-साक्षात्कार हो चुका था किन्तु यह द्वैत के रूप में था जहाँ ईश्वर / माँ काली और उनके अपने बीच में भी द्वैतयुक्त संबंध नामक शीशे की एक दीवार विद्यमान थी। किन्तु गुरु तोतापुरी का आगमन होने के बाद शीशे की यह दीवार भी टूट गई।

ऐसा ही कुछ श्री जे. कृष्णमूर्ति के साथ हुआ था जिनकी स्थिति में उनकी जिज्ञासा अर्थात् आत्मानुसंधान ही उस रूप में उनके समक्ष प्रकट हुआ जिसे उन्होंने -

The Otherness 

का औपचारिक नाम दिया, और जिसका उल्लेख और विवरण उनकी लिखी उनकी आत्मकथा -

JKrishnamurti's Note-book

से प्राप्त होता है।

इस प्रकार से अद्वैत-साक्षात्कार किसे किस तरह, कब, कहाँ और कैसे होता है, कुछ कहना कठिन है। किन्तु यह घटना है चुकी है इस पर संदेह नहीं किया जा सकता है। भगवान् श्री रमण महर्षि की स्थिति में स्पष्ट है कि उन्हें आत्मानुसंधान के माध्यम से अर्थात् "मैं कौन" इस प्रश्न का समाधान खोजने का प्रयास करने पर,

"मृत्यु किसकी होती है?"

इस जिज्ञासा को शांत करने का यत्न करते हुए अनायास और अनपेक्षित रीति से आत्म-साक्षात्कार हुआ, इसके बाद उनके ही शब्दों में -

"मेरी आत्मा किसी आश्रय की खोज में थी!"

भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस और श्री जे. कृष्णमूर्ति की स्थिति इस दृष्टि से समान थी कि उन्हें -

अद्वैत-साक्षात्कार

होने से पहले तक संभवतः इसकी कल्पना या अनुमान तक नहीं था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है।

भगवान् श्री रमण महर्षि और श्रीश्री माता आनन्दमयी की स्थिति में ईश्वर साक्षात्कार और आत्म-साक्षात्कार एक ही अद्वैत वास्तविकता थी, किन्तु व्यावहारिक रूप से वे ईश्वर के अस्तित्व और संसार से उसकी अनन्यता को जानते हुए भी द्वैत के अन्तर्गत उसे संपूर्ण संसार के एकमात्र स्वामी की तरह भी स्वीकार करते थे।

स्पष्ट है कि भगवान् श्री रमण महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस, श्री निसर्गदत्त महाराज की स्थिति में किसी समय उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ, जिसकी तिथि का उल्लेख भी कहीं न कहीं अवश्य है,  जबकि श्री श्री माता आनन्दमयी के स्थिति में ऐसा कोई उल्लेख या जानकारी शायद ही कहीं प्राप्त है। इसलिए श्री श्री माता आनन्दमयी के अवतार भी माना जाता है, जबकि किसी भी अवतार का आगमन वैदिक, पौराणिक और आध्यात्मिक दृष्टि से किसी प्रयोजन-विशेष को पूर्ण करने के लिए होता है।

ईश्वर-कृपा से या मुझे अज्ञात किन्हीं भी कारणों से मुझे इन्हीं दिव्य विभूतियों की शिक्षाओं के संपर्क में आने का असीम और अप्रतिम सौभाग्य प्राप्त हुआ इसलिए मैं इन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ।

यद्यपि मेरी योग्यता और मेरा अधिकार भी नहीं है, किन्तु यदि किसी प्रकार से इस पोस्ट में मैंने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया हो और अपने अधिकार से बाहर जाकर, इनके बारे में कुछ अनुचित, अवांछित कहा हो तो इनके और परमात्मा के प्रति हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ।

यह पोस्ट केवल व्यक्तिगत स्मृति के उद्देश्य से लिखा है, न कि किसी से इस विषय में चर्चा करने के लिए, इसके पाठक कृपया इस पर ध्यान दें। 

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November 03, 2025

VERY TRUE!

Relationships, Being Related With, Memory and Recognition.

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संबंध, पहचान और स्मृति 

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संसार की किसी भी वस्तु, विचार, घटना, समय, व्यक्ति या विषय से संबंध, उसकी पहचान और स्मृति साथ साथ ही बनते और समाप्त भी हो जाया करते हैं।

यह शरीर भी ऐसी ही एक वस्तु, विचार, घटना, समय,  व्यक्ति या विषय है।

और उनसे प्रभावित होना या न होना, अभिभूत होना या न होना सबकी अपनी अपनी समझ की परिपक्वता पर निर्भर है।

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November 02, 2025

Does God Exist?

कविता

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उम्र तो हो गई है परन्तु चिन्ता नहीं मिटी, 

इस बूढ़े की बुद्धि देखो, आज फिर पिटी!

जो रोग जवानी में थे, वो सब तो मिट गए,

लिप्सा, ईर्ष्या, कामना, आशा नहीं मिटी!

उम्र की लंबी सुदीर्घ अवधि तो कट गई,

मृत्यु के कठोर भय की डोर नहीं कटी!

शास्त्र कठिन सभी तो कण्ठस्थ हो गए।

विवेक वैराग्य नहीं, मोह आसक्ति ना घटी!

भगवान है, कि नहीं, संदेह मिट नहीं सका, 

संसार सत्य है ये बुद्धि, कभी नहीं मिटी!

निर्निमेष शून्य दृष्टि से ताकता है वह, 

अंत अब समीप, शीघ्र आ रही घड़ी!!

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