उम्र के इस मोड़ पर
अचानक खयाल आया, काश मैं शादीशुदा होता। एक दो बच्चे होते जो बुढ़ापे में मेरा खयाल रखते! और कुछ नहीं तो किसी दिन कहीं साथ ले जाते और किसी धार्मिक या पवित्र नगरी में सड़क पर अकेला कहीं छोड़कर "अभी आता हूँ" कहकर मुझे मेरे हाल पर छोड़कर रफूचक्कर हो जाते!
लेकिन उस उम्र में जब मैंने अपनी आजीविका के लिए काम करना शुरू ही किया था, यह भी तय कर लिया था कि बस बारह वर्ष तक ही कार्य करने के बाद मुझे कार्य से अवकाश ग्रहण करना है। क्योंकि अगर वैसे ही किसी आध्यात्मिक आश्रम में चला जाता तो वहाँ के नियमों का पालन करना होता, किसी परंपरा में दीक्षा ग्रहण करनी होती और संभवतः मेरा आध्यात्मिक विकास भी होता, किन्तु सौभाग्य से ऐसा कोई अवसर मुझे मिला ही नहीं इसलिए जो भी आध्यात्मिक साधना मैंने की वह अपने विवेक से ही प्रेरणा लेकर हुई। शायद इसे "भगवान की मरजी" भी कह सकते हैं किन्तु यह भी सच है कि इतने लम्बे समय के बाद भी मैं कभी किसी भी ऐसे भगवान के अस्तित्व को नहीं स्वीकार कर सका, जिससे संवाद कर सकूँ, या कि जिसकी क्या मरजी है यह समझ सकूँ। हो सकता है यह मेरा कोरा दंभ, अभिमान, अहंकारपूर्ण हठ या हठपूर्ण अहंकार ही रहा हो, जिससे मैं अभी तक मुक्त नहीं हो सका होऊँ! भगवान् बुद्ध की शिक्षाएँ मुझे कहीं अधिक प्रेरणा प्रदान करती हैं। व्यावहारिक दृष्टि से भी किसी भगवान या ईश्वर को मानने की अपेक्षा जानना ही उचित और तर्कसंगत भी लगता है। और फिर किसी भगवान् या ईश्वर को मानने या जानने से भी अधिक क्या यही और अधिक तर्कसंगत, आसान नहीं है कि पहले मैं स्वयं को ही जान लूँ! पर सवाल यह भी है कि क्या वैसे भी, मैं स्वयं को नहीं जानता? बहुत सोचने समझने पर यह जाना कि जैसे अनेक विषयों और वस्तुओं को, लोगों को और संबंधों आदि को "जाना" जाता है, क्या स्वयं को भी वैसे, उस तरह से जान सकूँ, यह संभव है भी? "मैं हूँ।" यह तो मुझे पता है कि लेकिन यह "मैं" क्या मुझसे अलग कुछ या कोई और है? क्या यह सवाल ही बेतुका नहीं है? मतलब यह कि "मैं" वह है जो और सब कुछ तो जानता है और जितना कुछ जान लेता है, वह बनता-मिटता और सतत परिवर्तित होता है, जबकि "मैं" या अपने स्वयं को "जानना" कुछ ऐसा है जो कि बनता, मिटता या परिवर्तित नहीं होता। इसलिए जिस किसी भी व्यक्ति, वस्तु, विचार, स्थान, समय, संबंध और सिद्धान्त आदि को जाना जा सकता है, वह "मैं" नहीं हो सकता। इसलिए "स्वयं" को जानने का अभिप्राय "स्वयं" / "मैं" के बारे में उत्पन्न कोई धारणा, विचार, सिद्धान्त आदि तो कभी नहीं हो सकता।
"मैं" नित्य प्रत्यक्ष वास्तविकता है, जो कि अपना प्रमाण स्वयं है।
उपरोक्त विवेचना का निष्कर्ष यह कि "मैं" वास्तविकता और काल स्थान से अछूता सत्य है और "स्वयं" या "मैं" को जानना किसी प्रकार का कोई अनुभव भी नहीं हो सकता, जबकि भगवान् या ईश्वर संभवतः अनुभवगम्य जैसा कुछ होता होगा और यदि वह अनुभवगम्य है भी या नहीं भी है, तो दोनों ही स्थितियों में वह विश्वसनीय भी कैसे हो सकता है? जबकि "मैं" या "स्वयं" जो नित्य प्रत्यक्ष प्रकट और सनातन "तत्व" है असंदिग्ध रूप से हर किसी को अनायास ही पता होता है।
इसलिए "भगवान की मरजी" या भगवान को जान पाना शायद और अवश्य ही अत्यन्त दुरूह और श्रमसाध्य एक कार्य हो सकता हो, किसी के लिए बहुत सरल या कठिन स्वाभाविक क्यों न हो, उतना ही अधिक अनावश्यक एक कार्य है। सुदीर्घ तप से ऐसे किसी भगवान या किसी और प्रभु, ईश्वर आदि के दर्शन और उनकी कृपा की प्राप्ति भी होती हो, किन्तु क्या वह केवल एक कल्पनामात्र ही नहीं हो सकती?
किन्तु ईश्वर-प्राप्ति की कल्पना या "भगवान की मरजी" के बहाने मन को शान्ति कैसे मिल सकती है? और फिर स्थायी शान्ति तो बहुत दूर की बात है!
"स्वयं" या "मैं" को एकमात्र नित्य प्रकट और प्रत्यक्ष तत्व की तरह जान लेते ही शरीर, मन, बुद्धि, स्मृति और भावनाओं, भाग्य और इसी प्रकार से संसार, सुख-दुःख, प्रारब्ध आदि की क्षणभंगुरता भी अनायास ही स्पष्ट हो जाती है और तब इस प्रश्न का कोई महत्व नहीं रह जाता कि बुढ़ापे में क्या होगा, क्या कोई "मेरा" खयाल रखेगा, काश मैं शादीशुदा होता तो मेरे बच्चे मेरा खयाल रखते, मेरी देख-भाल करते, कम से कम किसी तीर्थ की यात्रा करवाने के बहाने किसी धार्मिक स्थान पर ले जाते और "मुझे" कहीं छोड़कर फरार या छू-मन्तर हो जाते!
***