चाहतें और राहतें
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जैसा कि पहले लिख चुका हूँ मेरा प्रायः पूरा ब्लॉग-लेखन केवल एक स्थान पर संजो रखने record के लिए सुविधा की दृष्टि से होता है। जब लगता है कि लिखने लायक कुछ नया है, तो ही लिखने का मन होता है। इसलिए लिखना एक चाहत (इच्छा) होती है, और वह चाहत कभी जितनी तेज होती है उससे कहीं अधिक तेजी से मन / ख़याल दौड़ता है, यहाँ तक कि मन में आई कोई बहुत महत्वपूर्ण बात लिखने से पहले ही खो जाती है।
और चूँकि लिखने की पहली वजह यही होता है इसलिए इस लिखे को कौन पढ़ता है, कोई पढ़ता भी है या नहीं, यह सवाल तो मन में कभी आता ही नहीं। दस साल पहले जब 'उन दिनों' लिखना शुरू किया था तब भी यही मानसिकता थी और आज भी यही है।
अख़बार या किसी पत्रिका में प्रकाशित होने के बारे में तो सोचता तक नहीं था क्योंकि हमेशा ऐसा लगता रहा कि जिन बातों को और जिन विषयों पर, मैं लिख रहा हूँ उनमें शायद ही किसी की कोई रुचि हो सकती है। हाँ, कभी-कभी जब लगता था कि ऐसा कुछ अनायास लिख सका हूँ, तो ज़रूर लगता था कि शायद कोई इसे पढ़ना पसंद कर सकेगा।
इस तरह लिखना चाहत से अधिक एक राहत भर रहा।
लिखने का सुख बस एक राहत भर रहा, जिसे हम मज़बूरी में स्वीकार कर लेते हैं।
किसी से 'जुड़ना' तो कभी सोचा ही नहीं था।
जुड़ना क्या सचमुच होता है?
हम या तो किसी ज़रूरत के लिए किसी से जुड़ते हैं या किसी माध्यम से जुड़े होने से उस माध्यम के बहाने किसी से जुड़ते हैं। या तो हमें जो मिला होता है उसमें जो हमें सर्वाधिक आकर्षित करता है उससे जुड़ने लगते हैं, या जिसकी हमें ज़रूरत महसूस होती है उससे।
लेखक और पाठक का संबंध कुछ ऐसा होता है जहाँ ऐसी कोई शर्तें शायद नहीं होतीं। और जैसे और जहाँ भी इस तरह की शर्तें होती हैं वहाँ केवल तात्कालिक जुड़ाव होता है। हमारे तमाम सामाजिक, यहाँ तक कि पारिवारिक जुड़ाव भी इसी आधार से तय होते हैं। यह दोतरफा होता है।
यह जुड़ाव न सिर्फ व्यावहारिक बल्कि अपेक्षाकृत अधिक गहरे और मानसिक धरातल तक भी होने लगता है, क्योंकि इससे हमें सुरक्षा अनुभव होने लगती है। जैसे अपने पालतू कुत्ते या बिल्ली से हमारा जुड़ाव हो जाता है। परिवार और समाज भी ऐसा ही एक तरीका है जिसमें हमें न सिर्फ वर्तमान की, बल्कि काल्पनिक भविष्य की भी सुरक्षा महसूस होने लगती है। यहाँ तक कि हम भविष्य के इतने अधिक और परस्पर असामंजस्यपूर्ण मानसिक चित्रों का कोलॉज बना लेते हैं कि उनकी विसंगतियों पर हमारा ध्यान तक नहीं जा पाता ।
किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय, वर्ग, जाति, राष्ट्र, भाषा, आदर्श, राजनीति, साहित्य, संगीत, मज़हब, किताब, धर्म, विचार, सिद्धांत, शौक या रुचि से जुड़ाव में सुरक्षा मिलती हो या न मिलती हो, मिलती हुई दिखाई देने पर हम उन तमाम खतरों को नज़र-अंदाज़ कर देते हैं, जो उस प्रतीत होनेवाली तथाकथित सुरक्षा में हमारी आँखों से छिपे होते हैं।
सुरक्षा और सुरक्षा की चाह जीवन की बुनियादी ज़रूरतें हैं लेकिन चाह और चाहतें हमें सच्चाई को देख पाने में बाधक होती हैं। और तात्कालिक राहतें भी अक्सर एक छल हो सकती हैं, जिनसे हम अपने आपको धोखा देते रहते हैं। जो वास्तव में ज़रूरी और किया जाना चाहिए उससे भागने के लिए हम इन चाह, चाहतों और राहतों का सहारा लेने लगते हैं।
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जैसा कि पहले लिख चुका हूँ मेरा प्रायः पूरा ब्लॉग-लेखन केवल एक स्थान पर संजो रखने record के लिए सुविधा की दृष्टि से होता है। जब लगता है कि लिखने लायक कुछ नया है, तो ही लिखने का मन होता है। इसलिए लिखना एक चाहत (इच्छा) होती है, और वह चाहत कभी जितनी तेज होती है उससे कहीं अधिक तेजी से मन / ख़याल दौड़ता है, यहाँ तक कि मन में आई कोई बहुत महत्वपूर्ण बात लिखने से पहले ही खो जाती है।
और चूँकि लिखने की पहली वजह यही होता है इसलिए इस लिखे को कौन पढ़ता है, कोई पढ़ता भी है या नहीं, यह सवाल तो मन में कभी आता ही नहीं। दस साल पहले जब 'उन दिनों' लिखना शुरू किया था तब भी यही मानसिकता थी और आज भी यही है।
अख़बार या किसी पत्रिका में प्रकाशित होने के बारे में तो सोचता तक नहीं था क्योंकि हमेशा ऐसा लगता रहा कि जिन बातों को और जिन विषयों पर, मैं लिख रहा हूँ उनमें शायद ही किसी की कोई रुचि हो सकती है। हाँ, कभी-कभी जब लगता था कि ऐसा कुछ अनायास लिख सका हूँ, तो ज़रूर लगता था कि शायद कोई इसे पढ़ना पसंद कर सकेगा।
इस तरह लिखना चाहत से अधिक एक राहत भर रहा।
लिखने का सुख बस एक राहत भर रहा, जिसे हम मज़बूरी में स्वीकार कर लेते हैं।
किसी से 'जुड़ना' तो कभी सोचा ही नहीं था।
जुड़ना क्या सचमुच होता है?
हम या तो किसी ज़रूरत के लिए किसी से जुड़ते हैं या किसी माध्यम से जुड़े होने से उस माध्यम के बहाने किसी से जुड़ते हैं। या तो हमें जो मिला होता है उसमें जो हमें सर्वाधिक आकर्षित करता है उससे जुड़ने लगते हैं, या जिसकी हमें ज़रूरत महसूस होती है उससे।
लेखक और पाठक का संबंध कुछ ऐसा होता है जहाँ ऐसी कोई शर्तें शायद नहीं होतीं। और जैसे और जहाँ भी इस तरह की शर्तें होती हैं वहाँ केवल तात्कालिक जुड़ाव होता है। हमारे तमाम सामाजिक, यहाँ तक कि पारिवारिक जुड़ाव भी इसी आधार से तय होते हैं। यह दोतरफा होता है।
यह जुड़ाव न सिर्फ व्यावहारिक बल्कि अपेक्षाकृत अधिक गहरे और मानसिक धरातल तक भी होने लगता है, क्योंकि इससे हमें सुरक्षा अनुभव होने लगती है। जैसे अपने पालतू कुत्ते या बिल्ली से हमारा जुड़ाव हो जाता है। परिवार और समाज भी ऐसा ही एक तरीका है जिसमें हमें न सिर्फ वर्तमान की, बल्कि काल्पनिक भविष्य की भी सुरक्षा महसूस होने लगती है। यहाँ तक कि हम भविष्य के इतने अधिक और परस्पर असामंजस्यपूर्ण मानसिक चित्रों का कोलॉज बना लेते हैं कि उनकी विसंगतियों पर हमारा ध्यान तक नहीं जा पाता ।
किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय, वर्ग, जाति, राष्ट्र, भाषा, आदर्श, राजनीति, साहित्य, संगीत, मज़हब, किताब, धर्म, विचार, सिद्धांत, शौक या रुचि से जुड़ाव में सुरक्षा मिलती हो या न मिलती हो, मिलती हुई दिखाई देने पर हम उन तमाम खतरों को नज़र-अंदाज़ कर देते हैं, जो उस प्रतीत होनेवाली तथाकथित सुरक्षा में हमारी आँखों से छिपे होते हैं।
सुरक्षा और सुरक्षा की चाह जीवन की बुनियादी ज़रूरतें हैं लेकिन चाह और चाहतें हमें सच्चाई को देख पाने में बाधक होती हैं। और तात्कालिक राहतें भी अक्सर एक छल हो सकती हैं, जिनसे हम अपने आपको धोखा देते रहते हैं। जो वास्तव में ज़रूरी और किया जाना चाहिए उससे भागने के लिए हम इन चाह, चाहतों और राहतों का सहारा लेने लगते हैं।
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