September 23, 2019

कविता / 23.09.2019

मिलना / कविता 
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किसी भी शख़्स से कभी,
जब एक बार मिलता हूँ,
होता है वो पहला मिलना,
होता है आख़िरी मिलना।
और भूल जाता हूँ उसको,
पर कोई याद नहीं बनती,
यूँ कि पहचान नहीं बनती,
जैसे अपनी भी नहीं है मेरी।
क्या ये याद, ये पहचान भी,
सिर्फ हादसा ही नहीं होता?
जो अगर हो ही न कभी तो,
कोई पहचान भी नहीं होता।
उस अजनबी से फिर मिलना,
क्या अजीब दासताँ नहीं है ?
और, राहत है कितना सुकून,
कि उससे कोई वास्ता नहीं है।
फिर ज़रूरत कहाँ पहचान की,
कोई तय शक्ल भी इंसान की,
क्योंकि हर शक्ल उसकी सूरत है,
जो कि सूरत भी है ईमान की।
कोई दुश्मन नहीं जहाँ कोई,
ऐसा होता हो ग़र जहाँ कोई,
क्या ज़रूरत किसी ख़ुदा की,
ख़ुद की पहचान नहीं, जहाँ कोई।
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September 20, 2019

Blasphemy

बलात्प्रेमी 
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अपने भाषा-अनुसंधान में मुझे यह रोचक तथ्य मिला कि कैसे 'वल्क', 'वल्यते' से अंग्रेज़ी के 'value', 'evolve', 'वलित' से 'volt' और 'volt-face' की उत्पत्ति हुई।  इसी प्रकार 'लुच्'-- 'लोचयति'-- 'लोक' से VolksWagen नामक लोक-वाहन (van), vehicle को  नाम प्राप्त हुआ।
शायद इसी प्रकार 'ब्लॉग' / 'blog' शब्द प्रचलन में आया होगा।
वैसे संस्कृत भाषा में 'बलाका' कहते हैं वकपंक्ति को।
वक / बक कहते हैं बगुले नामक पक्षी को,
इसलिए बकवाद या बकवास दोनों मूलतः संस्कृत भाषा में भी अर्थ रखते हैं।
हिंदी में इन शब्दों का अर्थ होता है अनर्गल या अमर्यादित भाषण।
इस दृष्टि से कुछ राजनीतिज्ञों को 'blogger' की श्रेणी में रखना गलत न होगा।
और कुछ ब्लॉगर ट्वीट्स में भी ऐसा करते हैं।
केवल रोचक होने से ही सफलता या लोकप्रियता पा लेने को 'येन-केन-प्रकारेण' प्रसिद्ध होने का ही एक प्रयास कहा जा सकता है।
फूहड़ या अश्लील, द्विअर्थी तात्पर्य वाले वक्तव्य देना भी ऐसा ही है :
कभी शाम को आपने आकाश में बगुलों की ऐसी पंक्तियाँ देखी ही होंगी।
भ्रमवश कोई उन्हें हंसों की पंक्ति भी समझ सकता है। 
पर्याय से, imperatively; आसमान में चमकने वाली बिजली को भी बलाका कहा जाता है।
इसी तुलना से बलात् शब्द से दो अन्य शब्दों का साम्य दृष्टव्य है :
'blast' ( विस्फोट), और 'blasphemy' में पाया जानेवाला 'blas'.
'प्रेम' से fame और phem का साम्य भी दृष्टव्य है।
fame और 'प्रेम' भी एक दूसरे के पर्याय हो सकते हैं।
प्रेम की सिद्धि हो या न हो, प्रसिद्धि / बदनामी तो प्रायः हो ही जाती है।
'blasphemy' के लिए 'ईशनिंदा' शब्द का प्रयोग कहाँ तक स्वीकार्य है, यह सोचने की बात है।
चलते चलते :
सोचता हूँ:
"भाषा-अनुसंधान में 'साम्यवाद' का महत्त्व" विषय पर क्या कोई पोस्ट लिखी जा सकती है।
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September 14, 2019

14 सितम्बर 2019 / हिन्दी-दिवस

आज का दिन 
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हिन्दी-दिवस 14, सितम्बर 2019 की शुभकामनाएँ।
पिछले किसी पोस्ट में ग्रन्थ-लिपि के बारे में लिखा था।
यह उल्लेख किया था कि किस प्रकार मराठी और संस्कृत भाषाएँ जिस लिपि में लिखी जाती हैं उसी  देवनागरी लिपि में हिन्दी भी लिखी जाती है। और इससे तीनों ही भाषाएँ अधिक समृद्ध और प्रचलित हुई हैं।
इसी प्रकार अगर हिंदी-प्रेमी दूसरी सभी भारतीय भाषाओं को देवनागरी-लिपि में लिखने लगें तो उनके पाठक-वर्ग की वृद्धि ही होगी और वे भाषाएँ भी और अधिक बोली और समझी जाने लगेंगी।
अंग्रेज़ी के साम्राज्य को इसी तरह समाप्त किया जा सकता है।
यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि अंग्रेज़ी सभी भारतीय भाषाओं के प्रचलन के धीरे-धीरे कम होने की दिशा में अग्रसर है। इसके साथ यह भी संभव है कि केवल देवनागरी लिपि में ही अंग्रेज़ी को लिखे जाने का प्रयास किया जाए।
संक्षेप में : 
इस प्रकार अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने-बोलनेवाले अनायास इस लिपि के अभ्यस्त होने लगेंगे। यही बात उर्दू के लिए भी सत्य है। उर्दू का प्रचार-प्रसार भी इसे देवनागरी लिपि में लिखे जाने पर अधिक होगा।
किसी भी भाषा का प्रचार-प्रसार मुख्यतः तो उनके प्रयोग की आवश्यकता के ही कारण होता है, और किसी भी भाषा को समाज पर थोपा नहीं जा सकता। कोई भी मनुष्य जितनी अधिक भाषाएँ सीखने और इस्तेमाल करने लगता है, उसका मस्तिष्क उतना ही प्रखर और मेधावी होने लगता है।
भारतीय लोगों के पूरे विश्व में सर्वाधिक सफल होने का यही कारण है कि वे अंग्रेज़ी और किसी एक भारतीय भाषा के साथ साथ अनेक भाषाएँ जानते हैं। दूसरी ओर तमाम विदेशी जैसे रूसी, चीनी, जापानी आदि भी भारतीयों के मुकाबले इसीलिए पीछे रह जाते हैं क्योंकि अपनी भाषा के आग्रह के कारण वे अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाएँ सीखने में कम रूचि लेते हैं।  भारतीय भले ही बाध्यतावश अंग्रेज़ी सीखते हैं किन्तु अंग्रेज़ी के शब्द मूलतः संस्कृत से उसी प्रकार व्युत्पन्न किए जा सकते हैं जैसे कि तमाम भारतीय भाषाओं के शब्द किए जा सकते हैं। 
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September 13, 2019

खाना-ब-दोश

कविता / 13/09/2019 
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भटकता है दर-ब-दर, ख़ाना-ब-दोश,
ढूँढ़ता है अपना घर, ख़ाना-ब-दोश!
कोई घर अपनों का, और हो अपनों सा,
कोई घर सपनों का, हो ख़ाना-ब-दोश!
कहाँ से आया था, कुछ याद नहीं आता,
कहाँ मिलेगा फिर, यह भी नहीं है मालूम,
भटकता है दर-ब-दर, ख़ाना-ब-दोश,
ढूँढ़ता है अपना घर, ख़ाना-ब-दोश!
ये रूह जो भटकती है, ख़ाना-ब-दोश!
उस रूह का पता कहाँ ख़ाना-ब-दोश!
क्या वो महबूबा है किसी महबूब की?
क्या वो महबूब है किसी महबूबा का?
है ये कैसी जुदाई, है ये तनहाई कैसी?
जिसकी है ये इन्तिहा, ख़ाना-ब-दोश!
क्या ये जिस्म ही नहीं है क़ैदे-हयात? 
क्या ख़यालो-तसव्वुर भी नहीं हैं क़ैद?
क्या रिश्ते नाते सब, यहाँ के पल दो पल,
कसमें वादे मुहब्बतें, भी क्या नहीं हैं क़ैद?
ये क़ैद से क़ैद तक भटकते रहना हरदम,
भटकते रहना है कब तक यूँ ख़ाना-ब-दोश!
भटकता है दर-ब-दर, ख़ाना-ब-दोश,
ढूँढ़ता है रूह का घर, ख़ाना-ब-दोश!
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