॥ श्रीशिवपञ्चाक्षर स्तोत्रम् ॥
ॐ
भूमिका :
सर्वस्याश्च देवताया: चत्वारि रूपाणि
भवन्ति :
एकमाध्यात्मिकं .
अन्यदाधिभौतिकं.
इतरदाधिदैविकं.
परं मन्त्रात्मकं .
सभी देवताओं के चार स्वरूप होते हैं .
अर्थात् उनकी उपासना इन चारों में
से किसी भी एक या अधिक रूपों में
इष्ट देवता की तरह से की जा सकती
है .
ये चार रूप क्रमशः
आध्यात्मिक,
आधिभौतिक,
आधिदैविक,
और,
मंत्रात्मक
होते हैं.
भगवान शिव का मंत्रात्मक स्वरूप है :
"नमः शिवाय "
यह उनका पञ्च-अक्षरात्मक मन्त्र
स्वरूप है .
ॐ संलग्न करने पर यही षडाक्षरी
हो जाता है .
'न' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाला श्लोक
प्रथम श्लोक है .
'म' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाला श्लोक
द्वितीय श्लोक है.
'शि' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाला श्लोक
तृतीय श्लोक है .
'व' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाला श्लोक
चतुर्थ श्लोक है .
एवं 'य' अक्षर से प्रारम्भ होनेवाला श्लोक,
पंचम श्लोक है .
इस प्रकार से शिव के मंत्रात्मक के अतिरिक्त
अन्य स्वरूपों का 'ध्यान' श्लोकों के माध्यम
से किया जाता है .
प्रत्येक श्लोक के अंत में 'नमः शिवाय' के द्वारा
इन सभी स्वरूपों की परस्पर अनन्यता ग्रहण
की जाती है .
इस प्रकार भावनायुक्त शिव-स्मरण के लिए यह
स्तोत्र शिव-भक्ति का श्रेष्ठ साधन है .
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नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय ।
भस्माङ्गरागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय ।
तस्मै ’न’-काराय नमः शिवाय ॥१॥
मन्दाकिनीसलिलचंदनचर्चिताय ।
नन्दीश्वरप्रमथनाथ महेश्वराय ।
मंदारपुष्पसुपुष्पबहुपूजिताय ।
तस्मै ’म’-काराय नमः शिवाय ।।२॥
शिवायगौरीवदनाब्जवृन्द ।
सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकंठाय वृषध्वजाय ।
तस्मै ’शि’-काराय नमः शिवाय ।।३॥
वशिष्ठकुंभोद्भवगौतमार्य ।
मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय ।
चन्द्रार्क वैश्वानरलोचनाय ।
तस्मै ’व’-काराय नमः शिवाय ॥४॥
यक्षस्वरूपाय जटाधराय ।
पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्यायदेवायदिगम्बराय ।
तस्मै ’य’-काराय नमः शिवाय ॥५॥
पञ्चाक्षरं इदम् पुण्यं
यः पठेत् शिवसन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति
शिवेन सह मोदते ॥
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ॐ
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October 31, 2010
October 22, 2010
’समय’ का सापेक्षता-सिद्धान्त
~~~~’समय’ का सापेक्षता-सिद्धान्त~~~~
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’समय’ का ’सापेक्षता-सिद्धान्त’
(सौजन्य : जया श्रीनिवासन के लघु आलेख से प्रेरित)
हमारे ’समय’ में समय रेंगता था ।
-कहते हैं दादाजी ।
पिताजी के समय में वह दौड़ने लगा था ।
और मेरे समय में,
समय उड़ने लगा है ।
मेरे बेटे के लिये समय सिमट गया है ।
वह जानता है कि ’मॉउस’ की एक ’क्लिक’
कितना ’डेटा’ ’डॉउनलोड’ कर सकती है,
-क्षणांश में !!
मेरा बेटा हो या किसी दिहाड़ी ग़रीब मज़दूर का बेटा हो,
उनका ’समय’ उन्हें लील रहा है,
’समय’ से बहुत पहले,
होते जा रहे हैं,
-परिपक्व,
जैसे कोई फल ’पक’ जाता है,
’ऑक्सीटोसिन’ की खूराक से,
’कार्बाइड’ के असर से,
एक ही रात में
-जिसे ’काल’ जल्दी ही खा लेना चाहता है,
’काल’,
-जो अपनी रफ़्तार में हर जगह पहुँच जाता है,
’डेटा’ की तरह,
बेटे समय से बहुत पहले,
-बूढ़े हो चले हैं,
-इस समय में ।
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’समय’ का ’सापेक्षता-सिद्धान्त’
(सौजन्य : जया श्रीनिवासन के लघु आलेख से प्रेरित)
हमारे ’समय’ में समय रेंगता था ।
-कहते हैं दादाजी ।
पिताजी के समय में वह दौड़ने लगा था ।
और मेरे समय में,
समय उड़ने लगा है ।
मेरे बेटे के लिये समय सिमट गया है ।
वह जानता है कि ’मॉउस’ की एक ’क्लिक’
कितना ’डेटा’ ’डॉउनलोड’ कर सकती है,
-क्षणांश में !!
मेरा बेटा हो या किसी दिहाड़ी ग़रीब मज़दूर का बेटा हो,
उनका ’समय’ उन्हें लील रहा है,
’समय’ से बहुत पहले,
होते जा रहे हैं,
-परिपक्व,
जैसे कोई फल ’पक’ जाता है,
’ऑक्सीटोसिन’ की खूराक से,
’कार्बाइड’ के असर से,
एक ही रात में
-जिसे ’काल’ जल्दी ही खा लेना चाहता है,
’काल’,
-जो अपनी रफ़्तार में हर जगह पहुँच जाता है,
’डेटा’ की तरह,
बेटे समय से बहुत पहले,
-बूढ़े हो चले हैं,
-इस समय में ।
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October 13, 2010
प्रीति का उल्लास
~~~~~~प्रीति का उल्लास ~~~~~~
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जानता हूँ,
कि तुम जो बहती हुई निर्झरिणी थी कभी,
जीवन की सख्त शीत में ,
जमकर बर्फ हो गयी हो !
और यह बर्फ हो गयी है सख्त चट्टान .
भूल से इसे ही अपना अस्तित्त्व समझकर,
अस्मिता बना लिया है तुमने !
लोग आते रहे, और इस झूठी अस्मिता को बचाने के लिए,
तुम और भी अधिक कठोर तीक्ष्ण होती चली गयी .
सख्त से सख्त,
-शीशे सी पैनी,
पर भंगुर भी !!
तुम्हें लगता है कि मैं भी तुम्हें तोड़ने ही आया हूँ,
तुम्हारे समीप ,
कि तुम्हारे एक छोटे से टुकड़े को,
अपने ड्रिंक में डालकर,
अपने नशे का लुत्फ़ बढ़ाऊँ !
नहीं प्रिये !
मैं तो आया हूँ तुम्हारे समीप सिर्फ इसलिए,
कि पिघला सकूँ,
तुम्हें अपनी प्रीति की ऊष्मा से,
कर दूँ तुम्हें पानी-पानी !
शापमुक्त कर बना दूँ तुम्हें अहिल्या,
ताकि तुम बह सको,
उन्मुक्त स्वच्छंद,
और मैं बह जाऊं,
तुम्हारी प्रीति में,
देवी !
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जानता हूँ,
कि तुम जो बहती हुई निर्झरिणी थी कभी,
जीवन की सख्त शीत में ,
जमकर बर्फ हो गयी हो !
और यह बर्फ हो गयी है सख्त चट्टान .
भूल से इसे ही अपना अस्तित्त्व समझकर,
अस्मिता बना लिया है तुमने !
लोग आते रहे, और इस झूठी अस्मिता को बचाने के लिए,
तुम और भी अधिक कठोर तीक्ष्ण होती चली गयी .
सख्त से सख्त,
-शीशे सी पैनी,
पर भंगुर भी !!
तुम्हें लगता है कि मैं भी तुम्हें तोड़ने ही आया हूँ,
तुम्हारे समीप ,
कि तुम्हारे एक छोटे से टुकड़े को,
अपने ड्रिंक में डालकर,
अपने नशे का लुत्फ़ बढ़ाऊँ !
नहीं प्रिये !
मैं तो आया हूँ तुम्हारे समीप सिर्फ इसलिए,
कि पिघला सकूँ,
तुम्हें अपनी प्रीति की ऊष्मा से,
कर दूँ तुम्हें पानी-पानी !
शापमुक्त कर बना दूँ तुम्हें अहिल्या,
ताकि तुम बह सको,
उन्मुक्त स्वच्छंद,
और मैं बह जाऊं,
तुम्हारी प्रीति में,
देवी !
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October 01, 2010
संदर्भ :"अब्बू की बकरियाँ"/अन्यथा.
यह कविता श्री गीत चतुर्वेदीजी के ब्लॉग पर प्रकाशित
कविता "अब्बू की बकरियाँ"पढ़ते हुए मन में उत्पन्न हुई,
और कमेन्ट के रूप में पोस्ट की थी, आज दिनांक
०१-१०-'१० को .
_____________________________________________
गीतजी,
कविता वही श्रेष्ठ होती है, जो पाठक को किसी अद्भुत् अनुभूति
का साक्षात्कार करा दे. यूँ तो कवि के सिरे पर कविता का जो
भाव या अर्थ होता है, वह पाठक के सिरे पर आते-आते अपना
रंग-रूप, विन्यास बदल लेता है और फ़िर भी एक अमूर्त वस्तु
ही हुआ करता है, किन्तु वह पाठक में कोई प्रतिक्रिया भी जगा
सकता है, और वह प्रतिक्रिया पुनः एक कविता का रंग-रूप ले
सकती है .
आपकी कविता पढ़ते हुए लगा :
अन्यथा.
अब्बू के पास तीन ही बकरियाँ थीं /हैं /रहेंगीं.
एक लोहित,
दूसरी श्वेत,
और तीसरी कृष्ण वर्ण की,
अब्बू अनंत काल से चरा रहा है उन्हें .
चराता रहा था, /रहेगा.
बकरियाँ चरती हैं तृण,
देती हैं दूध,
जो लोहित, कृष्ण अथवा श्वेत नहीं होता.
कुछ पीताभ सा होता है.
तृण अन्न है, बकरियोँ का,
दूध अन्न है, अब्बू का,
बकरियाँ अन्न हैं,
-भेड़ियों का.
तो इसमें गलत क्या है ?
अब्बू कहता है अपने आप से,
"अन्नं न त्यजेत् ।
तद् ब्रह्म ॥"
भेड़िया भी तो अन्न है,
किसी व्याघ्र का !
तीन वर्णों वाली अजा,
घूमती रहती है,
अहर्निश,
अजा एका,
लोहित कृष्ण श्वेता .
अब्बू अज है,
अज और अजा,
सनातन.
___________
सादर,
कविता "अब्बू की बकरियाँ"पढ़ते हुए मन में उत्पन्न हुई,
और कमेन्ट के रूप में पोस्ट की थी, आज दिनांक
०१-१०-'१० को .
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गीतजी,
कविता वही श्रेष्ठ होती है, जो पाठक को किसी अद्भुत् अनुभूति
का साक्षात्कार करा दे. यूँ तो कवि के सिरे पर कविता का जो
भाव या अर्थ होता है, वह पाठक के सिरे पर आते-आते अपना
रंग-रूप, विन्यास बदल लेता है और फ़िर भी एक अमूर्त वस्तु
ही हुआ करता है, किन्तु वह पाठक में कोई प्रतिक्रिया भी जगा
सकता है, और वह प्रतिक्रिया पुनः एक कविता का रंग-रूप ले
सकती है .
आपकी कविता पढ़ते हुए लगा :
अन्यथा.
अब्बू के पास तीन ही बकरियाँ थीं /हैं /रहेंगीं.
एक लोहित,
दूसरी श्वेत,
और तीसरी कृष्ण वर्ण की,
अब्बू अनंत काल से चरा रहा है उन्हें .
चराता रहा था, /रहेगा.
बकरियाँ चरती हैं तृण,
देती हैं दूध,
जो लोहित, कृष्ण अथवा श्वेत नहीं होता.
कुछ पीताभ सा होता है.
तृण अन्न है, बकरियोँ का,
दूध अन्न है, अब्बू का,
बकरियाँ अन्न हैं,
-भेड़ियों का.
तो इसमें गलत क्या है ?
अब्बू कहता है अपने आप से,
"अन्नं न त्यजेत् ।
तद् ब्रह्म ॥"
भेड़िया भी तो अन्न है,
किसी व्याघ्र का !
तीन वर्णों वाली अजा,
घूमती रहती है,
अहर्निश,
अजा एका,
लोहित कृष्ण श्वेता .
अब्बू अज है,
अज और अजा,
सनातन.
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सादर,
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