April 25, 2009

उन दिनों / 17.

"Don't you feel, you are spoiling our sea-coasts "?
-मैंने उसे झिड़ककर कहा । मुझे 'सिखाने' का रोल जो मिला था !
"हाँ, आप ठीक कह रहे हैं ।" -उसने दुखी होकर कहा ।
"लेकिन मैं सोचता हूँ कि बाकी अधिकाँश लोगों की तुलना में मैं इस धरती को कुछ कम ही बरबाद कर रहा हूँ । "
"कैसे ? "
"देखिये धरती, जल, वायु, और आकाश को तो हम सभी समान रूप से विनष्ट कर रहे हैं, लेकिन मैं सोचता हूँ कि जो व्यक्ति इनका न्यूनतम दुरुपयोग करता है, वह कम दोषी है । उतना नुक्सान तो सर्व-सहा धरती आसानी से झेल लेती है, और उसकी क्षतिपूर्ति भी कर देती है । "
"हाँ ",-मैंने उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा ।
"अच्छा, क्या आप मुझे तंत्र के संबंध में कुछ बतलाएंगे ? " -उसने बिना देर किए मौके का फायदा उठाते हुए मुझसे पूछ लिया ।
"तंत्र के संबंध में ? इसका तुम्हें क्या उपयोग होगा ? "
"देखिये मेरे माता-पिता को ध्यान और भारतीय आध्यात्म की दूसरी चीज़ें बहुत आकर्षित करतीं थीं, लेकिन तंत्र के प्रति उनके कुछ पूर्वाग्रह थे । सिर्फ़ पूर्वाग्रह ही नहीं थे, बल्कि यह उन्हें शायद एक धोखा या ऐसा ही कुछ लगता था । वे तंत्र से डरते भी थे, और ज़ाहिर है कि उनका तंत्र का यह आधा-अधूरा ज्ञान ही था जिसके कारण तंत्र का नाम लेते ही उनकी भौंहें तन जातीं थीं । "
"तुम्हारा अपना धर्म क्या है ?" -मैं स्वयं ही अनजाने ही दलदल में उतर गया था । मैं उसके फैलाए जाल में फँस चुका था ।
"यही तो, " -वह गंभीर होकर बोला ।
मैं उसे देख रहा था ।
"मेरा, या कहें 'हमारा' कोई धर्म भी है ?"
"अरे भाई कोई तो धर्म परम्परा से तुम्हें मिला होगा, तुम्हारे माता-पिता, तुम्हारे नाते-रिश्तेदार, तुम जहाँ रहते हो वहाँ का समाज, किसी तो धर्म से जुड़ा होगा ? " -मैंने थोड़े रोष और आश्चर्य से कहा ।
"लगता है हमें लम्बी चर्चा करनी होगी, मैं तैयार हूँ, मैं बहुत संक्षेप में आपको बतलाऊँगा कि ऐसा क्यों है कि मेरा कोई धर्म नहीं है ! लेकिन फ़िर भी उसमें आपको धीरज से सुनना होगा, मेरा निवेदन है यह आपसे ! "
- उसने अनुनयपूर्वक कहा ।
"ठीक है । " -मैं राजी था ।
'हमारा यूरोप, जहाँ खासकर दो परम्पराएँ प्रचलित हैं, यहूदी, और ईसाई, और एक तीसरी परम्परा जो मध्य एशिया से आई है, अर्थात इस्लाम, इन्हें मैं 'धर्म' की श्रेणी में नहीं रखता । ये 'परम्पराएँ'-मात्र हैं, न कि धर्म । इसीलिये मैंने आपसे निवेदन किया कि आप कृपया धीरज से मेरी बातें सुनें । "
जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ, मैं अनजाने में ही एक दलदल में उतर आया था, और वही अब मेरा उद्धार करनेवाला था । अब मुझे वह 'धर्म' के महासमर में खींच लाया था । मुझे भगवद्गीता याद आ रही थी ,
"किम् कर्म किम् अकर्मो वा, कवयो-अपि अत्र विमोहिता :"
पता नहीं गीता में इस श्लोक में किस शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन मुझे लगता है कि इस श्लोक में यदि 'कर्म' के स्थान पर 'धर्म' लिखा होता, तो शायद अविज्नान का अभिप्राय इस समय यही जान पड़ता था । मुझे धीरज रखने को कहा गया था ।
"गलती कहाँ है ?" -उसने पूछा । मुझे लग रहा था कि इस समय उसका ज़ोर सीखने की बजाय सिखाने पर अधिक था ।
"मैं आपको ज्यादा परेशान नहीं करूँगा । मेरा अपना सम्प्रदाय है ईसाई । सम्प्रदाय धर्म नहीं है, और धर्म सम्प्रदाय हो भी सकता है तथा नहीं भी हो सकता । यदि सम्प्रदाय का अर्थ 'sect' करें, तो भी कुछ छूट जाता है, सम्प्रदाय संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका मतलब है, सम्यकत्वेन प्रदीयेत इति ... ... । मैं बहुत अच्छी संस्कृत नहीं जानता लेकिन उस अर्थ में भी सम्प्रदाय शब्द का प्रयोग वैदिक या सनातन धर्म की परम्पराओं तथा शिक्षाओं को जिन लोगों (ऋषियों) ने स्थापित किया और जिसे अपनी संतानों के लिए सुरक्षित किया , उनके अपने अपने वर्ग-विशेष हेतु होता है । पश्चिम की तीनों परम्पराओं में ऐसा कुछ नहीं है, वे 'विश्वास' पर आधारित हैं, वहाँ 'मान्यताएँ' हैं, वहाँ सम्प्रदाय नहीं हैं, अपने-अपने 'sect' हैं, -फिरके हैं। हरेक की अपनी अपनी किताब है, अपना-अपना अन्तिम पैगम्बर है, और दूसरे पैगम्बरों के बारे में उनकी मान्यताओं में असहमति है । हैरानी की बात यह है कि यहूदी परम्परा वैदिक परम्परा का ही बहुत बदला हुआ रूप है, अब इसे क्या कहूँ ? फ़िर इस बदलाव में ऐतिहासिक प्रभावों के फलस्वरूप ईसाइयत और इस्लाम का जन्म हुआ। बदलाव में और बदलाव हुए, इतिहास गवाह है कि इन परम्पराओं का आपसी बैर कितना गहरा है । फ़िर इन तीनों परम्पराओं के पुन: अनेक फिरके और अनेक विरोधाभास हैं, तत्त्व-चिंतन का तो वहाँ नाम तक नहीं है । पाश्चात्य विद्वानों ने जब वैदिक ग्रंथों का अध्ययन किया तो अपने परम्परा से प्राप्त हुए पूर्वाग्रहों के खाके में उसका औचित्य टटोलने लगे । उन्होंने इसे 'religion' समझा और 'धर्म' का अनुवाद 'religion' हो गया । फ़िर आपके देश के गांधीजी जैसे लोगों ने सारे 'धर्मों' को समान समझने की शिक्षा दी, जो कि मूलत: एक 'blunder' है । मैं नहीं जानता कि मेरी बात आपको किस हद तक गले उतर सकेगी । लेकिन आज की समस्याएँ उन्हीं की शिक्षाओं का दुष्परिणाम हैं । मेरे लिए गांधीजी कतई महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन उनकी शिक्षाओं में विद्यमान विसंगतियों को हम देखना तक नहीं चाहते, यही हमारी और एक भूल है, ऐसा लगता है । "
"तो तुम अपने को हिन्दू कहना चाहते हो ?" -मैंने पूछा ।
"यही तो, ... ..." , यह उसका तकिया-कलाम था ।
*************************************************************************************
"मुझे नहीं लगता कि 'हिन्दू' कोई धर्म है , किसी भी वैदिक-ग्रन्थ या पौराणिक शास्त्र में भी इस शब्द का नाम नहीं पाया जाता । यह यहाँ के रहनेवालों को, पश्चिमी लोगों द्वारा दिया गया जातीय नाम है, जिससे यहाँ के निवासियों को संबोधित किया जाता रहा है । "
"तुम क्या सोचते हो, क्या गांधीजी ग़लत थे ? " -मैंने पूछा ।
"बेशक । लेकिन इसका सबूत मुझे नहीं देना है । मेरे पास बस इसके पर्याप्त प्रमाण हैं की कैसे एक 'किताब' का ज़िक्र , यहूदी, ईसाई, कैथोलिक, और इस्लामिक परम्पराएँ करती रहीं हैं, कैसे ऋग्वेद के इन्द्र का नाम यहोवा था, और कैसे यहूदी परम्परा के उदय से पहले जिसे पगानिस्म कहा जाता है, वैसी सामाजिक परम्परा पूरी धरती पर थी । आज इस सब बारे में पर्याप्त खोज-बीन की जा चुकी है । वैसे आपने मेरे धर्म के बारे में पूछा इसलिए इतना बताना ज़रूरी समझा। आपने सूना, इसके लिए आपका धन्यवाद । " -इतना कहकर वह मेरी ओर देखने लगा । उसकी बातों में सच्चाई थी । मुझे शर्म आने लगी कि एक विदेशी मेरे और मेरी परम्पराओं, भाषा, तथा संस्कृति आदि के बारे में मुझसे बेहतर जानता है । शर्म भी, और गौरव भी अनुभव हो रहा था !

No comments:

Post a Comment