वृद्धाश्रम / वानप्रस्थ और संन्यास
Question प्रश्न 56
-- "उसके नोट्स" से ...
उसने इसका शीर्षक रखा था :
Project Hindu Old-age Homes
हिन्दू वृद्धाश्रम प्रकल्प
और इसकी प्रस्तावना कुछ इस तरह से शब्दशः लिखी थी :
मूलतः यह प्रकल्प निम्न आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दृष्टि से विचारणीय है :
सबसे प्रमुख उद्देश्य है जिसकी भी रुचि या आवश्यकता हो ऐसे किसी भी निराश्रित वृद्ध व्यक्ति को पारिवारिक वातावरण में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करना। जो आर्थिक दृष्टि से इतने संपन्न, सक्षम या समर्थ हैं, और जिन्हें वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का महत्व ज्ञात है वे भी इस परिवार में अपनी भूमिका और दायित्व पूर्ण कर सकते हैं।
सनातन वैदिक धर्म प्रकृति के इस विधान का सम्मान करता है कि वेदविहित वर्णाश्रम व्यवस्था न केवल मनुष्यों बल्कि सभी प्राणियों के लिए भी स्वाभाविक और सरल जीवन क्रम की परंपरा है और इसमें किसी विशेष विश्वास का आग्रह या विरोध करने के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता है।
इसे सनातन इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह शाश्वत है, और नित्य होते हुए भी सतत गतिशील सत्यता है। यह न तो नितान्त निरपेक्ष सत्य है, न सापेक्ष व्यावहारिक अनुभूतिगम्य जगत् या वह "संसार" जिसे इस "संसार" से परे अचल, अटल परम सत्य कहा और माना जाता है। "संसार" में मनुष्य अपने आपको और अपने संसार को जानता तो है किन्तु उसका यह ज्ञान सदैव भ्रान्ति, अज्ञान और संशय से युक्त होता है। वह न तो यह जानता है कि "संसार" की वास्तविकता स्वरूपतः किस प्रकार की है, और न ही यह कि जिस "मैं" शब्द के प्रयोग द्वारा अपने आपको वह इंगित करता है उस वस्तु अर्थात् स्वयं की ही वास्तविकता क्या है।
स्वयं या "मैंं" नामक इस वस्तु के स्थायित्व और संभवतः इसके नित्य सत्य होने की संभावना को शायद अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है किन्तु इस "स्वयं" को प्रतीत होनेवाले "संसार" की परिवर्तनशीलता तो संदेह से परे का सत्य है जिसे कोई भी अस्वीकार भी नहीं करता।
इसलिए विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या "संसार" और "मैं" एकमेव तत्व हैं? स्पष्ट है कि "संसार" सतत और निरन्तर परिवर्तित होते रहनेवाला गतिविधि है, जबकि "मैं" सदैव स्थिर सत्य है जो कि अनुभवगम्य भी नहीं हो सकता क्योंकि "मैं" ही "वह" है जिसे कोई भी अनुभव होता है, और केवल स्मृति के ही आधार पर बुद्धि द्वारा "अनुभव" और "अनुभवकर्ता" के परस्पर एक दूसरे से भिन्न भिन्न समझ लेने की भूल हो जाती है। और तर्क की दृष्टि से भी "अनुभव" और "अनुभवकर्ता" अन्योन्याश्रित वास्तविकता है, इसलिए भी यह "मैं" "संसार" जैसी ही केवल एक प्रतीति है जो निरन्तर होते हुए भी परिवर्तित नहीं होती - अर्थात् शाश्वत और "अविकारी" होते हुए भी "सनातन" है।
फिर "स्वयं" के बदलने का विचार क्यों उठता है, और प्रश्न यह भी है कि कोई "स्वयं" को कैसे "बदल" सकता है! और किसी भी उदाहरण, तर्क या अनुभव से भी यह विचार नितान्त हास्यास्पद ही तो है!
फिर भी यह विचार इसलिए महत्वपूर्ण जान पड़ता है, क्योंकि इस "मैं" के चार आयाम हैं जैसा कि ब्रह्माजी के चार मुखों का वर्णन शास्त्रों आदि में है। वे चार आयाम क्रमशः कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी इन प्रकारों में हैं, ऐसा कहा जा सकता है।
"संसार" में "शरीर" के रूप में अस्तित्व ग्रहण कर लेने के बाद ही "संसार" की और उसमें अस्तित्वमान शरीर की प्रतीति साथ साथ ही प्रकट और विलीन होती है। इसलिए अपनी अर्थात् "स्वयं" की पहचान "शरीर" के रूप में और "संसार" की पहचान "दूसरे" के रूप में हो जाना स्वाभाविक ही है। जिस "स्मृति" में यह "पहचान" संजोई जाती है वह स्मृति भी शरीर में ही स्थित मस्तिष्क ही होता है।
इस प्रकार अपनी "स्वयं" की पहचान के चार प्रकार या आयाम क्रमशः कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी हो जाते हैं। यह चार प्रकार ही प्रकृति से प्राप्त "संस्कार" होते हैं, जिनसे नियंत्रित और परिचालित बुद्धि से ही प्रेरित होकर प्राणिमात्र का जीवन संचालित होता है।
किसी भी व्यक्ति में इन चार प्रकारों के परिपक्व होने पर ही उसमें "संसार" की अनित्यता का भान पैदा होता है और इसके पश्चात् ही इस "संसार" के प्रति वैराग्य बुद्धि भी उत्पन्न हो सकती है।
वैदिक और आध्यात्मिक दृष्टि से संभवतः केवल मनुष्य ही इतना सौभाग्यवान प्राणी है जो कि इतना परिपक्व हो और वैराग्य की इस स्थिति तक पहुँच सके। मनुष्यों में भी कोई कोई ही इस विषय में इतना गंभीर हो सकता है। इसलिए प्रकृति-प्रदत्त चार आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यद्यपि अनायास ही प्रत्येक को प्राप्त होनेवाली स्थितियाँ हैं, केवल परिपक्व मनुष्य ही इस विषय में जिज्ञासु होता है और किसी नित्य वस्तु को जानने की दिशा में प्रवृत्त होता है।
हिन्दू या सनातन धर्म का सिद्धान्त मानने वाले किसी भी मनुष्य के लिए यह समझना कठिन नहीं है कि समय रहते वह गृहस्थ आश्रम से निवृत्त हो जाए और शीघ्र ही वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर ले। तत्पश्चात इसी क्रम में संन्यास आश्रम में।
वैदिक सनातन हिन्दू वृद्धाश्रम प्रकल्प की संकल्पना इसी ध्येय से प्रेरित विचार है।
इस प्रकल्प की संकल्पना मौलिक रूप से आयु, ज्ञान या दोनों ही दृष्टि से परिपक्व वृद्धजनों और गुरुजनों के लिए की जा रही है इसलिए इसे भारतीय या हिन्दू भी कहा जा सकता है। स्पष्ट है कि यहाँ "हिन्दू" शब्द को "संप्रदाय" के अर्थ तक सीमित नहीं रखा जा सकता है। "हिन्दू-विरोधियों" को इस पर आपत्ति होने की संभावना शायद हो तो इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यहाँ "हिन्दू" शब्द को भारतीय और भारतीयता का पर्याय माना जाना उचित होगा। और उसी पहचान के रूप में चिह्नित किया जा रहा है। व्यावहारिक अर्थ में इसका प्रयोजन हिन्दू संस्कृति, आचार, विचार, संस्कार, ज्ञान और परंपरा से अपने आपको जुड़ा हुआ अनुभव करनेवालों का एक समूह निर्मित करना है। इसलिए पुनः इसमें दो समान वर्ग (श्रेणी नहीं) होंगे। पहले तो वे, जो कि किसी भी वर्ण और गोत्र में जन्म होने के आधार पर स्वयं को हिन्दू मान्य करते हैं। और यह वर्गीकरण गीता में वर्णित -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।१३।।
(अध्याय ४)
पर आधारित है और यहाँ आजीविका तथा व्यवसाय के ही आधार पर वर्ण-व्यवस्था को परिभाषित किया गया है न कि वंश पर आधारित जाति की मान्यता को आधार बनाया गया है। संक्षेप में : एक ही परिवार, वंश, गोत्र में पैदा होनेवालों का वर्ण एक दूसरे से भिन्न हो सकता है। दूसरा वर्ग उन भारतीयों का हो सकता है जिनका जन्म तो यद्यपि अहिन्दू परंपराओं में हुआ है, किन्तु जिनकी आस्था भारतीय, वैदिक, सनातन, हिन्दू आदि आचार, विचार, संस्कृति, संस्कार आदि पद्धति के प्रति हो। जो अपनी पूर्व में प्राप्त वंशगत मान्यताओं और परंपराओं को त्यागना चाहते हैं। एक अर्थ में यह "आर्य समाज" की तरह की संस्था हो सकता है किन्तु "भारतीय, वैदिक या हिन्दू" शब्द "आर्य समाज" से अधिक व्यापक अर्थ का द्योतक है। शायद ऐसे लोगों को "नव-हिन्दू भी कहा जा सकता है। यह वर्गीकरण इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि दुर्भाग्यवश हिन्दू परंपरा को माननेवाले लोगों में से कुछ को "नव-बौद्ध" का नाम देकर भारतीय ओर हिन्दू समाज को विभाजित करने का प्रयास भी किया जा चुका है। यह इस दृष्टि से भी विचारणीय है क्योंकि आजकल कुछ लोग स्वयं को "एक्स-मुस्लिम" कहलाते हुए भी अपना जीवन शान्तिपूर्वक न जी पाने की पाने की आशंका से त्रस्त रहते हैं। स्वयं को "एक्स-मुस्लिम" कहने के स्थान पर "नव-हिन्दू" कहना उन्हें बेहतर लग सकता है।
वृद्धाश्रम में किसी भी प्रकार से आयुवृद्ध ज्ञानवर्धक गुरुजनों को इस प्रकार से रहने का अवसर दिया जा सकेगा कि वे सुख शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करता सकें अतः इसे "गुरुकुल" कहना अनुपयुक्त नहीं होगा।
"गुरुकुल" में नव-हिन्दूओं को स्थान दिया जा सकता है, किन्तु इससे पहले उन्हें अपनी उन सभी सनातन धर्म विरोधी मान्यताओं को त्यागना होगा, जो स्वयं उनके ही लिए भी समस्या हैं, यह भी उतना ही आवश्यक है। ऐसा न होने पर "गुरुकुल" राजनीतिक अखाड़ा बनकर रह सकता है।
क्या हैं वे सनातन धर्म के मौलिक और प्रेरक तत्व? बहुत संक्षेप में -
यम और नियम को परिभाषित करनेवाले,
पातञ्जल योगदर्शन के साधनपाद में वर्णित निम्नलिखित सूत्र --
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः।।३०।।
जातिदेशकालसमयानवछिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।। ...
।।३१।।
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।।३२।।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्।।३३।।
किसी संस्था का सुचारु संचालन करने में अनेक तरह की कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना तो करना ही होता है। यह प्रकल्प भी अपवाद तो नहीं है।
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