वाट लग गई है तो क्या,
चल ठाठ से जीते हैं,
--
वर्ष 2002 में उत्तर में उत्तरकाशी तक, दक्षिण में चेन्नई / तिरुवन्नामलाई / पुद्दुचेरी, पूरब में पुरी तक तथा वाराणसी, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) राउरकेला तक यात्राएँ की थीं। लौटते समय उज्जैन में तीन माह रुका था। उस समय हर स्थान पर 8:00 p.m. के बड़े बड़े विज्ञापन चौराहों, रोड्स, स्टेशन आदि पर देख रहा था।
फिर समझ में आया कि यह शराब-तहज़ीब का पैग़ाम है।
"ताम्बूलं मनसा मया विरचितं
भक्त्या प्रभो स्वीकुरु !"
याद आया।
भगवान् श्री शंकराचार्य ने शिव-मानस-पूजा-स्तोत्र में यह उल्लेख किया है।
वैसे भी पान अर्थात् ताम्बूल-पत्र अनादि काल से भारतीय मुख में रचा बसा है, किन्तु ताम्र-वर्णी खदिर (कत्था) / catechu / इसके साथ खैर और चूने का प्रयोग, लौंग, इलायची, सुपारी आदि का योग इसके भिन्न भिन्न रूपों में किया जाता है। पान के रस का प्रयोग कुछ आयुर्वेदिक औषधियों के साथ 'अनुपान' की तरह भी होता है।
भारत में इस पान के साथ तमाखू का प्रचलन मुग़लों के काल में प्रारम्भ हुआ और फिर इसके साथ साथ गांजे का सेवन होने लगा। हुक्का उसी काल में प्रचलित हुआ।
पान के पत्ते betel / வெற்றிலை से बना 'बीड़ी' जिसमें तमाखू का प्रयोग गरीब वर्ग करता था।
तमाखू में 'निकोटीन' वह रसायन है जो कॉफ़ी में 'कैफीन' या चाय में 'टैनिन' की तरह पाया जाता है।
इस प्रकार भारत भूमि पर तमाखू, चाय, कॉफ़ी का आगमन हुआ।
आयुर्वेद में प्रसंगवश विभिन्न प्रकार के मादक द्रव्यों और उनके प्रभावों का वर्णन है। मुख्यतः इनका सेवन / प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता है / किया जाना चाहिए, न कि नशे के लिए।
गञ्जयति गांजा भञ्जयति भांगः
दारयति दारुः अपि नाशयति व्याधीः ।
इस प्रकार गांजा भांग तथा दारू यद्यपि विनाशकारी होते हैं, किन्तु इसीलिए व्याधियों का भी नाश करते हैं।
आयुर्वेदिक 'आसव' जैसे द्राक्षासव, कुमार्यासव आदि में यद्यपि 'आसवन' / distillation के द्वारा मदिरा कुछ अंशों में उत्पन्न होती है किन्तु वह तत्वतः उस 'आसवन' / distillation से प्राप्त शराब से बहुत भिन्न होती है जिसे सीधे ताड़ के रस से, अंगूर या गन्ने के रस के 'किण्वन' / fermentation से 'खींचा' जाता है।
द्राक्ष से शराब बनाने को जर्मन भाषा में 'drucken' कहा जाता है और ऐसी शराब बनानेवाले को 'Drucke' कहा जाता है। यह भी इसी 'दारू' का सज्ञात / cognate ही है।
बौद्ध धर्म के पंचशील-सिद्धान्त में से एक 'शील' है :
"मैं किसी किण्वित द्रव का सेवन नहीं करूँगा। "
क्योंकि किण्वन / किट्-वन की प्रक्रिया में द्रव में कीट / कृमि पैदा हो जाते हैं और उनकी हिंसा होती है।
कृमि से बना है वृमि जिससे बना है vermilion / सिन्दूर किन्तु सिन्दूर विष होता है जिसे विवाहित स्त्री हिन्दू धर्म में शायद इसलिए प्रयोग करने लगी ताकि आपत्काल में सतीत्व पर आँच आने पर तत्काल उसका सेवन कर सके। कृमि से fermi / fermentation का साम्य दृष्टव्य है।
fermi से ही formic-एसिड H-COOH बनता है, और इसीलिए उसे यह नाम प्राप्त होता है।
Acid शब्द को संस्कृत के 'अव-शित' का सज्ञात / cognate कहना अनुचित न होगा।
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वाट लग जाने पर दारू के बहाने मनोरंजन करना या 'ग़म भुलाना' वैसा ही है जैसे संस्कृत में कहा गया है :
"मर्कटस्य सुरापानं ततो वृश्चिकदंशनं .... .
ज्वराविष्टस्य प्रेतबाधा, किं तत्र जीवितेन ।"
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चल ठाठ से जीते हैं,
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वर्ष 2002 में उत्तर में उत्तरकाशी तक, दक्षिण में चेन्नई / तिरुवन्नामलाई / पुद्दुचेरी, पूरब में पुरी तक तथा वाराणसी, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) राउरकेला तक यात्राएँ की थीं। लौटते समय उज्जैन में तीन माह रुका था। उस समय हर स्थान पर 8:00 p.m. के बड़े बड़े विज्ञापन चौराहों, रोड्स, स्टेशन आदि पर देख रहा था।
फिर समझ में आया कि यह शराब-तहज़ीब का पैग़ाम है।
"ताम्बूलं मनसा मया विरचितं
भक्त्या प्रभो स्वीकुरु !"
याद आया।
भगवान् श्री शंकराचार्य ने शिव-मानस-पूजा-स्तोत्र में यह उल्लेख किया है।
वैसे भी पान अर्थात् ताम्बूल-पत्र अनादि काल से भारतीय मुख में रचा बसा है, किन्तु ताम्र-वर्णी खदिर (कत्था) / catechu / इसके साथ खैर और चूने का प्रयोग, लौंग, इलायची, सुपारी आदि का योग इसके भिन्न भिन्न रूपों में किया जाता है। पान के रस का प्रयोग कुछ आयुर्वेदिक औषधियों के साथ 'अनुपान' की तरह भी होता है।
भारत में इस पान के साथ तमाखू का प्रचलन मुग़लों के काल में प्रारम्भ हुआ और फिर इसके साथ साथ गांजे का सेवन होने लगा। हुक्का उसी काल में प्रचलित हुआ।
पान के पत्ते betel / வெற்றிலை से बना 'बीड़ी' जिसमें तमाखू का प्रयोग गरीब वर्ग करता था।
तमाखू में 'निकोटीन' वह रसायन है जो कॉफ़ी में 'कैफीन' या चाय में 'टैनिन' की तरह पाया जाता है।
इस प्रकार भारत भूमि पर तमाखू, चाय, कॉफ़ी का आगमन हुआ।
आयुर्वेद में प्रसंगवश विभिन्न प्रकार के मादक द्रव्यों और उनके प्रभावों का वर्णन है। मुख्यतः इनका सेवन / प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता है / किया जाना चाहिए, न कि नशे के लिए।
गञ्जयति गांजा भञ्जयति भांगः
दारयति दारुः अपि नाशयति व्याधीः ।
इस प्रकार गांजा भांग तथा दारू यद्यपि विनाशकारी होते हैं, किन्तु इसीलिए व्याधियों का भी नाश करते हैं।
आयुर्वेदिक 'आसव' जैसे द्राक्षासव, कुमार्यासव आदि में यद्यपि 'आसवन' / distillation के द्वारा मदिरा कुछ अंशों में उत्पन्न होती है किन्तु वह तत्वतः उस 'आसवन' / distillation से प्राप्त शराब से बहुत भिन्न होती है जिसे सीधे ताड़ के रस से, अंगूर या गन्ने के रस के 'किण्वन' / fermentation से 'खींचा' जाता है।
द्राक्ष से शराब बनाने को जर्मन भाषा में 'drucken' कहा जाता है और ऐसी शराब बनानेवाले को 'Drucke' कहा जाता है। यह भी इसी 'दारू' का सज्ञात / cognate ही है।
बौद्ध धर्म के पंचशील-सिद्धान्त में से एक 'शील' है :
"मैं किसी किण्वित द्रव का सेवन नहीं करूँगा। "
क्योंकि किण्वन / किट्-वन की प्रक्रिया में द्रव में कीट / कृमि पैदा हो जाते हैं और उनकी हिंसा होती है।
कृमि से बना है वृमि जिससे बना है vermilion / सिन्दूर किन्तु सिन्दूर विष होता है जिसे विवाहित स्त्री हिन्दू धर्म में शायद इसलिए प्रयोग करने लगी ताकि आपत्काल में सतीत्व पर आँच आने पर तत्काल उसका सेवन कर सके। कृमि से fermi / fermentation का साम्य दृष्टव्य है।
fermi से ही formic-एसिड H-COOH बनता है, और इसीलिए उसे यह नाम प्राप्त होता है।
Acid शब्द को संस्कृत के 'अव-शित' का सज्ञात / cognate कहना अनुचित न होगा।
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वाट लग जाने पर दारू के बहाने मनोरंजन करना या 'ग़म भुलाना' वैसा ही है जैसे संस्कृत में कहा गया है :
"मर्कटस्य सुरापानं ततो वृश्चिकदंशनं .... .
ज्वराविष्टस्य प्रेतबाधा, किं तत्र जीवितेन ।"
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