अरबी, उर्दू, फ़ारसी, हिब्रू, संस्कृत
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'गीता-सन्दर्भ' मेरा एक और ब्लॉग है जिसे आप मेरी profile पर देख सकते हैं।
अपने भाषा-अध्ययन के अनुभव से मैंने पाया कि जहाँ तक हो सके, किसी भी भाषा का अध्ययन किसी दूसरी भाषा के माध्यम से नहीं किया जाना चाहिए। हर भाषा का अपना एक विधान होता है जिसे तब अनायास ग्रहण कर लिया जाता है, जब हम उस भाषा को सुनकर और व्यवहार में उसके प्रयोग को देखकर धीरे-धीरे उसकी सूक्ष्मताओं पर ध्यान देने लगते हैं।
इसलिए किसी भी भाषा को बिलकुल नए सिरे से सीखना सबसे बेहतर है। वास्तव में तो भाषा का व्याकरण सीखने की ओर बहुत बाद में, तब ध्यान देना ठीक है, जब प्रयोग में लाकर, हम भाषा को किसी हद तक सीख चुके होते हैं।
व्याकरण का इतना ही उपयोग है कि भाषा की शुद्धता की परीक्षा की जा सके।
मैंने इसी प्रकार से संस्कृत का अध्ययन किया। मेरा दावा नहीं कि मेरा संस्कृत भाषा का ज्ञान व्याकरण के नियमों के अनुसार शुद्ध है।
संस्कृत व्याकरण के नियमों और विशेषताओं को समझने से पहले मैंने संस्कृत के ग्रंथों को उनके मौलिक रूप में पढ़ना प्रारम्भ किया। मुझे भाषा से प्रेम था, और उसका अर्थ का मेरे लिए गौण महत्त्व का था।
इसलिए संस्कृत की समझ मुझमें वैसे ही आई, जैसे अपनी मातृभाषा को सीखते समय हम उसके अर्थ पर अधिक ध्यान दिए बिना ही उसे समझने लगते हैं। यह मातृभाषा कोई भी हो, बहुत बाद में जाकर अर्थ की गूढ़ताओं पर हमारा ध्यान जाता है।
संस्कृत का यथेच्छ और पर्याप्त, संतोषप्रद ज्ञान होने के बाद ही मैंने उसकी सूक्ष्मताओं पर ध्यान दिया। यहाँ तक कि व्याकरण और छंद-शास्त्र का अध्ययन तक न करते हुए मैं श्लोकों को लिखने / रचने लगा, -और तब जाकर मुझे व्याकरण और छंद-शास्त्र को समझने की आवश्यकता अनुभव हुई।
इसी प्रकार मैंने अंग्रेज़ी का अध्ययन किया।
शायद मैं उर्दू, फ़ारसी, अरबी, हिब्रू आदि का भी अध्ययन ऐसे ही कर सकता था, किन्तु उस विषय में मेरी एक समस्या थी। मुझे बार बार अनुभव होता था कि भाषा हमारी चेतना (मानसिकता, मनोविन्यास) को प्रभावित करती है, और चेतना भी भाषा को उसी तरह प्रभावित करती है। इसमें कुछ संशय मेरे मन में इसलिए भी था कि जिन भाषाओं से मेरा थोड़ा-बहुत परिचय था, वे सभी बाईं से दाईं और लिखी जाती हैं - जैसे कि अंग्रेज़ी, हिन्दी, मराठी, बाँग्ला, यहाँ तक कि तमिळ, मलयालम, कन्नड, तेलुगु आदि भी। रशियन, फ्रेंच, जर्मन, यहाँ तक कि ग्रीक भी।
चूँकि मानव-मस्तिष्क में तंत्रिकाएँ (nerves) क्रमशः बाएँ और दाएँ हिस्सों (lobes) से निकलकर हमारे शरीर के क्रमशः दाएँ तथा बाएँ अंगों में फैलती हैं इसलिए यह अनुमान लगाया जाना विसंगतिपूर्ण नहीं है कि बाईं से दाईं ओर लिखी जानेवाली भाषाओं को प्रयोग करनेवाले तथा दाईं से बाईं ओर लिखी जानेवाली भाषाओं को प्रयोग करनेवाले लोगों की चेतना और मानसिकता में अवश्य ही कोई विशेष फ़र्क होता होगा।
(इसे और अच्छे तरह समझने के लिए श्री V.S.Ramachadran के कार्य के बारे में जानना सहायक हो सकता है। )
सभी भाषाएँ स्वतंत्र रूप से, बिना किसी अन्य भाषा के माध्यम से सीखने के अपने अनुभव में मैंने पाया कि किसी भी भाषा की रचना (structure) को अधिक अच्छी तरह से जानने के लिए यह ज़रूरी है कि उसे सीधे ही प्रयोग में लाने का अभ्यास किया जाना अधिक उपयोगी है।
बहुत बाद में हम अवश्य ही अनुवाद के माध्यम से अपने भाषा-ज्ञान को समृद्ध और शुद्ध कर सकते हैं।
ऊपर गीता का सन्दर्भ इसी परिप्रेक्ष्य में है।
गीता पढ़ते हुए मेरा उन अनेक संस्कृत शब्दों से परिचय हुआ जिनमें सीधे ही किसी दूसरी भाषा के विभिन्न शब्दों के स्वरूप और उसी अर्थ की झलक भी देखी जा सकती है, जो उन भाषाओं में उनका अर्थ है।
उदाहरण के लिए अस्मि, अस्मद्, युष्मत्, आदि से I am, you, आदि तथा वयं से we त्वं से Thou, du (जर्मन) उल्लेखनीय हैं। तत् से the और that, तत्र से there, ...
इस प्रकार का विधान जर्मन और किसी हद तक फ़्रेंच में भी पाया जाता है, जहाँ मूल प्रातिपदिक पद से उसका विभक्ति रूप बनाया जाता है।
ऐसा ही अनुभव आज तब हुआ, जब मैं 'इज्यते' शब्द के बारे में अपने गीता-सन्दर्भ ब्लॉग के नए पोस्ट में लिख रहा था। मुझे याद आया कि अरबी भाषा के इज़्ज़त और इजाज़त शब्दों का इस्तेमाल अरबी भाषा में उसी अर्थ में होता है, जैसा कि इसे संस्कृत में किया जाता है।
भाषाशास्त्र के विद्वान् कुछ भी कहें, मुझे लगता है कि एक भाषा का मूल किसी दूसरी भाषा में खोजना और सभी भाषाओं का स्रोत किसी एक प्राचीन भाषा में खोजना मूलतः भ्रामक है। भाषाओं में परस्पर कोई गहरा संबंध है, इसमें शक नहीं किन्तु ऐसी कोई भाषा खोजना जो सब भाषाओं का मूल हो, व्यर्थ का हठवाद ही अधिक है।
मेरी अपनी मातृभाषा मराठी से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं यह समझ सका कि किसी भाषा को एक से अधिक लिपियों में लिखने पर भाषा समृद्ध ही होती है। स्पष्ट है कि देवनागरी को अपनाए जाने से मराठी का कोई नुक्सान कदापि नहीं हुआ। इसी प्रकार उर्दू को हिंदी में लिखे जाने से उर्दू अधिक समृद्ध होकर और भी पहली-फूली। उर्दू के लिए अरबी लिपि का आग्रह ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक हो सकता है, किन्तु इससे उर्दू की लोकप्रियता में कमी भी आती है। वास्तव में तमिल की भी यही स्थिति है। जिन्हें तमिल आती है उन्हें तमिल के लिखित रूप और उच्चारण के बारे में कोई कठिनाई नहीं आती होगी, किन्तु यदि तमिल को उसकी ग्रन्थ-लिपि में भी लिखा जाए तो तमिल और भी समृद्ध ही होगी। इस प्रकार यह तमिल के लिए लाभ का ही सौदा होगा। हाँ जिन्हें तमिल के प्रचलित रूप से संतोष है, वे इसका इस्तेमाल भी यथावत् करते रहें तो इससे धीरे-धीरे दूसरे भी ग्रन्थ-लिपि में रुचि लेकर उस ओर आकर्षित हो सकते हैं।
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'गीता-सन्दर्भ' मेरा एक और ब्लॉग है जिसे आप मेरी profile पर देख सकते हैं।
अपने भाषा-अध्ययन के अनुभव से मैंने पाया कि जहाँ तक हो सके, किसी भी भाषा का अध्ययन किसी दूसरी भाषा के माध्यम से नहीं किया जाना चाहिए। हर भाषा का अपना एक विधान होता है जिसे तब अनायास ग्रहण कर लिया जाता है, जब हम उस भाषा को सुनकर और व्यवहार में उसके प्रयोग को देखकर धीरे-धीरे उसकी सूक्ष्मताओं पर ध्यान देने लगते हैं।
इसलिए किसी भी भाषा को बिलकुल नए सिरे से सीखना सबसे बेहतर है। वास्तव में तो भाषा का व्याकरण सीखने की ओर बहुत बाद में, तब ध्यान देना ठीक है, जब प्रयोग में लाकर, हम भाषा को किसी हद तक सीख चुके होते हैं।
व्याकरण का इतना ही उपयोग है कि भाषा की शुद्धता की परीक्षा की जा सके।
मैंने इसी प्रकार से संस्कृत का अध्ययन किया। मेरा दावा नहीं कि मेरा संस्कृत भाषा का ज्ञान व्याकरण के नियमों के अनुसार शुद्ध है।
संस्कृत व्याकरण के नियमों और विशेषताओं को समझने से पहले मैंने संस्कृत के ग्रंथों को उनके मौलिक रूप में पढ़ना प्रारम्भ किया। मुझे भाषा से प्रेम था, और उसका अर्थ का मेरे लिए गौण महत्त्व का था।
इसलिए संस्कृत की समझ मुझमें वैसे ही आई, जैसे अपनी मातृभाषा को सीखते समय हम उसके अर्थ पर अधिक ध्यान दिए बिना ही उसे समझने लगते हैं। यह मातृभाषा कोई भी हो, बहुत बाद में जाकर अर्थ की गूढ़ताओं पर हमारा ध्यान जाता है।
संस्कृत का यथेच्छ और पर्याप्त, संतोषप्रद ज्ञान होने के बाद ही मैंने उसकी सूक्ष्मताओं पर ध्यान दिया। यहाँ तक कि व्याकरण और छंद-शास्त्र का अध्ययन तक न करते हुए मैं श्लोकों को लिखने / रचने लगा, -और तब जाकर मुझे व्याकरण और छंद-शास्त्र को समझने की आवश्यकता अनुभव हुई।
इसी प्रकार मैंने अंग्रेज़ी का अध्ययन किया।
शायद मैं उर्दू, फ़ारसी, अरबी, हिब्रू आदि का भी अध्ययन ऐसे ही कर सकता था, किन्तु उस विषय में मेरी एक समस्या थी। मुझे बार बार अनुभव होता था कि भाषा हमारी चेतना (मानसिकता, मनोविन्यास) को प्रभावित करती है, और चेतना भी भाषा को उसी तरह प्रभावित करती है। इसमें कुछ संशय मेरे मन में इसलिए भी था कि जिन भाषाओं से मेरा थोड़ा-बहुत परिचय था, वे सभी बाईं से दाईं और लिखी जाती हैं - जैसे कि अंग्रेज़ी, हिन्दी, मराठी, बाँग्ला, यहाँ तक कि तमिळ, मलयालम, कन्नड, तेलुगु आदि भी। रशियन, फ्रेंच, जर्मन, यहाँ तक कि ग्रीक भी।
चूँकि मानव-मस्तिष्क में तंत्रिकाएँ (nerves) क्रमशः बाएँ और दाएँ हिस्सों (lobes) से निकलकर हमारे शरीर के क्रमशः दाएँ तथा बाएँ अंगों में फैलती हैं इसलिए यह अनुमान लगाया जाना विसंगतिपूर्ण नहीं है कि बाईं से दाईं ओर लिखी जानेवाली भाषाओं को प्रयोग करनेवाले तथा दाईं से बाईं ओर लिखी जानेवाली भाषाओं को प्रयोग करनेवाले लोगों की चेतना और मानसिकता में अवश्य ही कोई विशेष फ़र्क होता होगा।
(इसे और अच्छे तरह समझने के लिए श्री V.S.Ramachadran के कार्य के बारे में जानना सहायक हो सकता है। )
सभी भाषाएँ स्वतंत्र रूप से, बिना किसी अन्य भाषा के माध्यम से सीखने के अपने अनुभव में मैंने पाया कि किसी भी भाषा की रचना (structure) को अधिक अच्छी तरह से जानने के लिए यह ज़रूरी है कि उसे सीधे ही प्रयोग में लाने का अभ्यास किया जाना अधिक उपयोगी है।
बहुत बाद में हम अवश्य ही अनुवाद के माध्यम से अपने भाषा-ज्ञान को समृद्ध और शुद्ध कर सकते हैं।
ऊपर गीता का सन्दर्भ इसी परिप्रेक्ष्य में है।
गीता पढ़ते हुए मेरा उन अनेक संस्कृत शब्दों से परिचय हुआ जिनमें सीधे ही किसी दूसरी भाषा के विभिन्न शब्दों के स्वरूप और उसी अर्थ की झलक भी देखी जा सकती है, जो उन भाषाओं में उनका अर्थ है।
उदाहरण के लिए अस्मि, अस्मद्, युष्मत्, आदि से I am, you, आदि तथा वयं से we त्वं से Thou, du (जर्मन) उल्लेखनीय हैं। तत् से the और that, तत्र से there, ...
इस प्रकार का विधान जर्मन और किसी हद तक फ़्रेंच में भी पाया जाता है, जहाँ मूल प्रातिपदिक पद से उसका विभक्ति रूप बनाया जाता है।
ऐसा ही अनुभव आज तब हुआ, जब मैं 'इज्यते' शब्द के बारे में अपने गीता-सन्दर्भ ब्लॉग के नए पोस्ट में लिख रहा था। मुझे याद आया कि अरबी भाषा के इज़्ज़त और इजाज़त शब्दों का इस्तेमाल अरबी भाषा में उसी अर्थ में होता है, जैसा कि इसे संस्कृत में किया जाता है।
भाषाशास्त्र के विद्वान् कुछ भी कहें, मुझे लगता है कि एक भाषा का मूल किसी दूसरी भाषा में खोजना और सभी भाषाओं का स्रोत किसी एक प्राचीन भाषा में खोजना मूलतः भ्रामक है। भाषाओं में परस्पर कोई गहरा संबंध है, इसमें शक नहीं किन्तु ऐसी कोई भाषा खोजना जो सब भाषाओं का मूल हो, व्यर्थ का हठवाद ही अधिक है।
मेरी अपनी मातृभाषा मराठी से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं यह समझ सका कि किसी भाषा को एक से अधिक लिपियों में लिखने पर भाषा समृद्ध ही होती है। स्पष्ट है कि देवनागरी को अपनाए जाने से मराठी का कोई नुक्सान कदापि नहीं हुआ। इसी प्रकार उर्दू को हिंदी में लिखे जाने से उर्दू अधिक समृद्ध होकर और भी पहली-फूली। उर्दू के लिए अरबी लिपि का आग्रह ऐतिहासिक दृष्टि से ठीक हो सकता है, किन्तु इससे उर्दू की लोकप्रियता में कमी भी आती है। वास्तव में तमिल की भी यही स्थिति है। जिन्हें तमिल आती है उन्हें तमिल के लिखित रूप और उच्चारण के बारे में कोई कठिनाई नहीं आती होगी, किन्तु यदि तमिल को उसकी ग्रन्थ-लिपि में भी लिखा जाए तो तमिल और भी समृद्ध ही होगी। इस प्रकार यह तमिल के लिए लाभ का ही सौदा होगा। हाँ जिन्हें तमिल के प्रचलित रूप से संतोष है, वे इसका इस्तेमाल भी यथावत् करते रहें तो इससे धीरे-धीरे दूसरे भी ग्रन्थ-लिपि में रुचि लेकर उस ओर आकर्षित हो सकते हैं।
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