रामायण या गीता ?
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित-मानस लिखा जो वैसे तो वाल्मीकि-रामायण का ही लोकभाषा में किया गया एक रूपान्तरण है और यद्यपि इसे संस्कृत में ही लिखने की कामना से उनका प्रयास प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा अनुमान इसलिए किया जा सकता है, क्योंकि हर काण्ड के आरंभ में तथा और भी अनेक स्थानों में उन्होंने संस्कृत भाषा में पद्य लिखे हैं । वैसे श्री ब्रह्माण्डपुराण में वर्णित 'अध्यात्म-रामायण' में भी वाल्मीकि-रामायण के ही कथा तथा उपदेश संस्कृत में ही हैं, और स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी स्वीकार किया है कि उनके द्वारा रचित ग्रन्थ श्रीरामचरित-मानस की प्रेरणा उन्हें इन्हीं दोनों ग्रंथों से प्राप्त हुई है, इसलिए या किसी और प्रेरणा से उन्होंने इसे लोकभाषा में ही लिखा होगा । इससे यही सिद्ध होता है कि वे इसे संस्कृत में भी अवश्य लिख सकते थे और यदि ऐसा होता तो वह भी एक अद्भुत रचना होती किन्तु यह हमारा सौभाग्य ही है कि उन्होंने इसे अवधी-मिश्रित हिंदी में लिखा ।
इसे पढ़ते हुए मुझे प्रायः पूज्य श्रीसमर्थ स्वामी रामदास रचित 'दासबोध' याद आता है, और यद्यपि 'दासबोध' को मैंने बहुत बाद में पढ़ा, लेकिन यह भी अनुभव हुआ कि जैसा भाषा-शिल्प और शिल्प-वैभव इन दोनों ग्रंथो में है वह अवश्य ही समान है ।
गोस्वामी तुलसीदासजी जिस प्रकार अचानक भाषा के गियर बदल देते हैं उससे भी यही सिद्ध होता है कि संस्कृत पर उनका अधिकार था और संस्कृत में लिखना उनके लिए उतना ही सरल स्वाभाविक रहा होगा, जितना कि उस प्रचलित अवधी-मिश्रित हिंदी / हिन्दवी भाषा में, जिसमें उन्होंने श्रीरामचरित-मानस लिखा ।
एक उदाहरण अरण्यकाण्ड से :
श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ।
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ।
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ।
निसिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ।
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ।
हर हृदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ।
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ।
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ।
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ।
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ।
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ।
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः।
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ।
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ।
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संस्कृत के पंडितों को इसमें संभवतः व्याकरण तथा छंद के नियमों का उल्लंघन दृष्टिगत हुआ होगा जो उनके गोस्वामी तुलसीदासजी के प्रति ईर्ष्याजनित विद्वेष से पैदा हुआ होगा, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि गोस्वामी तुलसीदासजी के संस्कृत भाषा के ज्ञान में कोई कमी या त्रुटि थी।
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अब सवाल आता है कि हमें क्या पढ़ना चाहिए ? ज़ाहिर है कि आज की प्रचलित हिन्दी भाषा की तुलना में रामायण, श्रीरामचरितमानस या गीता तीनों की ही भाषाएँ किसी हद तक कठिन और भिन्न हैं । और इन दोनों ग्रंथों के अनुवाद पढ़ने में वह आनंद नहीं प्राप्त होता, जो कि मूल ग्रन्थ को पढ़ने से होता है इसलिए इस पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इन्हें पढ़ने के पीछे हमारा दृष्टिकोण क्या है । एक धर्मद्वेषी जो किसी भी राजनीतिक विचारधारा का हो इसे उसी दृष्टिकोण से पढ़ेगा जो उसके राजनीतिक विचार ने उसे दिया होगा ।
पुराणपंथी, पितृसत्तात्मक, स्त्री-विरोधी, दलितविरोधी इत्यादि कहकर इन ग्रंथों की निंदा की जायेगी और अपनी विद्वत्ता की धाक बैठाई जायेगी । कोई 'इतिहास' की दृष्टि से इसमें वर्णित सामाजिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं का मज़ाक उड़ाते हुए इन्हें शोषण-आधारित व्यवस्था का समर्थक सिद्ध करेगा।
लेकिन यदि कोई इन ग्रंथों का इस दृष्टि से अध्ययन करेगा कि इनमें विभिन्न प्रकार के स्त्री-पुरुषों के स्वभाव और चरित्र का कैसा वर्णन है और उनमें से मैं स्वयं किसके सर्वाधिक समान हूँ, तो उसे दिखलाई पड़ेगा कि न केवल मनुष्य बल्कि पशु, पक्षी, देवता, राक्षस, यहाँ तक कि वृक्ष आदि से भी अपनी समानता इन ग्रंथों में वह देख सकेगा ।
एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि मैं इन विविध 'पात्रों' / 'चरित्रों' में से एक या एकाधिक को अपने 'आदर्श' की तरह स्वीकार कर सकूँ और उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए आवश्यक योग्यता उपलब्ध करूँ, इसके लिए प्रयास करूँ ।
दोनों ही दृष्टियों से इन ग्रंथों का अध्ययन किया जा सकता है । कोई भी पुरुष राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, दशरथ, कुबेर, इन्द्र, गौतम, अगस्त्य, वसिष्ठ, भृगु, बालि, सुग्रीव, अंगद, हनुमान, गुह, रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद, विभीषण, खर-दूषण, त्रिशिरा, जटायु, संपाति, नल-नील आदि से अपना तादात्म्य देख सकता है, या इनमें से किसी में अपना 'आदर्श' (आइडियल रोल-मॉडल) देख सकता है और तय कर सकता है कि उसे क्या / कैसा होना है ।
इसी तरह कोई भी स्त्री भी अहल्या, अरुन्धती, सीता, कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा, मंदोदरी, शूर्पणखा, तारा, रूमा (सुग्रीव की पत्नी), सुरसा, लंकिनी, त्रिजटा आदि में अपना 'आदर्श' (आइडियल रोल-मॉडल) देख सकती है, और तय कर सकती है कि उसे क्या / कैसा होना है ।
जाकी रही भावना जैसी ....
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरित-मानस लिखा जो वैसे तो वाल्मीकि-रामायण का ही लोकभाषा में किया गया एक रूपान्तरण है और यद्यपि इसे संस्कृत में ही लिखने की कामना से उनका प्रयास प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा अनुमान इसलिए किया जा सकता है, क्योंकि हर काण्ड के आरंभ में तथा और भी अनेक स्थानों में उन्होंने संस्कृत भाषा में पद्य लिखे हैं । वैसे श्री ब्रह्माण्डपुराण में वर्णित 'अध्यात्म-रामायण' में भी वाल्मीकि-रामायण के ही कथा तथा उपदेश संस्कृत में ही हैं, और स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी स्वीकार किया है कि उनके द्वारा रचित ग्रन्थ श्रीरामचरित-मानस की प्रेरणा उन्हें इन्हीं दोनों ग्रंथों से प्राप्त हुई है, इसलिए या किसी और प्रेरणा से उन्होंने इसे लोकभाषा में ही लिखा होगा । इससे यही सिद्ध होता है कि वे इसे संस्कृत में भी अवश्य लिख सकते थे और यदि ऐसा होता तो वह भी एक अद्भुत रचना होती किन्तु यह हमारा सौभाग्य ही है कि उन्होंने इसे अवधी-मिश्रित हिंदी में लिखा ।
इसे पढ़ते हुए मुझे प्रायः पूज्य श्रीसमर्थ स्वामी रामदास रचित 'दासबोध' याद आता है, और यद्यपि 'दासबोध' को मैंने बहुत बाद में पढ़ा, लेकिन यह भी अनुभव हुआ कि जैसा भाषा-शिल्प और शिल्प-वैभव इन दोनों ग्रंथो में है वह अवश्य ही समान है ।
गोस्वामी तुलसीदासजी जिस प्रकार अचानक भाषा के गियर बदल देते हैं उससे भी यही सिद्ध होता है कि संस्कृत पर उनका अधिकार था और संस्कृत में लिखना उनके लिए उतना ही सरल स्वाभाविक रहा होगा, जितना कि उस प्रचलित अवधी-मिश्रित हिंदी / हिन्दवी भाषा में, जिसमें उन्होंने श्रीरामचरित-मानस लिखा ।
एक उदाहरण अरण्यकाण्ड से :
श्याम तामरस दाम शरीरं । जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ।
पाणि चाप शर कटि तूणीरं । नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ।
मोह विपिन घन दहन कृशानुः । संत सरोरुह कानन भानुः ।
निसिचर करि वरूथ मृगराजः । त्रातु सदा नो भव खग बाजः ।
अरुण नयन राजीव सुवेशं । सीता नयन चकोर निशेशं ।
हर हृदि मानस बाल मरालं । नौमि राम उर बाहु विशालं ।
संशय सर्प ग्रसन उरगादः । शमन सुकर्कश तर्क विषादः ।
भव भंजन रंजन सुर यूथः । त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ।
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं । ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ।
अमलमखिलमनवद्यमपारं । नौमि राम भंजन महि भारं ।
भक्त कल्पपादप आरामः । तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ।
अति नागर भव सागर सेतुः । त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः।
अतुलित भुज प्रताप बल धामः । कलि मल विपुल विभंजन नामः ।
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः । संतत शं तनोतु मम रामः ।
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संस्कृत के पंडितों को इसमें संभवतः व्याकरण तथा छंद के नियमों का उल्लंघन दृष्टिगत हुआ होगा जो उनके गोस्वामी तुलसीदासजी के प्रति ईर्ष्याजनित विद्वेष से पैदा हुआ होगा, किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि गोस्वामी तुलसीदासजी के संस्कृत भाषा के ज्ञान में कोई कमी या त्रुटि थी।
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अब सवाल आता है कि हमें क्या पढ़ना चाहिए ? ज़ाहिर है कि आज की प्रचलित हिन्दी भाषा की तुलना में रामायण, श्रीरामचरितमानस या गीता तीनों की ही भाषाएँ किसी हद तक कठिन और भिन्न हैं । और इन दोनों ग्रंथों के अनुवाद पढ़ने में वह आनंद नहीं प्राप्त होता, जो कि मूल ग्रन्थ को पढ़ने से होता है इसलिए इस पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण हो जाता है कि इन्हें पढ़ने के पीछे हमारा दृष्टिकोण क्या है । एक धर्मद्वेषी जो किसी भी राजनीतिक विचारधारा का हो इसे उसी दृष्टिकोण से पढ़ेगा जो उसके राजनीतिक विचार ने उसे दिया होगा ।
पुराणपंथी, पितृसत्तात्मक, स्त्री-विरोधी, दलितविरोधी इत्यादि कहकर इन ग्रंथों की निंदा की जायेगी और अपनी विद्वत्ता की धाक बैठाई जायेगी । कोई 'इतिहास' की दृष्टि से इसमें वर्णित सामाजिक तथा सांस्कृतिक परंपराओं का मज़ाक उड़ाते हुए इन्हें शोषण-आधारित व्यवस्था का समर्थक सिद्ध करेगा।
लेकिन यदि कोई इन ग्रंथों का इस दृष्टि से अध्ययन करेगा कि इनमें विभिन्न प्रकार के स्त्री-पुरुषों के स्वभाव और चरित्र का कैसा वर्णन है और उनमें से मैं स्वयं किसके सर्वाधिक समान हूँ, तो उसे दिखलाई पड़ेगा कि न केवल मनुष्य बल्कि पशु, पक्षी, देवता, राक्षस, यहाँ तक कि वृक्ष आदि से भी अपनी समानता इन ग्रंथों में वह देख सकेगा ।
एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि मैं इन विविध 'पात्रों' / 'चरित्रों' में से एक या एकाधिक को अपने 'आदर्श' की तरह स्वीकार कर सकूँ और उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए आवश्यक योग्यता उपलब्ध करूँ, इसके लिए प्रयास करूँ ।
दोनों ही दृष्टियों से इन ग्रंथों का अध्ययन किया जा सकता है । कोई भी पुरुष राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, दशरथ, कुबेर, इन्द्र, गौतम, अगस्त्य, वसिष्ठ, भृगु, बालि, सुग्रीव, अंगद, हनुमान, गुह, रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद, विभीषण, खर-दूषण, त्रिशिरा, जटायु, संपाति, नल-नील आदि से अपना तादात्म्य देख सकता है, या इनमें से किसी में अपना 'आदर्श' (आइडियल रोल-मॉडल) देख सकता है और तय कर सकता है कि उसे क्या / कैसा होना है ।
इसी तरह कोई भी स्त्री भी अहल्या, अरुन्धती, सीता, कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा, मंदोदरी, शूर्पणखा, तारा, रूमा (सुग्रीव की पत्नी), सुरसा, लंकिनी, त्रिजटा आदि में अपना 'आदर्श' (आइडियल रोल-मॉडल) देख सकती है, और तय कर सकती है कि उसे क्या / कैसा होना है ।
जाकी रही भावना जैसी ....
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