अमूर्त / Abstract
रिश्ते
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किसी भी रिश्ते की हदें होती हैं और रिश्ते को परिभाषित करना तो मुश्क़िल है और शायद व्यर्थ की क़ोशिश भी है किंतु रिश्ता कोई भी हो, अपनी हदें ख़ुद ही तय कर लेता है । उन हदों के भीतर उन्हें निभाना तक़लीफ़देह या आरामदेह हो या न हो, उन रिश्तों के टूटने या ख़त्म हो जाने पर भी दुःखी नहीं करता और अग़र करता भी हो तो उससे किसी से शिक़ायत तो होती ही नहीं ।
यह बात न सिर्फ़ पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक या किसी क्षेत्र-विशेष जैसे व्यवसाय, उद्योग, शिक्षा आदि में हमारे पारस्परिक संबंधों की स्थिति को हमारे लिए स्पष्ट होने में सहायक है, इससे ग़लतफ़हमियों या मतभेदों की वज़ह से रिश्तों के टूटने या ख़त्म होने की आशंका को भी कम किया जा सकता है ।
लेकिन क्या रिश्ते / रिश्तों की अहमियत सिर्फ़ दूसरे इंसानों से हमारे संपर्क होने / जुड़ने तक ही सीमित है? क्या हम ज़िन्दगी के हर पल निरंतर संसार से संपर्क में नहीं होते? बस फ़र्क़ यह है कि जो चीज़ें हमें अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती हैं उनसे हम अपना अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं । किंतु क्या उन तमाम चीज़ों से भी अधिक हमारीनिकटता अपने ही ख़यालों, डरों, उम्मीदों, भविष्य की कल्पनाओं, अतीत की खट्टी-मीठी, कटु या तिक्त स्मृतियों से नहीं होती? एक रिश्ता जिसे हम अभी सबसे ख़ास समझते हैं उसे ही, किसी दूसरे रिश्ते की याद आते ही अचानक व्यर्थ का जंजाल या सेन्टीमेन्टेलिटी / कोरी भावुकता समझकर क्या दरक़िनार नहीं कर देते?
रिश्तों की राह कहाँ से है और कहाँ तक है यह समझने पर हम किसी रिश्ते के साथ अन्याय नहीं करते । हालाँकि यह बहुत मुश्किल है लेकिन ज़रूरी भी तो है ।
और उन रिश्तों के बारे में क्या जो अमूर्त / Abstract होते हैं? जैसे कला, कविता, संगीत, और सबसे बढ़कर ‘उससे’ जिसे हम ’सत्य’, ‘भगवान’, ’प्रेम’ और ’जीवन’ कहते हैं?
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रिश्ते
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किसी भी रिश्ते की हदें होती हैं और रिश्ते को परिभाषित करना तो मुश्क़िल है और शायद व्यर्थ की क़ोशिश भी है किंतु रिश्ता कोई भी हो, अपनी हदें ख़ुद ही तय कर लेता है । उन हदों के भीतर उन्हें निभाना तक़लीफ़देह या आरामदेह हो या न हो, उन रिश्तों के टूटने या ख़त्म हो जाने पर भी दुःखी नहीं करता और अग़र करता भी हो तो उससे किसी से शिक़ायत तो होती ही नहीं ।
यह बात न सिर्फ़ पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक या किसी क्षेत्र-विशेष जैसे व्यवसाय, उद्योग, शिक्षा आदि में हमारे पारस्परिक संबंधों की स्थिति को हमारे लिए स्पष्ट होने में सहायक है, इससे ग़लतफ़हमियों या मतभेदों की वज़ह से रिश्तों के टूटने या ख़त्म होने की आशंका को भी कम किया जा सकता है ।
लेकिन क्या रिश्ते / रिश्तों की अहमियत सिर्फ़ दूसरे इंसानों से हमारे संपर्क होने / जुड़ने तक ही सीमित है? क्या हम ज़िन्दगी के हर पल निरंतर संसार से संपर्क में नहीं होते? बस फ़र्क़ यह है कि जो चीज़ें हमें अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होती हैं उनसे हम अपना अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं । किंतु क्या उन तमाम चीज़ों से भी अधिक हमारीनिकटता अपने ही ख़यालों, डरों, उम्मीदों, भविष्य की कल्पनाओं, अतीत की खट्टी-मीठी, कटु या तिक्त स्मृतियों से नहीं होती? एक रिश्ता जिसे हम अभी सबसे ख़ास समझते हैं उसे ही, किसी दूसरे रिश्ते की याद आते ही अचानक व्यर्थ का जंजाल या सेन्टीमेन्टेलिटी / कोरी भावुकता समझकर क्या दरक़िनार नहीं कर देते?
रिश्तों की राह कहाँ से है और कहाँ तक है यह समझने पर हम किसी रिश्ते के साथ अन्याय नहीं करते । हालाँकि यह बहुत मुश्किल है लेकिन ज़रूरी भी तो है ।
और उन रिश्तों के बारे में क्या जो अमूर्त / Abstract होते हैं? जैसे कला, कविता, संगीत, और सबसे बढ़कर ‘उससे’ जिसे हम ’सत्य’, ‘भगवान’, ’प्रेम’ और ’जीवन’ कहते हैं?
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