आज की कविता / मीनाक्षी
(प्रथम दो पँक्तियाँ 18 दिसम्बर 2014 को लिखीं थीं)
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जो दिख रहा है, सो दुःख रहा है,
.... हाँ, हाँ, मैंने भी बहुत सहा है !
पर मैं आँखें बन्द नहीं कर सकता / सकती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
इसलिए मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
मछुआरे का जाल,
मच्छीमार की बंसी,
किंगफ़िशर की डुबकी,
मैं नहीं देख पाता / पाती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
हाँ !
और मैं आँखें खुली रखकर भी,
सो सकता / सकती हूँ,
तमाम घटाटोप में,
तमाम ख़तरों के बीच भी,
सुक़ून से !
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
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(प्रथम दो पँक्तियाँ 18 दिसम्बर 2014 को लिखीं थीं)
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जो दिख रहा है, सो दुःख रहा है,
.... हाँ, हाँ, मैंने भी बहुत सहा है !
पर मैं आँखें बन्द नहीं कर सकता / सकती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
इसलिए मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
मछुआरे का जाल,
मच्छीमार की बंसी,
किंगफ़िशर की डुबकी,
मैं नहीं देख पाता / पाती,
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
हाँ !
और मैं आँखें खुली रखकर भी,
सो सकता / सकती हूँ,
तमाम घटाटोप में,
तमाम ख़तरों के बीच भी,
सुक़ून से !
क्योंकि मेरी पलकें नहीं है !
और मुझे सिर्फ़ वही दिखाई देता है,
जो मैं देखना चाहता / चाहती हूँ ।
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विनय वैद्य / 19/12/2016.