December 15, 2013

आज का पत्र / 15/12/2013.

आज का पत्र / 15/12/2013.
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गणित के शिक्षक ने पूछा :
’तुम्हारे भाई के पास पाँच टॉफ़ी हैं, उसने दो टॉफ़ी तुम्हें दे दीं, तो उसके पास कितनी टॉफ़ी बचीं?’
"पाँच टॉफ़ी !"
राहुल ने उत्तर दिया ।
"ओह! तुम्हें जोड़-बाकी तक के बारे में भी कुछ नहीं पता !"
शिक्षक ने डाँटते हुए कहा ।
"आपको मेरे भाई के बारे में कुछ नहीं पता ।"
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कल ही डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा एक लेख पढ़ रहा था (सौजन्य : Aryaman Chetas Pandey)
यह लेख उसी विषय में था जो आजकल बिजली-पानी और महंगाई जैसा महत्वपूर्ण बना हुआ है । एल.जी.बी.टी. के बारे में, मनुष्य की ’स्वतन्त्रता’, मानवाधिकार के बारे में, खासकर ’अल्पसंख्यकों’ के मानव-अधिकारों के बारे में । मुझे लगता है ’एल-जी.बी.टी.’ भी अल्पसंख्यक ही होंगे । भारत में, या धरती पर कहीं भी । यह सच है कि मैंने यह acronym सर्वप्रथम चिदम्बरम् साहब के मुँह से ही सुना था ।
यह लेख क़ानून, विधायिका और न्यायपालिका के बारे में भी था । मैंने उस लेख से यही निष्कर्ष निकाला कि डॉ. वैदिक सुप्रीम-कोर्ट के फ़ैसले से क़तई सहमत नहीं हैं । 
हमारे यहाँ ’विशेषज्ञों’ का अभाव नहीं है । उनमें से बहुत से  शिक्षा, उद्योग, राजनीति, कला और साहित्य, ’फ़िल्म और टीवी’, पत्रकारिता, समाज-शास्त्र, शासकीय सेवाओं, व्यवसाय-प्रबन्धन, चिकित्सा, ’धर्म और आध्यात्म’ और दूसरे क्षेत्रों में चले जाते हैं, कुछ विदेश चले जाते हैं ।
इनमें से कुछ a square peg in a round hole साबित होते हैं, और अपनी स्थिति समझकर देर-अबेर अपनी सही भूमिका में लौट जाते हैं । जैसे अमिताभ बच्चन साहब ।
लेकिन बहुत ज्यादा संख्या उन लोगों की होती है, जो अपने विषय के तो विशेषज्ञ होते हैं, किन्तु किन्हीं कारणों या दबावों के चलते कभी यह तय नहीं कर पाते कि उन्हें यथाशीघ्र और बाइज्जत वहाँ से लौट जाना चाहिए जहाँ उनकी विशेषज्ञता की क़तई जरूरत नहीं है । जहाँ उनकी विशेषज्ञता का सम्मान तक नहीं है । लेकिन मनुष्य का एकमात्र दुर्भाग्य यही है कि वह सब-कुछ समझ सकता है, किसी ’क्षेत्र’ में विश्वख्याति प्राप्त ’सफल’ व्यक्ति भी हो सकता है, लेकिन उसे अपने-आपकी ही समझ नहीं होती । फ़िर भी उसे यदि कम से कम इतनी भी समझ आ जाए कि मैं अपने-आपको नहीं समझ पाया, पहले मैं अपने आपको ठीक से जान-समझ लूँ, फ़िर संसार को समझने की क़ोशिश करूँ, तो वह संसार का बहुत भला कर सकता है ।
जो अपने-आपको ही नहीं समझ पाया, अन्य दृष्टि से वह भले ही बहुत विद्वान हो, अपने जैसे दूसरे असंख्य मनुष्यों को कैसे समझ सकेगा? और यहाँ ’अपने-आपको समझने’ से मेरा आशय ’आत्मा’ की खोज, कोई ख़ास धार्मिक अनुष्ठान या साधना और तपस्या आदि करने से नहीं, बल्कि एक मनुष्य होने के रूप में मैं क्या हूँ, इतना भर समझने से है ।
और मुझे लगता है कि तमाम ’स्वतन्त्रता’ और ’विकास’ के बावज़ूद, यही वह कमज़ोर बिन्दु है, जो विशेषज्ञों को भी संसार को गर्त में जाने से नहीं रोक पा रहा है । बहुत से मोर्चे हैं युद्ध के और मनुष्य उन मोर्चों पर अपने-आप से ही युद्धरत है, किसी की नेकनीयती पर सन्देह भी नहीं है, लेकिन फ़िर भी कुल-जमा नतीज़ा यही है जो हो रहा है । यदि मनुष्य इतना भर समझ जाए तो कुछ उम्मीद फ़िर भी की जा सकती है ।

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