December 19, 2010

~~आईना~~

~~~~~~~~~~आईना~~~~~~~~~~
___________________________
***************************

आईना तटस्थ है,
साक्षी,
बस दिखला देता है,
जो उस क्षण उसके समक्ष होता है,
-उसे,
-उसे ही जो उसे देख रहा होता है ।
आईना भला-बुरा नहीं कहता,
यह तो उसे देखनेवाला ही कहता है,
जो कि पहले से ही टूटा हुआ होता है ।
अनेक खंडों में ।
या कि मान लेता है, 
अपने को,
अस्तित्व का एक हिस्सा,
और हो जाता है युद्धरत,
अस्तित्त्व पर हावी होकर ’पूर्ण’ होने की
असंभव कामना से ग्रस्त ।
आईना टूटे हुए को टूटा हुआ दिखला देता है ।
टूटा हुआ अगर सामने न हो तो,
वह साबुत को पहचानता तक नहीं,
-क्योंकि वह खुद ही साबुत है,
-अपने आप में ।
वह ’दूसरे’ को जानता तक नहीं !
जब उसके सामने कोई नहीं होता,
तो आईना खुद भी कहाँ होता है ?
-क्योंकि आईना कभी टूटता ही कहाँ है ?
हर टुकड़ा उसका,
एक मुक़म्मल आईना ही तो होता है !
आईना मौन है,
मौन दर्पण ।
बस निहारता है,
निर्निमेष, अपलक ही !
और जब कोई मौन, निर्निमेष निहारता है,
आईने को,
तो वह बाकी नहीं रह सकता,
मिटकर हो जाता है,
खुद भी  आईना !
आईना तटस्थ है,
साक्षी !!

__________________________
************************** 

2 comments:

  1. तात्विक साक्षात्‍कार.

    ReplyDelete
  2. जी राहुल सिंह जी,
    सारगर्भित और उपयुक्त टिप्पणी के लिये आभार,
    सादर,

    ReplyDelete