~~~~~यह अन्त था !~~~~~
________माँ !!_________
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यह अन्त था !
माँ !!
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अक्सर मैं सोचता था,
एक तस्वीर बनाऊँ,
पर्वतारोहियों की,
सामने हैं कई शिखर,
जो दुर्गम हैं,
ललचाते हैं,
चुनौती देते हैं,
हर शिखर के लिये,
एक नया अभियान शुरु करना होता है,
फ़िर,
शिखरों के क्रम हैं,
श्रँखलाएँ,
किसी भी शिखर से दूसरे किसी शिखर तक,
एक नया रास्ता
होता है,
या खोजना होता है ।
शुरु करना होता है,
नये सिरे से,
एक नया अभियान,
सामना होता है,
एक नई चुनौती से !
करना होता है, एक नया संकल्प !
नहीं जानता था,
कहाँ होगा,
इस क्रम का अन्त ।
-जब कोई चोटी अविजित रहकर मुझे जीत लेगी,
और मैं हार जाऊँगा !
पर हाँ,
प्रतीक्षा ज़रूर थी,
ऐसी किसी ऐसी घड़ी की ।
ऐसी किसी चोटी की ।
और फ़िर एक दिन अचानक ही अकल्पित घटा था ।
जब उसके दर्शन हुए थे ।
उसके अद्भुत सौन्दर्य को,
मैं निर्निमेष देखता रह गया था,
अपलक,
ठगा सा !
संमोहित,
लुब्ध,
मन्त्रमुग्ध सा !
खिंचता चला गया था उसकी ओर,
खिंचता नहीं, बल्कि उड़ता हुआ सा,
क्योंकि मेरे पास पंख नहीं थे ।
और जब उसके चरणों तक पहुँचा,
चरणों को छुआ,
तो मेरा सारा विजय-गर्व धराशायी था,
नतमस्तक,
विगलित,
पिघलकर हो गया था हिमनद् !
भाग रहा था, रसातल की दिशा में ।
हाँ, उसने मुझे अभिभूत कर लिया था,
और मैं रोमाँचित था,
अधीर, विह्वल, पुलकित और गद्गद् !!
उसने मुझे उठाकर जड़ दिया था,
मेरे गाल पर एक चुम्बन !
वात्सल्य भरा,
हाँ,
मैं हारकर भी जीत गया था !
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इस कविता को पढ़ा नहीं मैने ,, बल्कि जीया है विनय जी ,,, भाव विह्वल करने वाली रचना ,,, धन्यवाद
ReplyDeleteव्यक्ति से समष्टि हो जाने की दास्तान.
ReplyDeleteसुनीताजी,
ReplyDeleteआपने "इस रचना को जीया है,..."
कहकर इसे आपने जितना सम्मान दिया,
उसके लिये हार्दिक आभार,
सादर,
राहुल सिंहजी,
ReplyDeleteहाँ, व्यष्टि कभी पूर्ण नहीं हो सकता,
उसका अहंकार ही उसकी अपूर्णता है,
और वह इसे हमेशा बनाये रखना,
इसकी पुष्टि करते रहना चाहता है,
जो एक असंभव प्रयास है ! लेकिन
जब वह उस परम तत्त्व के सौन्दर्य से
खिंचकर, उसके सान्निध्य में पिघलकर
विगलित हो जाता है, तो अस्तित्त्व उसे
वैसे ही अपने आलिंगन में घेर लेता है,
जैसे माँ, अपने शिशु को गले लगाती है ।
हार्दिक धन्यवाद, आभार,
सादर,