स्वान्तःसुखाय
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शायद 2017-18 में वाल्मीकि रामायण पढ़ा था।
तुलसी-रामायण बचपन में कभी दो-तीन बार आधा-अधूरा पढ़ा था। हाँ, सुंदरकांड ज़रूर कई दिनों / महीनों तक नियम से पढ़ा था। लेकिन बाद में आर्य समाज के संस्थापक श्री दयानन्द सरस्वती का 'सत्यार्थ-प्रकाश' पढ़ने के बाद और 'सरिता' 'मुक्ता' 'चम्पक' छाप कुछ सतही अधकचरी बौद्धिकतायुक्त चीज़ें पढ़ने के बाद 'हिंदुत्व' से 'मोहभंग' हो गया था। यह ज़रूरी नहीं कि वैचारिक 'जानकारी' बहुत हो जाने से मनुष्य भ्रम से मुक्त हो पाए ही। विचार और वैचारिक सिद्धांत / निष्कर्ष अवश्य ही जब एकाएक असत्य प्रतीत हो जाते हैं तो मनुष्य में रातों रात 'आमूल परिवर्तन' हो जाता है, या कहें कि एक भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी घटना मनुष्य को इस तरह झकझोरकर रख दे सकती है कि पल भर में उसे लगने लगता है कि वह किस बुरी तरह भ्रमित था। विडम्बना यह है की भ्रमग्रस्त मनुष्य इससे भी अनभिज्ञ होता है कि वह भ्रमग्रस्त है, और भ्रम के टूटने के बाद ही उसे यह स्पष्ट हो पाता है। उदाहरण के लिए जब मुझे यह स्पष्ट हुआ कि 'हिंदुत्व' की पहचान मूलतः एक वैचारिक मान्यता है और इस मान्यता के सहारे संगठित होनेवाला समुदाय बिना इस पहचान को स्थापित किए और भी अधिक बेहतर ढंग से उन शक्तियों को टक्कर दे सकता है जिन्हें 'हिंदुत्व-विरोधी' कहा जाता है तो मुझे लगा कि अंग्रेज़ों और विदेशियों ने जानबूझकर 'हिंदुत्व' का स्वाभिमान हममें स्थापित किया और उसे हवा दी ताकि इस बहाने भारत की सनातन पहचान को 'हिंदुत्व' की पहचान तक सीमित कर दिया जाए, तो इससे पहले मैं 'हिंदुत्व' को 'राष्ट्रवाद' का पर्याय होने के भ्रम से ग्रस्त था। और किसी दिन जब यह स्पष्ट हुआ कि कोई भी शब्द अपने-आप में सुनिश्चित अकाट्य-अटल सत्य नहीं हो सकता, और यह तो इस पर निर्भर करता है कि उस शब्द का क्या तात्पर्य ग्रहण किया जाता है। इसलिए भी एक ही 'शब्द' के असंख्य अर्थ ग्रहण किए जाते हैं और अनावश्यक विवाद पैदा होते हैं।
ज़ाहिर है कि 'हिन्दू' / 'हिंदुत्व' शब्द वेद-उपनिषद् पुराण और अन्य किसी प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ में भी नहीं है और यही कारण है कि हमें बार बार इसे नए सिरे से परिभाषित करना पड़ता है और "सनातन-धर्म ही 'हिंदुत्व' है" ऐसा बार बार कहना पड़ता है। 'हिन्दू' / 'हिंदुत्व' को महत्त्व दिए जाते ही बौद्ध, जैन, सिख आदि परंपराएँ एकाएक 'हिंदुत्व' से पृथक प्रतीत होने लगती हैं और फिर हम
"हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई"
की एकता सिद्ध करने लगते हैं।
इस प्रकार अनायास मुस्लिम-ईसाई जैसी विदेशी परंपराओं को भी 'हिंदुत्व' के साथ-साथ 'धर्म' religion की मान्यता प्राप्त हो जाती है। जबकि तथ्य यह है कि 'धर्म' का जो स्थान और तात्पर्य सनातन-धर्म के ग्रंथों में है मुस्लिम-ईसाई जैसी विदेशी परंपराओं में 'धर्म' का स्थान और तात्पर्य इससे बहुत अलग है। इसके लिए हमें उनके ग्रंथों में धर्म के समानार्थी शब्द ढूंढने होंगे और यह बहुत ही कठिन है।
एक बार मैंने 'Facebook' पर प्रश्न किया था : 'धर्म' के लिए अंग्रेज़ी का कौन सा शब्द उपयुक्त हो सकता है? तो मुझे इसका कोई संतोषप्रद उत्तर प्राप्त न हो सका था।
हमारे बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी इस सरल से तथ्य को न तो देख पाते हैं और न देखना चाहते हैं।
क्या 'धर्म' और religion समानार्थी हो सकते हैं?
और यही कारण है कि आज़ादी के 72 साल बाद भी हमारे बुद्धिजीवी 'सेक्युलरिज़्म' 'कम्युनिज़्म' आदि विदेशी शब्दों की चकाचौंध में अंधे होकर देश में जिस किसी भी प्रकार से हो सके सनातन-धर्म की क्षति करने और विदेशी 'विचारों' का प्रचार प्रसार करने में जी-जान से जुटे हुए हैं।
एक बहुत बड़ी संख्या उन बुद्धिजीवियों की भी है जो स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद या महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर उनकी तरह सब 'धर्मों' में अन्तर्निहित एक सत्य को महसूस करते हैं लेकिन उनमें छिपे उन 'असत्यों' को दर-किनार कर देते हैं जो परस्पर विरोधी हैं और मूलतः सत्य के साथ मिश्रित होकर परंपरा से स्थापित 'धर्म' का हिस्सा बने हुए हैं।
व्यक्तिगत रूप से मुझे 'हिंदुत्व' की इस पहचान से कोई आपत्ति नहीं है किंतु इसका लाभ उन्हीं शक्तियों को होता है जो इस प्रकार 'हिंदुत्व' को 'संकीर्ण' और 'जातिवादी', कहकर इसका उपहास करने से नहीं चूकतीं। इस प्रकार हम अपनी सारी ऊर्जा उनसे संघर्ष में ही खर्च करते रहते हैं। राजनीति भी इसका अपवाद नहीं है। बहुत से 'हिन्दुओं' को भी लगने लगता है कि 'हिन्दू-धर्म' कट्टर जातिवादी, पुरातन-पंथी और भेद-भाव का समर्थक है। 'वर्ण-व्यवस्था' को जातिगत का पर्याय और भेदभाव समझ लिया जाता है। इसी प्रकार 'हिन्दू धर्म' के सनातन मूल्यों पर भी राजनीति के माध्यम से वार किए जाते हैं। जैसे मंदिरों और स्त्रियों या विभिन्न वर्णों की 'धार्मिक स्वतन्त्रता' को मुद्दा बनाया जाता है। और इसमें अपने-आपको ऊपरी तौर से 'हिन्दू' कहनेवाले किन्तु वस्तुतः सनातन-धर्म से विद्वेष करनेवाले भी भरपूर हिस्सा बँटाते हैं।
सबरीमला हो या शिंगणापुर का शनि-मंदिर, सनातन-धर्म की स्थापित परंपराओं को भेदभावपरक कहकर तोड़ा जाता है।
'हिंदुत्व' के नाम पर, या 'हिंदुत्व' की निंदा करते हुए भी किस प्रकार तथाकथित 'आध्यात्मिक' व्यक्तियों ने समाज में स्थान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है 'साईं-बाबा' इसका एक बड़ा उदाहरण है। 'हिन्दुओं' के तमाम मंदिरों में 'साईं-बाबा' के भक्तों ने उनकी भी 'मूर्ति' स्थापित कर दी है या अलग से उनका ही मंदिर बना दिया है।
अभी कुछ समय पहले माननीय प्रधानमंत्रीजी शिर्डी गए थे -'मत्था टेकने' !
क्या इस्लाम के अनुयायी 'मूर्ति-पूजा' को स्वीकार करेंगे?
इस प्रकार 'साईं-चरित्र' 'हिंदुत्व' के अनुकूल या प्रतिकूल है क्या इस पर 'हिन्दू' कभी गौर करेंगे?
सबको 'धार्मिक-स्वतंत्रता' है किन्तु क्या सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं है?
और स्वतंत्र अभिव्यक्ति से किसी की मान्यताओं पर आघात भी हो सकता है।
तब उन मान्यताओं के पक्ष-विपक्ष में विवाद पैदा होता है।
तर्क के बाण दोनों पक्षों से चलाये जाते हैं और हर कोई 'इतिहास' की व्याख्या अपने पक्ष को सही सिद्ध करने और विरोधी को परास्त करने के लिए करने लगता है। इस युद्ध का प्रारंभ है अंत नहीं। किन्तु यदि युद्ध प्रारंभ होने से पहले अगर कुछ ऐसा हो सके कि सन्धि (treaty) के बजाय असत्य का निराकरण कर दिया जाए तो परस्पर विद्वेष की संभावना भी ख़त्म हो सकती है। किंतु इसके लिए 'आग्रह' नहीं 'सत्याग्रह' ज़रूरी है।
'हिंदुत्व' एक शब्द है जो एक ओर 'धर्म' अर्थात् सनातन-धर्म के अनुयायियों को भ्रमित करता है तो दूसरी ओर 'धर्म' नाम से प्रचलित धर्म-अधर्म मिश्रित परंपराओं को उनके अपने 'मतवादों' के पक्ष में एक ऐसा हथियार भी दे देता है, जो भारत की सनातन संस्कृति के लिए अत्यंत घातक है।
'साईं-बाबा' से या उनके भक्तों / अनुयायियों से, 'मिशनरियों' या जेहादियों से भी न तो मेरा कोई द्वेष है न लगाव, किन्तु उस परंपरा को भारत भूमि में स्थापित करना और उसका प्रचार-प्रसार करना वेद-विरुद्ध है ऐसा मुझे ज़रूर लगता है । इस बारे में पूज्य शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंदजी तथा पुरी के पूज्य शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंदजी सरस्वतीजी के दृष्टिकोण को गंभीरता से समझा जाना भी बहुत आवश्यक है।
उपरोक्त पोस्ट इसलिए भी लिखा क्योंकि इससे मेरी दुविधा को व्यक्त कर सकूँ।
हमारे देश के संविधान ने प्रजातंत्र और गणतंत्र को शासन की बुनियाद स्वीकार किया है।
स्पष्ट है कि 'धर्म' गौण हो गया और 'धर्म', 'अधर्म', 'धर्म-निरपेक्षता', सर्वधर्म-समत्व आदि शब्द बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों द्वारा परिभाषित और विवेचित किए गए।
सनातन-धर्म की 'विधि' तथा परंपरा यह रही है कि राजतंत्र (politics) पर 'धर्म' का शासन हो।
द्वापर-युग के अंत में जब महाभारत युद्ध हुआ उसी समय से यह क्रम न सिर्फ विलुप्त बल्कि विपरीत हो गया और राजतंत्र / अधर्म -धर्म को शासित करने लगा। और इसलिए इस युद्ध को भगवान् श्रीकृष्ण भी रोक नहीं सके।
और यही कारण है कि धरती रसातल में जा रही है। जैसा कि आजकल नेता लोग प्रायः
"मेरी बात को गलत समझा गया।"
कहकर 'यू-टर्न' ले लिया करते हैं, मैं उस तरह यू-टर्न नहीं ले सकता क्योंकि मैं नितांत 'अ-राजनीतिक' व्यक्ति हूँ। और न तो मेरी-आपकी-सबकी यह दुनिया मैंने अकेले बनाई है, न मैं अकेले इसे बदल, बना, बिगाड़ या मिटा सकता हूँ।
फलश्रुति :
इस पोस्ट से मेरी दुविधा अवश्य समाप्त हो गयी यह लाभ मुझे मिला।
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शायद 2017-18 में वाल्मीकि रामायण पढ़ा था।
तुलसी-रामायण बचपन में कभी दो-तीन बार आधा-अधूरा पढ़ा था। हाँ, सुंदरकांड ज़रूर कई दिनों / महीनों तक नियम से पढ़ा था। लेकिन बाद में आर्य समाज के संस्थापक श्री दयानन्द सरस्वती का 'सत्यार्थ-प्रकाश' पढ़ने के बाद और 'सरिता' 'मुक्ता' 'चम्पक' छाप कुछ सतही अधकचरी बौद्धिकतायुक्त चीज़ें पढ़ने के बाद 'हिंदुत्व' से 'मोहभंग' हो गया था। यह ज़रूरी नहीं कि वैचारिक 'जानकारी' बहुत हो जाने से मनुष्य भ्रम से मुक्त हो पाए ही। विचार और वैचारिक सिद्धांत / निष्कर्ष अवश्य ही जब एकाएक असत्य प्रतीत हो जाते हैं तो मनुष्य में रातों रात 'आमूल परिवर्तन' हो जाता है, या कहें कि एक भी छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी घटना मनुष्य को इस तरह झकझोरकर रख दे सकती है कि पल भर में उसे लगने लगता है कि वह किस बुरी तरह भ्रमित था। विडम्बना यह है की भ्रमग्रस्त मनुष्य इससे भी अनभिज्ञ होता है कि वह भ्रमग्रस्त है, और भ्रम के टूटने के बाद ही उसे यह स्पष्ट हो पाता है। उदाहरण के लिए जब मुझे यह स्पष्ट हुआ कि 'हिंदुत्व' की पहचान मूलतः एक वैचारिक मान्यता है और इस मान्यता के सहारे संगठित होनेवाला समुदाय बिना इस पहचान को स्थापित किए और भी अधिक बेहतर ढंग से उन शक्तियों को टक्कर दे सकता है जिन्हें 'हिंदुत्व-विरोधी' कहा जाता है तो मुझे लगा कि अंग्रेज़ों और विदेशियों ने जानबूझकर 'हिंदुत्व' का स्वाभिमान हममें स्थापित किया और उसे हवा दी ताकि इस बहाने भारत की सनातन पहचान को 'हिंदुत्व' की पहचान तक सीमित कर दिया जाए, तो इससे पहले मैं 'हिंदुत्व' को 'राष्ट्रवाद' का पर्याय होने के भ्रम से ग्रस्त था। और किसी दिन जब यह स्पष्ट हुआ कि कोई भी शब्द अपने-आप में सुनिश्चित अकाट्य-अटल सत्य नहीं हो सकता, और यह तो इस पर निर्भर करता है कि उस शब्द का क्या तात्पर्य ग्रहण किया जाता है। इसलिए भी एक ही 'शब्द' के असंख्य अर्थ ग्रहण किए जाते हैं और अनावश्यक विवाद पैदा होते हैं।
ज़ाहिर है कि 'हिन्दू' / 'हिंदुत्व' शब्द वेद-उपनिषद् पुराण और अन्य किसी प्राचीन भारतीय धर्मग्रन्थ में भी नहीं है और यही कारण है कि हमें बार बार इसे नए सिरे से परिभाषित करना पड़ता है और "सनातन-धर्म ही 'हिंदुत्व' है" ऐसा बार बार कहना पड़ता है। 'हिन्दू' / 'हिंदुत्व' को महत्त्व दिए जाते ही बौद्ध, जैन, सिख आदि परंपराएँ एकाएक 'हिंदुत्व' से पृथक प्रतीत होने लगती हैं और फिर हम
"हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई"
की एकता सिद्ध करने लगते हैं।
इस प्रकार अनायास मुस्लिम-ईसाई जैसी विदेशी परंपराओं को भी 'हिंदुत्व' के साथ-साथ 'धर्म' religion की मान्यता प्राप्त हो जाती है। जबकि तथ्य यह है कि 'धर्म' का जो स्थान और तात्पर्य सनातन-धर्म के ग्रंथों में है मुस्लिम-ईसाई जैसी विदेशी परंपराओं में 'धर्म' का स्थान और तात्पर्य इससे बहुत अलग है। इसके लिए हमें उनके ग्रंथों में धर्म के समानार्थी शब्द ढूंढने होंगे और यह बहुत ही कठिन है।
एक बार मैंने 'Facebook' पर प्रश्न किया था : 'धर्म' के लिए अंग्रेज़ी का कौन सा शब्द उपयुक्त हो सकता है? तो मुझे इसका कोई संतोषप्रद उत्तर प्राप्त न हो सका था।
हमारे बड़े-बड़े बुद्धिजीवी भी इस सरल से तथ्य को न तो देख पाते हैं और न देखना चाहते हैं।
क्या 'धर्म' और religion समानार्थी हो सकते हैं?
और यही कारण है कि आज़ादी के 72 साल बाद भी हमारे बुद्धिजीवी 'सेक्युलरिज़्म' 'कम्युनिज़्म' आदि विदेशी शब्दों की चकाचौंध में अंधे होकर देश में जिस किसी भी प्रकार से हो सके सनातन-धर्म की क्षति करने और विदेशी 'विचारों' का प्रचार प्रसार करने में जी-जान से जुटे हुए हैं।
एक बहुत बड़ी संख्या उन बुद्धिजीवियों की भी है जो स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद या महात्मा गाँधी से प्रभावित होकर उनकी तरह सब 'धर्मों' में अन्तर्निहित एक सत्य को महसूस करते हैं लेकिन उनमें छिपे उन 'असत्यों' को दर-किनार कर देते हैं जो परस्पर विरोधी हैं और मूलतः सत्य के साथ मिश्रित होकर परंपरा से स्थापित 'धर्म' का हिस्सा बने हुए हैं।
व्यक्तिगत रूप से मुझे 'हिंदुत्व' की इस पहचान से कोई आपत्ति नहीं है किंतु इसका लाभ उन्हीं शक्तियों को होता है जो इस प्रकार 'हिंदुत्व' को 'संकीर्ण' और 'जातिवादी', कहकर इसका उपहास करने से नहीं चूकतीं। इस प्रकार हम अपनी सारी ऊर्जा उनसे संघर्ष में ही खर्च करते रहते हैं। राजनीति भी इसका अपवाद नहीं है। बहुत से 'हिन्दुओं' को भी लगने लगता है कि 'हिन्दू-धर्म' कट्टर जातिवादी, पुरातन-पंथी और भेद-भाव का समर्थक है। 'वर्ण-व्यवस्था' को जातिगत का पर्याय और भेदभाव समझ लिया जाता है। इसी प्रकार 'हिन्दू धर्म' के सनातन मूल्यों पर भी राजनीति के माध्यम से वार किए जाते हैं। जैसे मंदिरों और स्त्रियों या विभिन्न वर्णों की 'धार्मिक स्वतन्त्रता' को मुद्दा बनाया जाता है। और इसमें अपने-आपको ऊपरी तौर से 'हिन्दू' कहनेवाले किन्तु वस्तुतः सनातन-धर्म से विद्वेष करनेवाले भी भरपूर हिस्सा बँटाते हैं।
सबरीमला हो या शिंगणापुर का शनि-मंदिर, सनातन-धर्म की स्थापित परंपराओं को भेदभावपरक कहकर तोड़ा जाता है।
'हिंदुत्व' के नाम पर, या 'हिंदुत्व' की निंदा करते हुए भी किस प्रकार तथाकथित 'आध्यात्मिक' व्यक्तियों ने समाज में स्थान और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है 'साईं-बाबा' इसका एक बड़ा उदाहरण है। 'हिन्दुओं' के तमाम मंदिरों में 'साईं-बाबा' के भक्तों ने उनकी भी 'मूर्ति' स्थापित कर दी है या अलग से उनका ही मंदिर बना दिया है।
अभी कुछ समय पहले माननीय प्रधानमंत्रीजी शिर्डी गए थे -'मत्था टेकने' !
क्या इस्लाम के अनुयायी 'मूर्ति-पूजा' को स्वीकार करेंगे?
इस प्रकार 'साईं-चरित्र' 'हिंदुत्व' के अनुकूल या प्रतिकूल है क्या इस पर 'हिन्दू' कभी गौर करेंगे?
सबको 'धार्मिक-स्वतंत्रता' है किन्तु क्या सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं है?
और स्वतंत्र अभिव्यक्ति से किसी की मान्यताओं पर आघात भी हो सकता है।
तब उन मान्यताओं के पक्ष-विपक्ष में विवाद पैदा होता है।
तर्क के बाण दोनों पक्षों से चलाये जाते हैं और हर कोई 'इतिहास' की व्याख्या अपने पक्ष को सही सिद्ध करने और विरोधी को परास्त करने के लिए करने लगता है। इस युद्ध का प्रारंभ है अंत नहीं। किन्तु यदि युद्ध प्रारंभ होने से पहले अगर कुछ ऐसा हो सके कि सन्धि (treaty) के बजाय असत्य का निराकरण कर दिया जाए तो परस्पर विद्वेष की संभावना भी ख़त्म हो सकती है। किंतु इसके लिए 'आग्रह' नहीं 'सत्याग्रह' ज़रूरी है।
'हिंदुत्व' एक शब्द है जो एक ओर 'धर्म' अर्थात् सनातन-धर्म के अनुयायियों को भ्रमित करता है तो दूसरी ओर 'धर्म' नाम से प्रचलित धर्म-अधर्म मिश्रित परंपराओं को उनके अपने 'मतवादों' के पक्ष में एक ऐसा हथियार भी दे देता है, जो भारत की सनातन संस्कृति के लिए अत्यंत घातक है।
'साईं-बाबा' से या उनके भक्तों / अनुयायियों से, 'मिशनरियों' या जेहादियों से भी न तो मेरा कोई द्वेष है न लगाव, किन्तु उस परंपरा को भारत भूमि में स्थापित करना और उसका प्रचार-प्रसार करना वेद-विरुद्ध है ऐसा मुझे ज़रूर लगता है । इस बारे में पूज्य शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंदजी तथा पुरी के पूज्य शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी निश्चलानंदजी सरस्वतीजी के दृष्टिकोण को गंभीरता से समझा जाना भी बहुत आवश्यक है।
उपरोक्त पोस्ट इसलिए भी लिखा क्योंकि इससे मेरी दुविधा को व्यक्त कर सकूँ।
हमारे देश के संविधान ने प्रजातंत्र और गणतंत्र को शासन की बुनियाद स्वीकार किया है।
स्पष्ट है कि 'धर्म' गौण हो गया और 'धर्म', 'अधर्म', 'धर्म-निरपेक्षता', सर्वधर्म-समत्व आदि शब्द बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों द्वारा परिभाषित और विवेचित किए गए।
सनातन-धर्म की 'विधि' तथा परंपरा यह रही है कि राजतंत्र (politics) पर 'धर्म' का शासन हो।
द्वापर-युग के अंत में जब महाभारत युद्ध हुआ उसी समय से यह क्रम न सिर्फ विलुप्त बल्कि विपरीत हो गया और राजतंत्र / अधर्म -धर्म को शासित करने लगा। और इसलिए इस युद्ध को भगवान् श्रीकृष्ण भी रोक नहीं सके।
और यही कारण है कि धरती रसातल में जा रही है। जैसा कि आजकल नेता लोग प्रायः
"मेरी बात को गलत समझा गया।"
कहकर 'यू-टर्न' ले लिया करते हैं, मैं उस तरह यू-टर्न नहीं ले सकता क्योंकि मैं नितांत 'अ-राजनीतिक' व्यक्ति हूँ। और न तो मेरी-आपकी-सबकी यह दुनिया मैंने अकेले बनाई है, न मैं अकेले इसे बदल, बना, बिगाड़ या मिटा सकता हूँ।
फलश्रुति :
इस पोस्ट से मेरी दुविधा अवश्य समाप्त हो गयी यह लाभ मुझे मिला।
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