… ভাঙা দেউলের দেবতা, …
____________________________________
********************************
ভাঙা দেউলের দেবতা,
তব বন্দনা রচিতে, ছিন্না বীণার তন্ত্রী বিরতা ।
সন্ধ্যাগগনে ঘোষে না শঙ্খ তোমার আরতিবারতা ।
তব মন্দির স্থিরগম্ভীর, ভাঙা দেউলের দেবতা ।।
তব জনহীন ভবনে
থেকে থেকে আসে ব্যাকুল গন্ধ নববসন্তপবনে ।
যে ফুলে রচে নি পূজার অর্ঘ্য, রাখে নি ও রাঙা চরণে,
সে ফুল ফোটার আসে সমাচার জনহীন ভাঙা ভবনে ।।
পূজাহীন তব পূজারি
কোথা সারা দিন ফিরে উদাসীন কার প্রসাদের ভিখারি ।
গোধূলিবেলায় বনের ছায়ায় চির-উপবাস-ভুখারি
ভাঙা মন্দিরে আসে ফিরে ফিরে পূজাহীন তব পূজারি ।
ভাঙা দেউলের দেবতা,
কত উৎসব হইল নীরব, কত পূজানিশা বিগতা ।
কত বিজয়ায় নবীন প্রতিমা কত যায় কত কব তা—
শুধু চিরদিন থাকে সেবাহীন ভাঙা দেউলের দেবতা ।।
--
खंडहर मन्दिर के हे देवता !
(गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की मूल बांग्ला रचना)
--
खंडहर मन्दिर के हे देवता !
तुम्हारी वन्दना हेतु, छिन्न वीणा के टूटे तार, अब नहीं झङ्कृत होते !
शङ्ख अब, आकाश में, तुम्हारी आरति की उद्घोषणा करते हुए,
अब नहीं गूञ्जते !
तुम्हारा मन्दिर स्थिर-गम्भीर है अब ।
तुम्हारे निर्जन भवन में, भटकती वसन्तपवन के झोंके अवश्य आते हैं,
जो ले आते हैं अपने साथ, उन फूलों को,
जिन्हें अब कोई तुम्हारे लिए प्रस्तुत नहीं करता ।
तुम्हारा पुराना पुजारी भटकता है इधर-उधर याचना करते हुए,
जिसे कोई देखना तक नहीं चाहता ।
सन्ध्या की गोधूलि-वेला में,
जब आकाश में ज्योति और अन्धकार मिल रहे होते हैं,
भूखे हृदय, थके कदमों से वह मन्दिर की ओर लौटता है ।
अब तुम्हारे कितने ही पर्व उत्सव उदास नीरवता में गुजर जाते हैं,
हे भग्न मन्दिर के देवता !
तुम्हारी कितनी ही रात्रियां बिना दीप प्रज्वलित किए ही की जा रही,
प्रार्थना सुनते हुए बीत जाती हैं !
धूर्त कला में निपुण शिल्पकारों द्वारा रोज,
नई नई मूर्तियां गढी जाती हैं, और उनका समय हो जाते ही,
विस्मृति की पावन धारा में विसर्जित कर दी जाती हैं ।
बस, भग्न मन्दिर का देवता ही,
अपनी सतत अविनाशी उपेक्षा में अपूजित शेष रह जाता है ।
--
-रविन्द्रनाथ ठाकुर .
____________________________________
********************************
ভাঙা দেউলের দেবতা,
তব বন্দনা রচিতে, ছিন্না বীণার তন্ত্রী বিরতা ।
সন্ধ্যাগগনে ঘোষে না শঙ্খ তোমার আরতিবারতা ।
তব মন্দির স্থিরগম্ভীর, ভাঙা দেউলের দেবতা ।।
তব জনহীন ভবনে
থেকে থেকে আসে ব্যাকুল গন্ধ নববসন্তপবনে ।
যে ফুলে রচে নি পূজার অর্ঘ্য, রাখে নি ও রাঙা চরণে,
সে ফুল ফোটার আসে সমাচার জনহীন ভাঙা ভবনে ।।
পূজাহীন তব পূজারি
কোথা সারা দিন ফিরে উদাসীন কার প্রসাদের ভিখারি ।
গোধূলিবেলায় বনের ছায়ায় চির-উপবাস-ভুখারি
ভাঙা মন্দিরে আসে ফিরে ফিরে পূজাহীন তব পূজারি ।
ভাঙা দেউলের দেবতা,
কত উৎসব হইল নীরব, কত পূজানিশা বিগতা ।
কত বিজয়ায় নবীন প্রতিমা কত যায় কত কব তা—
শুধু চিরদিন থাকে সেবাহীন ভাঙা দেউলের দেবতা ।।
--
खंडहर मन्दिर के हे देवता !
(गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की मूल बांग्ला रचना)
--
खंडहर मन्दिर के हे देवता !
तुम्हारी वन्दना हेतु, छिन्न वीणा के टूटे तार, अब नहीं झङ्कृत होते !
शङ्ख अब, आकाश में, तुम्हारी आरति की उद्घोषणा करते हुए,
अब नहीं गूञ्जते !
तुम्हारा मन्दिर स्थिर-गम्भीर है अब ।
तुम्हारे निर्जन भवन में, भटकती वसन्तपवन के झोंके अवश्य आते हैं,
जो ले आते हैं अपने साथ, उन फूलों को,
जिन्हें अब कोई तुम्हारे लिए प्रस्तुत नहीं करता ।
तुम्हारा पुराना पुजारी भटकता है इधर-उधर याचना करते हुए,
जिसे कोई देखना तक नहीं चाहता ।
सन्ध्या की गोधूलि-वेला में,
जब आकाश में ज्योति और अन्धकार मिल रहे होते हैं,
भूखे हृदय, थके कदमों से वह मन्दिर की ओर लौटता है ।
अब तुम्हारे कितने ही पर्व उत्सव उदास नीरवता में गुजर जाते हैं,
हे भग्न मन्दिर के देवता !
तुम्हारी कितनी ही रात्रियां बिना दीप प्रज्वलित किए ही की जा रही,
प्रार्थना सुनते हुए बीत जाती हैं !
धूर्त कला में निपुण शिल्पकारों द्वारा रोज,
नई नई मूर्तियां गढी जाती हैं, और उनका समय हो जाते ही,
विस्मृति की पावन धारा में विसर्जित कर दी जाती हैं ।
बस, भग्न मन्दिर का देवता ही,
अपनी सतत अविनाशी उपेक्षा में अपूजित शेष रह जाता है ।
--
-रविन्द्रनाथ ठाकुर .
No comments:
Post a Comment