सुनीता जी, वास्तव में मैंने अपने गुरुजनों से जो सीखा उसका सार यही है कि मन यद्यपि नित्य आत्मा में ही स्थित है, और गहरी सुषुप्ति को कोई भी त्यागना नहीं चाहता, हालाँकि उस स्थिति में जगत् की कोई वस्तु ’हमारी’ नहीं होती, किन्तु तब भी हम स्वाभाविक और पूर्ण आनन्द का उपभोग करते हैं । निद्रा से जागने पर भी कुछ क्षणों तक मन उस नीरवतापूर्ण शान्ति में मग्न रहता है, फ़िर संसार और संसार में अपने ’कुछ’ विशिष्ट होने का खयाल चित्त में कौंधता है । इसके बाद ही तमाम चीजें हम पर हावी हो जाती हैं, हम जगत की भूलभुलैया में भटक जाते हैं । अगर हम गहरी सुषुप्ति में जो थे, उसे ही जागृति में भी पहचान सकें, तो उपनिषदों में वर्णित सत्य समझने में हमें देर नहीं लगती । आपकी इतनी सुन्दर सारगर्भित टिप्पणी से जो अथाह सन्तुष्टि हुई, उसके लिए बहुत आभारी हूँ । सादर,
My Prominant Translation-Works Are:
1.अहं ब्रह्मास्मि - श्री निसर्गदत्त महाराज की विश्वप्रसिद्ध महाकृति
"I Am That" का हिंदी अनुवाद, चेतना प्रकाशन मुम्बई,
( www.chetana.com ) से प्रकाशित
"शिक्षा क्या है ?": श्री जे.कृष्णमूर्ति कृत " J.Krishnamurti: Talks with Students"
Varanasi 1954 का
"ईश्वर क्या है?" : "On God",
दोनों पुस्तकें राजपाल संस, कश्मीरी गेट दिल्ली से प्रकाशित ।
इसके अतिरिक्त श्री ए.आर. नटराजन कृत,
श्री रमण महर्षि के ग्रन्थों "उपदेश-सारः" एवं "सत्-दर्शनं" की
अंग्रेज़ी टीका का हिंदी अनुवाद, जो
Ramana Maharshi Centre for Learning,Bangalore
से प्रकाशित हुआ है ।
I love Translation work.
So far I have translated :
I Am That (Sri Nisargadatta Maharaj's World Renowned English/Marathi/(in more than 17 + languages of the world) ...Vedanta- Classic in Hindi.
J.Krishnamurti's works, :
i) Ishwar Kyaa Hai,
ii)Shiksha Kya Hai ?
And some other Vedant-Classics.
I am writing these blogs just as a hobby. It helps improve my skills and expressing-out myself.
Thanks for your visit !!
Contact : vinayvaidya111@gmail.com
वाह विनय जी कितनी सुंदरता से आपने एक सच को कविता का रूप दिया है
ReplyDeleteसुनीता जी,
ReplyDeleteवास्तव में मैंने अपने गुरुजनों से जो सीखा उसका सार यही है कि मन यद्यपि नित्य आत्मा में ही स्थित है, और गहरी सुषुप्ति को कोई भी त्यागना नहीं चाहता, हालाँकि उस स्थिति में जगत् की कोई वस्तु ’हमारी’ नहीं होती, किन्तु तब भी हम स्वाभाविक और पूर्ण आनन्द का उपभोग करते हैं । निद्रा से जागने पर भी कुछ क्षणों तक मन उस नीरवतापूर्ण शान्ति में मग्न रहता है, फ़िर संसार और संसार में अपने ’कुछ’ विशिष्ट होने का खयाल चित्त में कौंधता है । इसके बाद ही तमाम चीजें हम पर हावी हो जाती हैं, हम जगत की भूलभुलैया में भटक जाते हैं । अगर हम गहरी सुषुप्ति में जो थे, उसे ही जागृति में भी पहचान सकें, तो उपनिषदों में वर्णित सत्य समझने में हमें देर नहीं लगती । आपकी इतनी सुन्दर सारगर्भित टिप्पणी से जो अथाह सन्तुष्टि हुई, उसके लिए बहुत आभारी हूँ ।
सादर,