कपड़ों से पहचाना जाना !
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भीषण शीत लहर से देश के विभिन्न हिस्से अस्त-व्यस्त और त्रस्त हैं।
साधन-सुविधा-संपन्न तो किसी भी कीमत पर इस ठण्ड से न केवल अपना बचाव कर सकते हैं, बल्कि वे इसका लुत्फ़ भी उठा सकते हैं । आइस-हॉकी या आइस-स्केटिंग खेल सकते हैं, अचानक हिम-स्खलन या भू-स्खलन के शिकार हो सकते हैं लेकिन (उनके लिए) एडवेंचर ही तो जीवन है।
दूसरी ओर साधनहीन जैसे तैसे अपने ढंग से बुद्धि का इस्तेमाल कर ठंड से सुरक्षा का इंतज़ाम कर रात बिता देते हैं। निर्धनों के पास बुद्धि का धन / साधन तो होता ही है, जबकि तथाकथित सुविधाभोगी संपन्न लोगों के पास यह साधन भी प्रायः नहीं होता। भीषण ठंड या गर्मी से, एक्सीडेंट से, भूख से या बहुत और ऊटपटांग खाकर बीमार होकर मर जाना शायद अपना अपना भाग्य है। साधन जो प्राणों को बचाने लिए, उपभोग तथा भोग विलास के लिए इकट्ठे किए जाते हैं, वे ही कभी प्राण ले भी लेते हैं।
भारत में शीतलहर, तो ऑस्ट्रेलिया में जंगलों की आग !
धन-दौलत से संपन्न लोगों की पहचान सुखी की तरह की जाती है, और कोई बुद्धिमान भी उचित अनुचित तरीकों से धन का अम्बार लगाकर गर्व से भर सकता है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि तमाम सुखों और नित्य प्राप्त होनेवाली उत्तेजनाओं, विचित्र अनुभवों, लालसाओं की तृप्ति होने से वह अजर अमर हो जाता हो।
क्या धन-दौलत की सहायता से मनुष्य को रोग, व्याधि, भय तथा आशंकाओं से छुटकारा मिल जाता है? लेकिन धनवानों के मन में ऐसा प्रश्न उठता ही नही।
जिस प्रकार कष्ट मनुष्य को कभी-कभी असंवेदनशील बना दिया करते हैं, वैसे ही सतत सुख भी उसे असंवेदनशील बना देते हैं। फिर वह महत्वाकांक्षाओं, धर्म, आदर्शों आदि के पीछे भागकर येन केन प्रकारेण जीवन की सार्थकता पाने का प्रयास करता है या काल्पनिक प्रश्नों के लिए जीवन का उत्सर्ग भी कर देता है, किन्तु क्या दुःखों से उसे छुटकारा मिल सकता है?
संवेदनशीलता में कष्ट भी हैं और कष्टों से मुक्ति भी।
असंवेदनशील होना दुःखों से पलायन करने में सहायक तो प्रतीत होता है, किन्तु अंततः और भी अधिक असंवेदनशील बनाने लगता है। यह क्रमिक मृत्यु है।
किसी आकस्मिक मृत्यु में मर जाना उतना बुरा /दुःखद नहीं है,जितना कि ऐसी क्रमिक मृत्यु में जीते रहना।---